Monday, January 19, 2009

कहने को तो आज की औरत चाँद पर पहुँच गई है पर जब भी मैंने अपने आस-पास झांकने की कोशिश की मुझे उतना ही कोहरा , उतनी ही परछाइयाँ उतने ही कसैले बीजमिले जितने आज से सदियों पहले हुआ करते थे....पेश है ये नज़्म "अतीत का कोहरा"......पिछली पोस् में आप सब ने काफी लंबी टिप्पणियों से हौसला अफजाई की है आस है ये साथ बना रहेगा.....

अतीत का कोहरा ......

ख़राशीदा* शाम
कंदील रोशनी में
एहसास की धरती पर
उगाती है पौधे
कसैले बीजों के.....

वक़्त की इक आह
नहीं बन पायी कभी आकाश
ज़ब् करती रही भावनाएं,
उत्तेजनाएं,अपना प्यार
और सौन्दर्य
इक तल्ख़* मुस्कान लिए.....

सपनो के चाँद पर
उड़ते रहे वहशी बादल
इक खुशनुमा रंगीन जी़स्*
बिनती है बीज दर् के
मन के पानी में
तैर जाती हैं कई ...
खुरदरी, पथरीली,नुकीली,
बदहवास,हताश
परछाइयाँ.....

आँखें अतीत का कोहरा लिए
छाँटती हैं अंधेरे
स्मृतियों की आकृति में
गढ़ उठते हैं
कई लंबे संवाद
कटु उक्तियाँ.....

कठोर वर्जनाएं
आँखों की बौछार में
मांगती हैं जवाब
प्रश् लगाते हैं ठहाके
कानून उड़ने लगता है
पन्नों से.....

आदिम युग की रिवायतें*
स्त्री यंत्रणाएं
समाज की नीतियाँ
विद्रूपताएं
वर्तमान युग में सन्निहित
मेरे भीतर की स्त्री को
झकझोर देती हैं...

जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे.....


) ख़राशीदा-खरोंच लगी
)तल्ख़-कटु
)जी़स्-जिंदगी
)रिवायतें-परम्पराएं

37 comments:

Unknown said...

bahut hi sundar....

Akhilesh Shukla said...

hello ji
your poems is attractive. If like to published in hindi mazagine please log on to my blog. This blog contain review of patrika.
akhilesh Shukla
http://katha-chakra.blogspot.com

"अर्श" said...

बहोत ही उम्दा लेखन एक बार फ़िर से आपके द्वारा... बहोत खूब लिखा है आपने बहोत बढ़िया अभिब्यक्ति....

अर्श

नीरज गोस्वामी said...

आप की कलम से एक औत गंभीर, सार्थक रचना...बहुत अच्छे भाव और शब्द...बधाई
नीरज

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छा...।

amitabhpriyadarshi said...

bhawnaon ko ukernaa koi aap se sikhe.
chhote chhote shabdon ne kitnee aasaanee se baaten kaha dee.

aankhen ateet ka kohra liye,
chhatatee hai andhere,
smrition kee aakriti men,
gadha uthate hain
lambe samwaad.

behtareen.

Prakash Badal said...

बहुत बढ़िया हरकीरत जी,

बढ़िया रचना वाह वाह्

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही सुंदर भाव धन्यवाद

Udan Tashtari said...

जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे.....


--बहुत उम्दा, वाह!! अच्छा लगा पढ़ना.

Vinay said...

मेरे दिल के बहुत क़रीब रही यह कविता, बधाई

---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम

अमिताभ मीत said...

बहुत बढ़िया है.

Arvind Mishra said...

चिंतन को कुरेदती कविता !

सुशील छौक्कर said...

हमेशा की तरह फिर से बहुत ही सुन्दर लिखा आपने।
वक्‍़त की इक आह
नहीं बन पायी कभी आकाश
ज़ब्‍त करती रही भावनाएं,
उत्‍तेजनाएं,अपना प्‍यार
और सौन्‍दर्य
इक तल्‍ख़* मुस्‍कान लिए.....

बहुत ही उम्दा। और हाँ आपके ब्लोग का ये नया रंग रुप बहुत सुन्दर प्यारा लग रहा है। हमे तो कही से भी नही मिल ऐसा सुन्दर टेम्पलेट।

डॉ .अनुराग said...

