वह कह रहा था, “सुबह जब मैंने अनाउसमेंट की!... आज दोपहर एक बजे गुरुद्वारा साहिब में गुरमुख प्यारे दर्शन सिंह जी की अंतिम अरदास होनी है!... परिवार की ओर से सभी भाई-बहनों को अरदास में शामिल होने की विनती की गई है, भाई…!”
“अनाउसमेंट सुनकर एक आदमी कहने लगा— तू उसे गुरमुख क्यों कह रहा है!... वह तो दाढ़ी काटता था!... शराब पीता था!...” पाठी से सुनी यह बात मेरे दिल पर इस तरह लगी
“न मेरे पुत्तर!... अच्छा नहीं लगता!... तू कहीं और बोल लेना!... अगर तुझे बोलने का इतना ही शौक है तो!... आज तो कोई और ही बोलता ही अच्छा लगता है…!”
वे नेता लोग— जिन्हें मरे हुए आदमी के बारे में कुछ भी नहीं मालूम, जिन्हें गुज़र चुके इंसान का नाम तक नहीं पता होता—
सुबह से ही इस बात का विरोध हो रहा था।
पर दिल पर लगी हुई बात का जवाब देने के लिए
मैंने उस विरोध के ऊपर अपनी बात रख ही दी।
गाँव की रिवायत के अनुसार दोपहर एक बजे
गुरुद्वारा सिंह सभा में भोग की रस्म होनी थी।
घर में रखे पाठ का भोग कर, अरदास के बाद शब्द। उसके बाद गुरु की सवारी गुरुद्वारा साहिब छोड़ी जाती थी।
जिसे छोड़ने पाँच लोग गए थे—उनमें शानवीर भी था।
वह पानी वाला डोलू उठाए आगे-आगे छिड़काव करता जा रहा था।
वापसी के समय डोलू में जो पानी बचा हुआ था,
घर पहुँचकर उसने वह छिड़क कर शेष पानी पौधों में डाल दिया।
उन पौधों में बाजी लहराया करते थे।
धूप, बारिश और आँधियों में उन्होंने उन पौधों को बेटे की तरह पाला था।
जिसने मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया,
वह मेरे भीतर पीपल/बरगद बनकर खड़ा था। मैं जिसकी छाँव में बड़ा हुआ था।
आज उसकी उस छाँव का ऋण चुकाने का समय आ गया था।
वही समय मैं मुट्ठी में बाँधे गुरुद्वारे के सामने चौकड़ी के पास खड़ा था।
सफेद कुर्ता-पायजामा, सिर पर बँधा सफेद रूमाल—
मैं आने वाले लोगों का स्वागत कर रहा था।
चौकड़ी के पीछे बने हॉल में लोग लंगर खा कर महाराज की हज़ूरी में बैठ रहे थे।
रागी कीर्तन कर रहे थे।
मेरे पास खड़ी माँ, राजू और गुरमीत
भी अंदर जाकर बैठ गए थे।
मैं अंदर जाने के लिए हिम्मत जुटा रहा था।
मेरी हालत ‘नचिकेता’ की कहानी जैसी थी।
वह मिथक का एक पात्र था।
गांव-इलाके में जब किसी की मौत होती,
वह वाजा और ढोलकी लेकर भजन/शब्द गाने चला जाता।
शब्द की समाप्ति के बाद वह सबको एक ही बात समझाता—
“यह मालिक की मर्ज़ी है!... जिसने भेजा था, वही ले गया!...
भाणा मनो भाई, भाणा…!”
यह बात वह खड़े होकर कहा करता था।
जिस दिन उसके जवान बेटे की मौत हुई,
पूरा गांव-इलाका इकट्ठा हो गया।
आवाज़ें आने लगीं…
३६
“चलो भाई जी!... बैठो!... खड़े होकर शब्द गाओ!... भाणा (ईश्वर की रजा) मानने के लिए बोलो…!”
