हंसी की इक
फिजूल सी कोशिश में
कई बार मैं
उसके चेहरे को टटोलती
जालों को उतारने की
नाकाम कोशिश में
बादबंध * खोलती
पर हवायें
और मुखालिफ़* हो जातीं
इर्द-गिर्द के घेरे
और कस जाते...
आँखें
एक लम्हे के लिए
आस की लौ में
चमक उठतीं
और दूसरे ही पल
तेज धूप की आंच लिए
बेमौसम की बरसात में
बोझल हो जातीं...
इक नक़्श उभरता
चेहरा टूटता
जख़्म हंसते
आसमां फिर एक
झूठी कहानी गढने लगता...
मैं...
पढने की कोशिश करती
मुझे यकीन था
वो लड़खडा़येगा
सख़्त चट्टानों से टकराकर
सच उसके चेहरे पर
छलक आयेगा...
मैं पूछती
तुम्हें याद है....
इक बार जब तुम गिर पडे़ थे...
ऊपरी सीढी़ से....?
उसने कहा...
नहीं..
मुझे कुछ याद नहीं..
मैं कभी नहीं गिरा..
मैं गिरना नहीं जानता
मैं निरंतर चलना जानता हूँ
आखिरी सीढी़ तक...
मैंने फिर कहा...
जानते हो यह तुम्हारे
चेहरे पर का जख़्म.....?
नहीं.......
मै किसी अतीत से नहीं बँधा
गिरना और चोट लगना
एक स्वभाविक क्रिया है
न वह अतीत है
न वर्तमान...
जिंदगी एक गहरी नदी है
मुझे इस पानी में उतरना है
मेरे लिए हवाओं का साथ
मायने नहीं रखता...
मैंने
फिर एक कोशिश की...
कहा...
कुछ बोझ मुझे दे दो
हम साथ-साथ चलेंगें तो
हवायें सिसकेंगी नहीं...!
हुँह...!
तुम्हारी यही तो त्रासदी है
जिंदगी भर
गिरने का रोना...
खोने का रोना...
पाने का रोना...
दर्द का रोना...
रोना और सिर्फ रोना...
मैंने देखा
उसके चेहरे के निशान
कुछ और गहरे हो गए थे
अब कमरे में घुटन साँसे लेने लगी थी
मुझे अजीब सी कोफ्त होने लगी
खिड़की अगर बंद हो तो
अंधेरे और सन्नाटे
और सिमट आते हैं
मैंने उठकर
बंद खिड़की खोल दी
सामने देखा...
धूप की हल्की सी किरण में
मकडी़ इक नया जाल
बुन रही थी....!!
१-बादबंध-हवाओं का बंधन
२)मुखालिफ़-विरोधी
Monday, January 12, 2009
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48 comments:
मित्रो,
यह कविता अभी- अभी लिख कर पोस्ट की है बहुत देर सोचने पर भी मैं इसकI शीर्षक नहीं रख पायी
आप सबसे अनुरोध है कि उचित शीर्षक सुझायें...
Harkirat ji bahot hi umda kavita padhane ko mila .bahot hi khubsurat likha hai aapne ... agar meri maane to is kavita ka naam (mukhalif baadban) rakhen...
dhero badhai aap kubul karen,,..
mere blog pe idhar bahot dino se aapka aana nahi hua hai ..aapke sneh se wanchit hun...
arsh
बहुत लाजवाब लगी आपकी यह कविता. इसके शिर्षक का सुझाव देने की पात्रता मुझमे नही है.बस आपके भावों को पढा और उनमे गोता लगा्ने मे आनंद आया. शुभकामनाएं.
रामराम.
ऐसी सुन्दर नज़्म का शीर्षक 'धूप की हल्की-सी किरन' ही होना चाहिए, क्योंकि कविता में किरन का जो भौतिक लक्षण होता है, वही दिखता है!