इत्तिफकान चाँद पर लिखी ऐसी ही एक बात शायद मैंने साल भर पहले लिखी थी ....आपकी इस रचना में .नज़्म ओर कविता दोनों का अहसास टुकडो टुकडो में मिलता है .....हिन्दी ओर उर्दू का जबरदस्त प्रयोग .

रश्मि प्रभा... said...

आदिम युग की रिवायतें*
स्‍त्री यंत्रणाएं
समाज की नीतियाँ
विद्रूपताएं
वर्तमान युग में सन्‍निहित
मेरे भीतर की स्‍त्री को
झकझोर देती हैं...
और झकझोरती रहेगी,चाँद पर जाने के बीच बहुत बड़ी
खाई है,जो जगती ही रहेगी,
बहुत अच्छी

दिगम्बर नासवा said...

जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे.....

बहुत सुंदर tarike से simeta है jazbaaton को, saarthak रचना

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

बेहतरीन रचना.........

vijay kumar sappatti said...

harkirat ji ,

is baar aapne ek nayi kavita ka ahsaass diya hai , jo aapki kaavyashaili ki pakad ko darshata hai .. hindi aur urdu ka behatreen compositon .

badhai sweekar karen..

vijay

Gurinderjit Singh (Guri@Khalsa.com) said...

Very beautiful expressions and thoughts.. chaand jgata rhe to kitna acha hai..

गौतम राजऋषि said...

कहने वाली कितनी बातें कह कर भी अनकही नहीं रह जाती?

’मेरी फितरत का सौ-सौ बार शिकवा कर चुके हो तुम / गिला कुछ देर अपने आप से भी कर लिया होता" और "हकीर इस जिंदगी में फिर कहां से लज़्ज़तें होतीं / अगर उस आरज़ू का नक्श दिल से मिट गया होता"---इन शेरों की साम्राग्यी को सलाम

विवेक सिंह said...

बहुत अच्‍छा...।

Tapashwani Kumar Anand said...

आँखें अतीत का कोहरा लिए
छाँटती हैं अंधेरे
स्‍मृतियों की आकृति में
गढ़ उठते हैं
कई लंबे संवाद
कटु उक्‍तियाँ.....
bahut hi umda aur sabha hua.......
badhai..

daanish said...

MUFLIS said...
"हंसी की इक फिज़ूलसी कोशिश में...."
रचनाशीलता की विशिष्ठता सिर्फ़ इस बात पर निर्भर नही है कि शब्द कितने चुने गए हैं, शीर्षक क्या दिया गया है, बल्कि यू देखा जाता है कि शब्द विन्यास कैसा है, भाव क्या है, कला पक्ष को किस तरह से निभाया गया है...और जब बात चले 'हरकीरत हकीर' की काव्य-शैली की तो उपरोक्त हर बात वाजिब ठहरती है. आपकी काव्य रचनाओं में विभिन्न प्रतीक, बिम्ब और रूपक हमेशा प्रासंगिकता लिए होते हैं जो कविता को प्राणवान बनाते हैं. आपकी ये कविता भी जीवन के कठोरतम सत्य से साक्षात्कार करवाती है. आपके अन्दर का द्वंद आपकी शक्ति बन कर आपकी रचनाओं को ऊर्जस्वी बनाता है . रिश्तों कई जटिलताएं, मानवीय वेदना सब हम सब का ही एक हिस्सा लगने लगता है ...और मैंने तो आपका काव्य-संकलन "इक दर्द" कई बार पढ़ा है और पाया है कि आपकी कविता पाठक-वर्ग से संवाद स्थापित करने में सक्षम है . जीवन की कठोर पग-डंडियों का कलात्मक चित्रण आपकी रचना-धर्मिता का हिस्सा है... काव्य/ग़ज़ल के विषय-वस्तु पर दो-एक बार हुई आपसे चर्चा पर मैंने आपकी वैचारिकता कि दशा को हमेशा स्तरीय पाया है.. सो काव्य लेखन के लिए आपकी प्रति-बद्धता प्रशंसनीय तो है ही, अनुकरणीय भी है ...अपनी इस खूबसूरत रचना पर मेरी तरफ़ से भी बधाई स्वीकारें...
---मुफलिस---

daanish said...