“सब कुछ होगा!... बाजा-ढोलकी भी बजेगी!... शब्द भी गाऊँगा!... भाणा मानने के लिए भी कहूँगा!... लेकिन आज यह सब खड़े होकर नहीं हो सकेगा…!”
नचिकेता की बात याद करते हुए मेरी टाँगों से जैसे जान निकल रही थी।
मैंने भरी सभा में खड़े होकर बाजी के बारे में बोलना था।
पहले भी कई लोगों के भोग पर बोल चुका था—
कभी ऐसी हालत नहीं हुई।मेरे होंठ सूख रहे थे।प्यास लग रही थी।ऊपर जाती सीढ़ियाँ पहाड़ बन गई थीं।
होंठों पर जीभ फेरता हुआ मैं महाराज (गुरु ग्रन्थ साहिब) की हज़ूरी में माथा टेककर
हाथ जोड़कर बैठी संगत में जाकर बैठ गया।
कीर्तन की समाप्ति के बाद जब पाठी ने अंतिम अरदास शुरू की,पूरी संगत खड़ी हो गई।
मैं हाथ जोड़कर खड़ा था।
मन ‘पवन गुरु, पानी पिता…’ वाली पंक्ति पर टिका हुआ था।
“बोले सो निहाल!... सत श्री अकाल…!”
जयकारे के बाद पाठी मुख्य वाक के लिए तैयार होने लगा।
उसके आख़िरी शब्दों के साथ-साथ दर्शन सैक्रेटरी उठकर खड़ा हो गया।वह सभी के भोग में मंच-संचालन किया करता था।
घर-परिवार और बाजी के बारे में थोड़ी-सी भूमिका बाँधकर उसने माइक मुझे थमा दिया।
मैं जैसे ही खड़ा हुआ,मेरे भीतर घात लगाए बैठा नचिकेता मुस्कराया।संगत में खुसर-पुसर हुई।हर आँख मुझे ऊपर-नीचे देखने लगी।
मैंने सूखते होंठों पर जीभ फेरकर बोलना शुरू किया—
“मेरे बाजी, सूबेदार दर्शन सिंह की अंतिम अरदास में शामिल साध संगत जी!... सबसे पहले फतेह बुलाओ—
वाहेगुरु जी का खालसा!... वाहेगुरु जी की फतेह!...”
फतेह बुलाकर मैं संगत में बैठे उस आदमी को ढूँढने लगा जिसने कहा था—
“तूने उसे गुरमुख कैसे कह दिया?... वह तो दाढ़ी कटाता था.. शराब पीता था…!”
३७
“साध-संगत जी!... यह ठीक है कि वह शराब पीता था!... दाढ़ी कटवाता था!... पर वह फिर भी गुरु का बंदा था!... वह कैसा आदमी था—यह बताने के लिए मैं उसकी ज़िंदगी की कुछ घटनाएँ आपसे बाँटना चाहता हूँ....!”
कुछ शब्द बोलकर मेरे सूखे होंठ तर हो गए थे। मैं बाजी की ज़िंदगी के इतिहास के कुछ पन्ने पलटने लगा:
पन्ना-1
वह भले ही दाढ़ी कटवाता था, लेकिन उसके सिर पर हमेशा जूड़ा रहता था। वह कभी नंगे सिर नहीं रहता था। ड्यूटी से पहले–बाद में या छुट्टी के दिनों में वह चार खाने वाला परना बाँधकर रखता। वरना वह हमेशा पगड़ी ही बाँधता था।
हर रोज़ सुबह नहाने के बाद सबसे पहले पगड़ी बाँधता था। जो भी उसकी खूबसूरत पगड़ी देख लेता, उसका दिवाना हो जाता। फौज में वह परेड में शामिल होने वाले फौजियों की पगड़ी बाँधता था। यूनिट में उसकी सुंदर पगड़ी के चर्चे थे।
वह थोड़ी ऊँची, नोकदार और दोनों तरफ़ से मिक्स लड़ी वाली पगड़ी बाँधता था। लड़के कहते—“तेरा बाजी तो जैसे लालटेन ही लगा देता है।” उसका एक अलग ही स्टाइल था।
रात को सोने से पहले वह दिनभर बाँधी पगड़ी उतारकर कुर्सी पर रख देता—जो अगली सुबह फिर से पहननी होती। पहले उस पर पानी छिड़कता, फिर पूणी करता, और पूणी की गई कपड़े की गोल-सी टिक्की बनाकर अपने सिरहाने रख देता।
जिस रात उसकी मौत हुई, उस दिन उसने नाभी-रंग (नेवी ब्लू) की पगड़ी बाँध रखी थी। और अगली सुबह बाँधने के लिए आसमानी रंग की पूणी कर सिरहाने रखी हुई थी।
पर अफ़सोस! वह अगली सुबह पगड़ी बाँधने के लिए उठ न सका....!