---मेरा पृष्ठ
गुलाबी कोंपलें
---मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम
बंद खिड़की
---------
कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टि से प्रभावशाली है ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
मैंने तो आपकी ये भीतर को चीरती कविता पढ़ ली बस...शिर्षक के चुनाव में उलझना नहीं चाहता...मुझे पता है आप से बेहतर इसे शिर्षक कोई नहीं दे पायेगा
आपका सहयोग चाहूँगा कि मेरे नये ब्लाग के बारे में आपके मित्र भी जाने,
ब्लागिंग या अंतरजाल तकनीक से सम्बंधित कोई प्रश्न है अवश्य अवगत करायें
तकनीक दृष्टा/Tech Prevue
सच बहुत ही खूबसूरत लिखा है आपने। इतने खूबसूरत भावों कैसे गढ़ लेती है आप कुछ हमें भी सीखाओ। आपकी रचना पढ़कर ऐसा लगा बस इसमें डूबता ही जाऊँ। एक एक शब्द क्या कहूँ बस....। आपकी रचनाओं को पढकर कभी नि:शब्द सा हो जाता हूँ। और कभी .....।
हँसी की इक, फिजूल सी कोशिश में .....
अद्भुत। और शीर्षक देना मेरे वश में नही। शीर्षक देखने दुबारा आऊँगा।
विनय भाई के शीर्षक से मैं सहमत हूं। सुन्दर कविता के लिए बधाई।
समय अथवा काल चक्र
अब कमरे में घुटन साँसे लेने लगी थी
मुझे अजीब सी कोफ्त होने लगी
खिड़की अगर बंद हो तो
अंधेरे और सन्नाटे
और सिमट आते हैं
कहते है की अच्छे कवि की यही निशानी होती है वो जो लिखता है ...पढने वाले उससे जुड़ जाते है ओर शायद उस अहसास को महसूस भी कर लेते है.....वाकई अच्छा कहा है आपने....पर फ़िर उदासी ???
तूने साथ गर मुझे लिया होता
तो इस कदर रूखा और बेजान तो ना होता..
तेरे चेहरे के जख़म पर मरहम भी असर कर गया होता..
मरहम, जिसकी खुशबू मेरे जिस्म मे कमरे में रहती है
मेरा दिल भी अजीब से मर्ज का आशिक है..
इसमें बेपनाह मरहम तो है पर दर्द नहीं...
तूने गर मेरी इक याद को भी अपने पास रखा होता..
तो इतना बे-शुक्रा ना होता..
तुझे तमीज़ होती कि दर्द को सहेज के कैसे रखते हैं..
यूं ही सबके सामने जाहिर तो नहीं कर देते..
उस पर सरे-आम झूठ कि तुझको इस से फर्क नहीं..
सही कहा है शायर भी अल्लाह के बाद आते हैं..
अन्दर की खबर रखते हैं..
देख तुझे मिला है दर्द और ना-तमीजी
बेरुखी, तन्हाई और मुझे अजीजी
मेरे मरहम को असर करने में इतना अर्सा नहीं लगता
जितना कि तेरे दर्द को उठ कर थम जाने में..
अब बस ज़ेहन में यही बुदबुदा रही हूं...
'तुम से मोहब्बत के तकाज़े ना निभाये जाते
वर्ना हम को भी हसरत थी कि चाहे जाते'
------*---------------------------
आपके लेखन में कमाल की कशिश है...
आपको और सभी मित्रों को मेरी तरफ से लोहड़ी की बहुत बहुत शुभ कामनायें.
आदर सहित
मै किसी अतीत से नहीं बँधा
गिरना और चोट लगना
एक स्वभाविक क्रिया है
न वह अतीत है
न वर्तमान...
जिंदगी एक गहरी नदी है
मुझे इस पानी में उतरना है
मेरे लिए हवाओं का साथ
मायने नहीं रखता...