हरकीरत जी ! आप हैरान हो रही होंगी कि पिछली वाली कविता पर दी गई टिप्पणी यहाँ कैसे और क्यूं ?
बात दरअसल ये है...मुझे महसूस हुआ कि आपकी रचना पर इतनी देर से कमेन्ट करना आपकी रचना की गरिमा को कम आंकने जैसा ही माना जायेगा, सो मुझे यही बेहतर लगा कि आपकी रचना शीलता की जो समीक्षा और प्रशंसा सब तक पहुंचनी चाहिए थी वो शायद नही हो पाया, सो वही विचार मैं एक बार फिर रखना चाहता था ...
आप अपनी पुख्ता सोच को एक निश्चित आकार दे कर काव्य सृजन करती हैं , आपकी रचनाओं के पात्रों की मार्मिकता और तरलता पढने वालों की मानसिकता से घुल-मिल सी जाती है और इसी लिए आप की रचनाएं हर दिल हो जाने का दर्जा रखती हैं ...
ढेरों बधाई स्वीकारें ...
माँ सरस्वती जी आपको अपना भरपूर आशीर्वाद प्रदान करती रहे इसी कामना के साथ .......
---मुफलिस---

daanish said...
This comment has been removed by the author.
neera said...

जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे.....

अब तो हमें भी जगायेगा!

के सी said...

kavita pasand aayi.

sandhyagupta said...

Aapki kavita achchi lagi.

Kavi Kulwant said...

क्या कहूँ अपने बारे में...? ऐसा कुछ बताने लायक है ही नहीं बस - इक-दर्द था सीने में,जिसे लफ्जों में पिरोती रही दिल में दहकते अंगारे लिए, मैं जिंदगी की सीढि़याँ चढती रही कुछ माजियों की कतरने थीं, कुछ रातों की बेकसी जख्मो के टांके मैं रातों को सीती रही।
Pahli baar koi itne dard ke saath mila hai....
Dekhna hai ki aap ke dard se (your poetry full of pains) ham dab jaate hain..
Yan aap hamare dukh (poetry full of pain) se pighal zaati hain..
aap ki poems padh kar mahsoos huya dard...
kavi kulwant
http://kavikulwant.blogspot.com

BrijmohanShrivastava said...

रचना में अत्यधिक गहराई है

Prakash Badal said...

एक बार फिर आया फिर पढ़ी आपकी कविताएँ , फिर अच्छी लगी, वाह वाह कोई नई कविता भी हो जाए अब!

मोहन वशिष्‍ठ said...

बहुत बहुत सुंदर लिखा है आपने बहुत बहुत बधाई

आपको एवं आपको पढने वालों को और सभी को मेरी ओर से गणतंत्र दिवस की हार्दिक एवं ढेर सारी शुभकामनाएं

manu said...

सपनो के चाँद पर
उड़ते रहे वहशी बादल
इक खुशनुमा रंगीन जी़स्‍त
बिनती है बीज दर्द क ...मन क पानी में
लाजवाब लाइनें लगी ये खासकर ..........
देर से आया हूँ....३२ कमेन्ट क नीचे दबा हूँ

Dr. Chandra Kumar Jain said...

बेहद धारदार
मन के अतल को झकझोरने वाली रचना
===============================
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

रोमेंद्र सागर said...

"जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे....."

वाह ! बहुत खूब लिखा आपने ...कहीं गहरे तक छू गयी यह पंक्तियाँ !

मेरी चंद कविताओ के लिए आप मेरे दूसरे ब्लॉग सागरनामा पर सादर आमंत्रित हैं !

http://sagarnaama.blogspot.com/

सलीम अख्तर सिद्दीकी said...

जानती हूँ
आज की रात
फ़लक से उतर आया ये चाँद
फिर कई रातों तक
जगायेगा मुझे.....bahut khoob. achhi cheez hai.

ओम आर्य said...

aaj ek khwab khud chal kar mere paas aa gaya. shukragujar hoon main apka.