Monday, November 24, 2025

कुंआरी उम्र की देहरी पर

 कुंआरी उम्र की देहरी पर

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बत्तीस साल की एक लड़की
जब आईने में अपना चेहरा देखती है
तो उसे अपनी ही मुस्कान में
अपने हिस्से की दुनिया नज़र आती है —
थोड़ी-सी रोशनी
थोड़ा-सा डर
थोड़ा-सा अपनापन
और बहुत-सा अकेला सच...

पर दुनिया…
दुनिया उसे उसके आईने से पहले पढ़ लेती है—
जैसे कोई किताब
जिसके पन्ने उसने खुद भी अभी तक नहीं पलटे..

उसकी माँ
रसोई में दाल छौंकते-छौंकते
हर उबलते बुलबुले में
उसकी शादी की चिंता फूँक देती है
चम्मच की खनक में
‘कब’… ‘क्यों’… ‘किससे’
जैसे प्रश्न पकते रहते हैं...

माँ जानती है
कि उसके चूल्हे में लगती आग
अक्सर बेटी के मन की आग से भी ज़्यादा धीमी
और ज़्यादा थक चुकी होती है
वह चाहकर भी नहीं कहती —
बेटी, जो चाहो वही चुनो
क्योंकि उसके होंठों तक पहुँचने से पहले
समाज की चौखट
उसके शब्दों को बाँध लेती है...

घर की दीवारें
शफ़क़ की तरह गुलाबी नहीं
कसक की तरह भूरी हो जाती हैं
जब पड़ोसी रिश्तेदार
सवालों को नमक की तरह फेंकते हैं—
"लड़की ठीक है न?"
"कहीं कोई रोग तो नहीं ?"
"कोई पसंद क्यों नहीं करता ?"
"या लिव इन में तो नहीं…?"

उनकी निगाहें
लड़की की उम्र नहीं तौलतीं
उसके चरित्र को तौलती हैं
जैसे चरित्र कोई बाज़ार हो
और वह लड़की
वहाँ अनचाही नीलामी के लिए खड़ी हो...

दफ़्तर की फाइलों के बीच
कॉफी के कपों में
उसे हर दिन
एक ही बात हिलाकर रख देनी पड़ती है—
"हाँ, मैं कुंवारी हूँ… तो?"
पर वह ‘तो’
उसके गले में अटक जाता है
दफ़्तर की मुस्कुराहटें
उसके काम से ज़्यादा
उसकी देहरी—
उसकी ‘उम्र’ पढ़ने का शौक़ रखती हैं...

कुछ आँखें
उसकी उँगलियों की पोरों से
उसकी देह की सीमाएँ नापने लगती हैं—
चुपके से
मानो कुंवारापन
किसी उधार की चीज़ हो
जो किसी दिन टूट जानी चाहिए।
जिसे बचाकर रखना भी अपराध
और खो देना भी...

पर वह लड़की—
बत्तीस साल की हो चुकी वह लड़की—
जानती है
कि अपना होना
शादी की कोई मुहर नहीं चाहता
उसका मन
किसी की चौखट पर टिकने का मोहताज नहीं

वह अपने सीने में
एक अनगढ़ कविता छुपाए फिरती है—
कुछ पंक्तियाँ प्यार की
कुछ पंक्तियाँ अकेलेपन की
कुछ विद्रोह की आग-सी
और कुछ माँ के आँसू-सी भीगी...

रात भर
जब सारी दुनिया सो जाती है
वह अपने कमरे की हल्की पीली रोशनी में
अपने लिए एक चुप-सी दुनिया सिलती है—
जहाँ वह सवालों की नहीं
सपनों की बेटी है..

वह जानती है
कि प्रेम और विवाह
कोई ताबीज़ नहीं
जो पहनते ही
किस्मत बदल दे
और अकेलापन
कोई बद्दुआ नहीं
जो उम्र से बढ़ जाता है...

कभी-कभी
वह ख़ुद से पूछती है—
"माँ की चिंता क्या मेरी कमी है…
या समाज की बीमारी?"

आईने में
उसका चेहरा
उसी तरह मुस्कुराता है—
थोड़ा थका
थोड़ा उजला
जैसे अमृता की स्याही में
भीगे काग़ज़ की तहें हों...

और कहीं भीतर से
एक आवाज़ उठती है—
धीमी, मगर अपनी—

"मैं कोई अधूरी औरत नहीं हूँ
मैं अपनी पूरी कथा हूँ
चाहे कोई पढ़े या न पढ़े..."

और शायद
किसी दिन
जब उसकी माँ की आँखों में
थोड़ी कम चिंता
और थोड़ी ज़्यादा समझ उतर आएगी—
वह लड़की
अपने आँचल से
अपने ही सपनों की थकान पोंछकर कहेगी

"माँ, मैं किसी दिन शादी करूँगी तो
अपनी इच्छा से करूंगी,
अपने समय पर
मैं कुंवारी हूँ—
पर अधूरी नहीं
मैं अकेली हूँ—
पर खाली नहीं...

और उस दिन
समाज के सवाल
पहली बार हार जाएँगे —
एक लड़की की
अपनी ही लिखी हुई
ज़िंदगी की किताब से....


हरकीरत हीर 

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