दिल में उठते ज़ज्बातों को, उसके आवेग को अनूठे अंदाज़ में बांधा है आपने, हर पंक्ती जैसे साँस ले रही हो, अभिव्यक्ति, शिल्प, प्रवाह सब ही बेजोड़ है, मुझे लगता है ऐसी कविता को किसी शीर्षक की मोहताज़ नही
bahut sunder rachana
pr shirshak batane se hum he bachana
dard aapne sameta he
dimag bhi aap hi lagana
great lines well edited
कविता अच्छी है -शीर्षक ख़ुद रखिये !
--मित्रो , आप सभी को लोहडी़ और बिहु की ढेरों शुभकामनायें...
--कई मित्रों ने बहुत अच्छे शीर्षक सुझाये हैं पर रखना तो एक ही है कुछ और सुझाव भी देख लूं...
--सुशील जी, मैं क्या किसी को सिखाऊँगी...? मैं खुद नहीं जानती ये शब्द कहाँ से और क्यों आ जाते हैं...
--अनुराग जी, इस बार जल्दी आने के लिए शुक्रिया...उदासी तो ताऊ जी दूर कर देते हैं...
--नवीन जी,आपने कविता के माध्यम से बहुत कुछ बाँधने की कोशिश की है...
तुमसे मोहब्बत के तकाजे न निभाये जाते
वर्ना हम को हसरत थी कि चाहे जाते...
--दिगम्बर जी, दिल से टिप्पणी के लिए शुक्रिया...
Harkirat main apnee gadya rachnaon ko to bade kavyamay sheershak detee hun, par kavya rachnako kabhee sahee sheershak nahee de paatee...Ya to likhte samayhi sheershak (ya pehle) aa jay to alag baat warnaa, sheershak heen rehtee hai...par iska mukhya kaaran hai, mera kavee na hona...naahee lekhikaa hona....mai jab bhi kiseeko kehtee hun ki mere paas likhte samay koyi hastlikhit yaa notebook nahee hota, chahe post karneke baad mai type kiye hue lekhan ko utaar lun apnee dairyme, pehle banhee nahee pata !Aap ise meree anya sakhi-saheliyon kee tarah "ulti khopdee" keh saktee hain !
Maine apnee baat isliye kee, kyonki tumharee rachnaako,jo use sampoorn nyaay de sake, aise alfaaz nahee hain !
"Makkad jaal", ye sheershak dimaagme aa raha hai....pata nahee...maine auron kee tippaniyan abhi padheehi nahee, shayad aur kiseene ye sheershak pehlehi sujhaa diya ho..
Ham khudhee apne liye jaane anjaane apne liye ek makkad jaal bun lete hain, aur useeme fansen chale jaate hain...ya phir makkad jaal bunaa bunaaya, hota hai, kisee keedekee tarah usme jaake bekhabr fans jaate hain...ham dono ke saath ye dono baaten huee hain...nahee pata pehle kya huaa badme kya...farqbhee kahan padtaa hai ? Hain to ek jaalme...
Waise Tau Rampooriyaa kaa mai samarthan karungee...mujhme ye patrataa nahee...na jaane phirbhee kyon mai apnee hadse aage guzar gayee ? Maafee chahtee hun...tahe dilse...
Oh ! Aurbhi kayee saare sheershak dikh rahe hain...maine sachme chhota mooh badee baat keh dee...
बेहद खूबसूरत रचना है ये आपकी...शीर्षक की जरूरत क्या है...कोई शीर्षक ना होना भी मायने रखता है...
नीरज
कोई चहरा इन निगाहों से बच नही सकता
सच झूठ का फ़ैसला एक रात में हो नही सकता
मैं जानकर भी अनजान हूं तेरे चहेरे की लकीरों से
मैं बता दूं तुझको राज ये गहरा हो नही सकता ....
आप बहुत अच्छा लिखती हैं बहुत ही अच्छी प्रस्तुती है.....
टाइटल दे पाना मुश्किल है....
अक्षय-मन
harkirat ji,
bhut sundar rachana hai.
badiya hai...
