७०%प्रेम कथा लेखक: जसवीर राणा (उपन्यास)
(अनुवाद हरकीरत हीर)
समर्पित
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सोने की उस चूड़ी के नाम
वह बड़े मन से मुझसे माँग किया करती थी —
कहती, “रांझया!… जब तुम ज़रा ठीक हो जाओ…
मैं बस सोने की एक चूड़ी बनवा लूँगी…!”
जिस दिन चूड़ी बनी,शालू और आशीमा ने उसे उसके हाथ में पहनाया था।
लेकिन कुछ ही महीनों बाद वह हाथ छुड़ाकर उस जहाँ में चली गई।
उसके जाने के बाद,जब पी.आर. हो गई और बड़ी बेटी लवलीन कौर शालू कनाडा जाने लगी —
मैं और राजू ने चूड़ी की चेन बनवाकर उसके गले में पहनाते हुए कहा,
“शालू!… इसे सम्भालकर रखना…!”
हमारी बात सुनकर उधर खड़े बाजी ने फौजी सलामी दे दी।
१
‘70% प्रेम कथा’ — आत्मकथा के दो पन्नों पर लिखा हुआ उपन्यास
‘70% प्रेम कथा’ मेरा दूसरा उपन्यास है।
यह उपन्यास मेरी आत्मकथा के दो पन्नों पर टिका हुआ है—
पहला पन्ना मेरी माँ है,
दूसरा पन्ना मेरा बाजी (पिता जी) है।
मैं इन दोनों के बीच खड़ा हूँ।
जिस साल बाजी की मृत्यु हुई,
मैंने उसका शब्द–चित्र लिखने के बारे में सोचा था,
पर छह साल तक लिख नहीं सका।
“बाकियों के बारे में तो साथ–साथ लिखते रहे!…
मेरे बारे में क्यों नहीं लिखा…!”
जब भी वह मन के भीतर बैठा बाजी मुझसे यह सवाल पूछता,
मैं सोच में पड़ जाता।
कोई जवाब नहीं मिलता।
मैं सिर झुका लेता—
“माफ करना बाजी!… मैं तुम्हारा नालायक बेटा हूँ…!”
“चल, अब इसका तो लिख दे…!”
जिस साल माँ की मृत्यु हुई,
उसकी अधूरी इच्छा मेरे सिर पर जैसे सवार हो गई।
दोनों की मृत्यु के बीच छह साल का फ़ासला था।
मैंने माँ के साथ बावन (52) साल बिताए,
और बाजी के साथ सैंतालीस (47) साल।
मेरी रगों में उनका ही खून दौड़ता था—
जिनकी उंगली पकड़कर चलना सीखा,
जिन्होंने तुतलाती ज़ुबान से सीधा बोलना सिखाया।
मुझे उनके ये ऋण उतारने थे।
“यह तेरा भ्रम है, बेटा!…
माँ–बाप का ऋण कोई नहीं उतार सकता…!”
हर साल श्राद्ध वाले दिन
उनकी रूह मेरा हाथ पकड़ लेती—
मैं कागज़–कलम उठा लेता,
कुछ पंक्तियाँ लिखता,
फाड़ देता।
कभी माँ का शब्द–चित्र बनाता,
कभी बाजी का।
लेकिन हर बार खाली हाथ लौट आता।
मैंने कितनी ही किताबें लिखीं,
पर माँ–बाजी के बारे में कभी कुछ लिख नहीं पाया।
“क्यों नहीं लिख पाते…!”
जिस दिन मेरे भीतर का लेखक और पुत्र
आमने–सामने खड़े हो गए—
२
उस दिन मुझे यह बात समझ आ गई कि
मैं इसलिए नहीं लिख पा रहा था,
क्योंकि वे उम्र से भी बड़े किरदार थे।
उनकी हस्ती शब्द–चित्रों में बाँधी ही नहीं जा सकती थी।
उनके साथ बिताई ज़िंदगी का वर्णन
किसी बड़े–आकार वाली विधा माँगता था।
“तू उनका उपन्यास लिख…!”