मेरी बात सुनकर बैठी संगत ने महाराज की हज़ूरी में रखी बाजी की उस फोटो की ओर देखा, जिसमें उसने नेवी रंग की पगड़ी बाँधी हुई थी और वह सबकी ओर ध्यान से देख रहा था।
पन्ना-2
बाजी के भीतर गुरु-घर जाने का रस्ता बसा हुआ था।
एक बार सर्दियों के दिन थे। रात का समय था। वह शराब पीकर घर आने के बजाय खेत की ओर चल पड़ा।
बाज़ार से होता हुआ वह पाल की आटा चक्की तक तो ठीक पहुँचा, लेकिन वहाँ से दाएँ मुड़कर खेत की ओर जाने की बजाय वह सीधे आगे निकल गया। रीठे के घर से आगे जहाँ दाएँ हाथ को मुड़ती सड़क थी, वह उसे भी पार कर गया।
वह सड़क छन्ना गाँव की तरफ़ जाती थी। अमरगढ़...
३८
छन्ना दो किलोमीटर दूर था। वह चलते-चलते एक अनजाने गाँव पहुँच गया।
शराब के नशे में वह रास्ता भूल चुका था। गाँव में जाकर वह मोटर की ओर मुड़ने वाला मोड़ समझकर बाएँ मुड़ने वाली टूटी सड़क पर मुड़ गया।
वह सड़क गुरुद्वारे के आगे जाकर समाप्त होती थी। जब उसने निशान साहिब के मर्करी बल्ब की रोशनी में चमकता हुआ गुंबद देखा, उसकी चेतना पलट गई।
वह दस कदम पीछे हट गया। सड़क के उस पार एक पेड़ के सहारे टिककर बैठ गया। ठंड से उसका शरीर सुन्न हो गया। वहीं गिरकर सो गया।
जब सुबह के चार बजे लोग गुरुद्वारे माथा टेकने आने लगे, उनमें से एक ने उसे पहचान लिया और स्कूटर पर बिठाकर घर छोड़ आया।
अगर वह उस रात गुरुद्वारे के भीतर चला जाता, तो वह गुरु से बेमुख हो जाता।
यह घटना सुनकर सबकी आँखों में सवा महीना शराब छोड़कर माफी मांगने के लिए गुरुद्वारे जाता हुआ बाजी तैरता हुआ दिखाई देने लगा।
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पन्ना-3
मेरा बाजी फौज में था। उसने पाकिस्तान के साथ दो युद्ध लड़े थे।
एक युद्ध में जब भारतीय फौज पाकिस्तान में प्रवेश कर गई, तो मुसलमान लोग अपने गाँव खाली कर भागने लगे।
एक टुकड़ी की अगुवाई बाजी कर रहा था। तलाशी लेते हुए वह एक घर में घुस गया। बाकी फौजी दूसरे कमरों में चले गए।
जब बाजी आँगन से गुजरने लगा, तो दीवार के पास रखे मिट्टी के बड़े हाँड़े का ढक्कन हिला। उसके फौजी कदम रुक गए। वह सतर्क हो गया।
बंदूक सीधी हाँड़े की ओर तानी और आगे बढ़ने लगा। जवाबी हमला होने से पहले ही वह फुर्ती से ढक्कन उठा देता है।
हाँड़े के भीतर से एक मुसलमान बूढ़ा उठकर खड़ा हो गया।
फौजियों ने बंदूक उसकी ओर तान दी। बाजी को गोली चलानी थी — उसे मरना था।
ज़िंदगी और मौत के बीच केवल एक सेकंड का फासला था। उस फासले में गोली चल जानी थी।
लेकिन उससे पहले ही हाथ जोड़कर खड़ा वह बूढ़ा काँपती आवाज़ में बोला —
“सरदार जी!... उधर आपका ज़िला कौन-सा है....?”