हकीर जी ,
नमस्कार ...अभी भी अआपकी ही बात चल रही थी ...मुझे हिदायत मिली है के मैं कुछ दिन आराम करुँ...क्या आपको लगता है के सभी लफ्जों को उन्वाँ मतलब शीर्षक देना ज़रूरी है ..?अगर आपका ब्लॉग हरकीरत हकीर ना हो कर "लाडो बसंती " जैसा कुछ होता तो क्या इन अल्फाज़ की गहराई कम हो जाती ..? जिन्हें आपका आशीर्वाद मिला हो वो कैसे आपको कई सलाह देने की जुर्रत कर सकते है ....
|| मैं कह दूँ कैसे अपना हाले दिल, के है बड़ी मुश्किल ,
मेरा उन्वाँ भी शर्मिन्दा है, मेरी जिंदगानी सा ||
अपना उन्वाँ आप ही रख सकती हैं ......
आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
Bahut sundar bahvon ki abhivayakti ha ye aapki rachna..bahut2 badhai..ammaji ki gazal par tippani karne ke abhari hun ammaji to kalm chalati han 100 sal se bhi upar han na to com par kam nahi kar sakti main unko pathkon ke mess deti hun yaha se kayoki vo india men hi rahti han..
parvat raag me bhi aapki kavitayen dekhi.sundar hain.
rachna tadap rakhati hai .our paatha ko hila kar rakh deti hai.
हरकीरत,
बहुत दिनों बाद , तुम्हारी कलम से कुछ ऐसा लिखा हुआ है की , मन शांत भी हो गया और ,कुछ परेशान भी ...... पर सच , इस बार ,उदासी के साये थोड़े कम है .......
मैं इस नज़्म को तीन शीर्षक देता हूँ , तुम्हे जो पसंद हो , चुन लो .....
[१] ज़िन्दगी की परछाईयाँ
[२] खवाबों के ताने -बाने
[३] ज़िन्दगी की गलियाँ
विजय
sorry for late arrival , i was on business tour ... kya karun , pahle naukar hoon , phir baad mein shayar ..
vijay
मैं...
पढने की कोशिश करती
मुझे यकीन था
वो लड़खडा़येगा
सख़्त चट्टानों से टकराकर
सच उसके चेहरे पर
छलक आयेगा...
sabse shaandaar...please apni posts ka font sije kuch bdhaye, aki padhne me aasani ho. shukriya
आदरणीया हरकीरत जी
बहुत ही भावनात्मक रचना है , कई उतार चढाव हैं
आशा- निराशा है,
वैसे रचना का शीर्षक रचना कार से अच्छा और कोई नहीं दे सकता , ऐसा मैं मानता हूँ.
फ़िर भी "कशमकश " एक शीर्षक हो सकता है..
कुछ पंक्तियाँ जो अच्छी लगीं >>>>>
आँखें
एक लम्हे के लिए
आस की लौ में
चमक उठतीं
और दूसरे ही पल
तेज धूप की आंच लिए
बेमौसम की बरसात में
बोझल हो जातीं...
-------------------------
मैं गिरना नहीं जानता
मैं निरंतर चलना जानता हूँ
आखिरी सीढी़ तक...
---------------------------------
जिंदगी एक गहरी नदी है
मुझे इस पानी में उतरना है
मेरे लिए हवाओं का साथ
मायने नहीं रखता...
बधाई
-विजय
बहुत कम वक्त में आपने ब्लागिग में बहुत बडी शौहरत हासिल की है। जिसकी वजह आपने अपने निजि और मौलिक अनुभवों का अपनी लेखन में उतारा है। बहुत बहुत मुबारकबादों के साथ।
इरशाद
आपकी प्रतिभा का कायल हो गया हूँ. एक और अच्छी रचना देने के लिए साधुवाद.
vaah-vaah
ek aur khoobsoorat kavita.
aapake kathya men nirantar nikhaar aa rahaa hai.
kiyaa baat hai ji very nice post ji good going hor likhde raho ji
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हर कविता का शीर्षक हो, ज़रूरी नहीं. आपकी रचना किसी भी शीर्षक का मोहताज़ नहीं लगती. तारीफ के काबिल है. बधाई.