जिस क्षण मन के भीतर बैठे बेटे ने लेखक के कान में यह फूँक मारी—
मैंने उसकी बात मान ली।
मैंने माँ और बाजी — दोनों का उपन्यास लिखने का फ़ैसला कर लिया।
इस कथा–वृत्तांत के लिए
मुझे कहीं बाहर जाकर कुछ जुटाने की ज़रूरत नहीं थी।
सब कुछ मेरे भीतर था।
अगर कुछ बाहर था,
तो वह माँ और बाजी के बचपन की बातें थीं।
उन बातों को जानने के लिए
मैंने दो लोगों को चुना—
एक माँ की सगी बहन, परमजीत मासी,
और दूसरी बाजी की सगी बहन,
मेरी बहनवाली मंदिर बुआ।
बुआ, बाजी से बड़ी थी—
उसके पास उसका बचपन था।
मासी माँ से छोटी थी—
उसके पास भी उसका बचपन था।
एक रात मैंने मासी को घर बुला लिया।
वह खाना-पीना खाकर आ गई।
राजू, आशीमा, शालू और शान
उसकी बातें सुनने के लिए उसके आसपास बैठ गए।
मैं सवाल पूछने लगा।
मासी पुराने दिनों की बातें सुनाने लगी।
मैं कागज़ पर लिखने लगा।
उसकी बातें आधी रात तक चलती रहीं।
जिस रात बुआ ने बाजी के बारे में बातें लिखवाईं,
उस रात हम सब माँ वाले कमरे में
उसके बिस्तर पर बैठे थे।
बुआ, बैठते ही अपनी उँगली पकड़कर
हमें सैंतालीस बरस पीछे ले गई।
जब उसकी उँगली छुड़ाकर मैं वापस लौटा,
मेरे पास माँ और बाजी — दोनों का बचपन था।
उनके बचपन से लेकर मृत्यु तक फैली हुई यह कथा लिखना
मेरी रूहानी और जिस्मानी ज़रूरत भी थी।
बाजी की मृत्यु के बाद
मैं जल्दी ही दुःख से उबर आया था।
उसके जाने से नौ महीने पहले
मेरे दिल का ऑपरेशन हुआ था।
घाव अभी तक ताज़ा था।
सिर पर से हट चुकी बरगद की छाँव जैसी जगह पर
दर्द अब भी धड़क रहा था—
३
घाव गहरा था—करारी चोट पड़ी थी।
लेकिन मैं मरना नहीं चाहता था।
घर–परिवार के लिए जीना था।
आने वाली पीढ़ियों को आगे ले जाना था।
उसके लिए अपना पिता भी खुद ही बनना पड़ता।
मैं दो बेटियों और एक बेटे का पिता तो बन गया,
पर अपनी माँ नहीं बन सका।
उसकी मौत के बाद मैं भीतर तक हिल गया था।
दिन–रात “माँ… माँ…” पुकारता रहता।
बुज़ुर्ग औरतों के चेहरों में उसका चेहरा ढूँढता रहता।
जब मेरी बड़ी बेटी शालू पटियाला पढ़ती थी,
वह घर आकर बताती—
“पापा!… आज बस में एक बाजी जैसा बूढ़ा खड़ा था!
वही परना… वही जैसा कुर्ता–पायजामा…
बिल्कुल बाजी जैसा…!”
मैं भी ऐसे ही भ्रम में पड़ता रहता।
बस में कोई माँ जैसी खड़ी होती,
तो मैं उसकी ओर सीट छोड़ खड़ा हो जाता।
कई बार जवान औरतों में भी
माँ का चेहरा दिखने लगता।
उन्हें ‘माँ’ कहकर बुलाने का मन करता,
लेकिन सामाजिक मर्यादा रास्ता रोक लेती।
एक बार मैं बनभौरे से कार में ढढोगल खेड़ी की ओर जा रहा था—
वहीं स्कूल से राजू को लेने जाना था।
जैसे ही गाँव की सीमा पार की,
मेरी नज़र सड़क किनारे चलती दो बुज़ुर्ग औरतों पर पड़ी—
वे जैनपुर की ओर जा रही थीं।
मैं उनके पास जाकर कार रोकता हूँ,
शीशा नीचे करता हूँ—
“आ जाओ जी!… बैठ जाओ…!”
मेरी बात सुनकर
वे डरकर पीछे हट गईं।
उनका डर मिटाने के लिए
मैं कार से उतर आया,
पैर छूकर बोला—
“मैं यहाँ बनभोरा स्कूल में मास्टर हूँ!