“संगरूर....!” — बंदूक पर बाजी की पकड़ और कसी।
बूढ़ा रहम की भीख माँगने लगा —
“संगरूर ज़िले में आपका गाँव कौन-सा....?”
३९
“अमरगढ़....!” — घोड़े पर रखी उँगली हरकत करने के लिए तैयार हो गई।
बुज़ुर्ग की आँखों में ‘पानी पिया’ जैसा नमी तैरने लगी —
“उधर मेरा गाँव झल्ल है....!”
झल्ल और अमरगढ़ गाँव की राहें जुड़ी हुई थीं।
बंदूक के घोड़े से उँगली हटकर बाजी का चेहरा समझी हुई राह पर खिल उठ्या।
“जीओ पिंड, सब तेरा वाहेगुरु....!” — बुज़ुर्ग की आँखों में देखते हुए उसने नीचे बैठने का इशारा कर दिया।
हाथ जोड़कर वह बूढ़ा नीचे बैठ गया—ज़िंदगी नीचे बैठ गई।
बाजी ने हाँड़े पर ढक्कन रखा और बाहर निकलकर कहा—
“इस घर में कोई नहीं!... आगे चलो....!”
“बई, दरअस्ल वाक़ई गੁਰमुख बंदा था....!”
पुरुष संगत वाहेगुरु का जाप करने लगी।
औरतें अपनी चुननियों से आँसू पोंछने लगीं।
मेरी टाँगें काँपने लगीं।
मैं फतेह बोलकर नीचे बैठ गया।
देग परोसी जाने लगी।
गाँव और इलाक़ा मैं नई नज़र से देखने लगा।
संगत में मालेरकोटला से आया डॉ. एस. तरसेम भी बैठा था।
वह आँखों से कमज़ोर था, पर उसे पूरी घटना दिख गई।
बाद में उसी ने इस घटना पर एक छोटी कहानी लिखकर ‘नज़रिया’ पत्रिका में छपवाई थी।
जब वह मेरे सामने कहानी लिखने की बात कर रहा था,
नीचे चौकड़ी के पास खड़े लोग चाय की चुस्कियों के साथ मुझसे बातें कर रहे थे।
अहमदगढ़ वाला मामा कह रहा था —
“यार, मेरे भोग पर भी तू ही बोलेगा....!”
उसके सामने हाथ जोड़कर मैं लंगे वाले दरवाज़े के पास बने हॉल में जाकर बैठ गया।
वहाँ रिश्तेदार ‘पगड़ी की रस्म’ कर रहे थे।
अमलोह वाले पगड़ी के साथ सोने की छाप लेकर आए थे।
मैं दरी पर एक ओर बैठा था।
रिश्तेदार पैसे डाल रहे थे।
एक हाथ मेरी उँगली में छाप पहनाता जा रहा था।
मूंछों वाला चर्न मामा मेरे सिर पर मेहंदी-रंगी हरी पगड़ी लपेट रहा था।
उसने पगड़ी सुब्बे की तरह लपेट दी।
मैंने इसे नीचा रख लिया।
फोटो में नाभी...
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