"हंसी की इक फिज़ूलसी कोशिश में...."
रचनाशीलता की विशिष्ठता सिर्फ़ इस बात पर निर्भर नही है कि शब्द कितने चुने गए हैं, शीर्षक क्या दिया गया है, बल्कि यू देखा जाता है कि शब्द विन्यास कैसा है, भाव क्या है, कला पक्ष को किस तरह से निभाया गया है...और जब बात चले 'हरकीरत हकीर' की काव्य-शैली की तो उपरोक्त हर बात वाजिब ठहरती है. आपकी काव्य रचनाओं में विभिन्न प्रतीक, बिम्ब और रूपक हमेशा प्रासंगिकता लिए होते हैं जो कविता को प्राणवान बनाते हैं. आपकी ये कविता भी जीवन के कठोरतम सत्य से साक्षात्कार करवाती है. आपके अन्दर का द्वंद आपकी शक्ति बन कर आपकी रचनाओं को ऊर्जस्वी बनाता है . रिश्तों कई जटिलताएं, मानवीय वेदना सब हम सब का ही एक हिस्सा लगने लगता है ...और मैंने तो आपका काव्य-संकलन "इक दर्द" कई बार पढ़ा है और पाया है कि आपकी कविता पाठक-वर्ग से संवाद स्थापित करने में सक्षम है . जीवन की कठोर पग-डंडियों का कलात्मक चित्रण आपकी रचना-धर्मिता का हिस्सा है... काव्य/ग़ज़ल के विषय-वस्तु पर दो-एक बार हुई आपसे चर्चा पर मैंने आपकी वैचारिकता कि दशा को हमेशा स्तरीय पाया है.. सो काव्य लेखन के लिए आपकी प्रति-बद्धता प्रशंसनीय तो है ही, अनुकरणीय भी है ...अपनी इस खूबसूरत रचना पर मेरी तरफ़ से भी बधाई स्वीकारें...
---मुफलिस---
AAPKE BLOG PER PAHLI BAAR AAYA.
HAR RACHNA EK SE BADKAR EK HAI.
BADHAI
इक नक़्श उभरता
चेहरा टूटता
जख़्म हंसते
आसमां फिर एक
झूठी कहानी गढने लगता...
harkirat ji aap ka likha dil mein utar gaya.
umda !
ucheet shirshak mila ki nahin???
"मर्द को दर्द नहीं होता.....??"......बेशक ये सही ना भी हो.........मगर पुरूष का दिखावा तो यही होता है ना.....बेशक भीतर ही भीतर कहीं वो रोता ही हो....मगर ये दिखाने में उसका अहं खंडित हो जाता है......मेरे विचार से इक शीर्षक तो "दर्प"भी हो सकता है....!!
हरकीरत जी बहुत ही गहराई लिए हुए है यह आपकी रचना, एक ही साँस में पूरी पढ़ गया,
हुँह...!
तुम्हारी यही तो त्रासदी है
जिंदगी भर
गिरने का रोना...
खोने का रोना...
पाने का रोना...
दर्द का रोना...
रोना और सिर्फ रोना...
बहुत ही गहरी.
http://shayaridilse-jimmy.blogspot.com/
अद्भुत पंक्तियाँ है अदम्य जिजीविषा को रेखांकित करती ...
mujhe lagta hai ki aapke naam se behatar koi shirshak ho hi nahi sakta........shirshak dene ke pahle maine aapki profile bhi padhi hai......
ALOK SINGH "SAHIL"
achchhi rachnayein bahut kam padhne ko milti hain .....bahut dino baad tareef ke layak kuchh mila .....
वाह! शब्द नही कुछ कहने को!
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