रोज़ जैनपुर से होकर जाता हूँ!
आप मुझे अपनी माँ जैसी लगीं…
इसलिए कार रोक ली…!”
“जिउंदा रह, बेटा…!”
मेरी बात सुनकर
उनका डर उतर गया
और वे कार में बैठ गईं।
जैनपुर तक बातें करती रहीं।
जब कार गाँव पहुँची,
वे मुझे माँ की तरह आशीर्वाद देने लगीं—
“तेरी उमर लंबी हो, बेटा!…
जवानी माने!…
आ जा, रोटी खाकर जा!…
चाय पीकर जा…!”
“नहीं माँ… अब देर हो जाएगी…
कभी फिर सही…!”
उनसे विदा लेकर
मैं ढढोगल खेड़ी तक आँसू पोंछता ही जाता रहा।
रोना रुकता ही नहीं था।
राजू मुझे बहुत समझाती रहती—
माँ की तरह…
४
शानवीर भी मुझे सँभालता।
बच्चे चिन्ता करते—दिल से मेरी जान की खैर माँगते।
लेकिन मेरे भीतर बैठा बच्चा
दिन–रात “माँ… माँ…” पुकारता ही रहता।
मेरी “माँ… माँ…” सुनकर
छोटा शानवीर जवाब देता—
“बी… ई… ई…!”
मैं घर में जहाँ भी “माँ” कहता,
और कोई सुने या न सुने,
शानवीर ज़रूर सुनता—
और हर बार मेरी पुकार का हुंकारा भरता—
“बी… ई… ई…!”
उसका यह जवाब सुनकर
कुछ देर चैन मिल जाता।
फिर थोड़ी देर बाद
रूह बेचैन हो उठती—
ज़रा-सी बात पर रोना आ जाता।
मन उदास रहता।
भरी दुनिया में
मैं अपने-आप को अकेला महसूस करता।
जब हर चीज़ से मोह छूट जाता—
मैं स्कूल से छुट्टी लेकर घर आ जाता।
माँ और बाजी की तस्वीरों के सामने बैठा
फूट–फूटकर रोता रहता।
घर में सबके बीच बैठकर भी
अकेलापन घेर लेता।
मैं स्कूटर उठाकर खेतों में चला जाता—
और वहाँ अकेले
पेड़ की छाया में बैठ
कितनी देर रोता रहता।
जो लोग मुझे बाँहों में लेकर चुप करवाते थे,
वे सब जा चुके थे।
जो मेरे पास थे,
उनकी एक ही बात थी—
“इतना ‘माँ–माँ’ मत किया कर!
पहले ही तेरी सेहत ठीक नहीं—
और बीमार हो जाएगा…!”
“ठीक है… नहीं करूँगा…”
पर माँ–बाजी को याद करके ही
मुझे कुछ सुकून मिलता था।
मेरी गिनती सबके उलट थी—
अंतिम संस्कार के बाद
सबका हिसाब–किताब खत्म हो जाता है,
लेकिन मेरे एक भी सवाल का उत्तर
मुझे नहीं मिला था।
जिस श्मशान घाट में
माँ–बाजी का दाह–संस्कार हुआ,
मैं अक्सर वहाँ जाता।
लंबे समय तक
एक बेंच पर बैठा
उस जगह को देखता रहता।
श्मशान मेरे लिए
सज्दा–घर बन गया था।
कार या स्कूटर से वहाँ से गुज़रता,
तो माथा टेकने जैसी श्रद्धा से
मेरे सिर अपने–आप झुक जाता।
इस उपन्यास को रचकर
मैंने अपने पुरखों के प्रेम के आगे
सिर झुकाया है।
दुनिया की नज़र में वे चले गए होंगे—
लेकिन मेरी नज़र में
वे कहीं यहीं हैं।
उनकी प्रतीक्षा में
मेरी चेतना का द्वार
हर पल खुला रहता है।
५
उनकी बात अकथ है।
उनकी याद अविनाशी है।
उन्हीं की बदौलत मैंने लिखने–पढ़ने के चार अक्षर सीखे।
इस रचना के माध्यम से मैं वही अक्षर उन्हें समर्पित कर रहा हूँ।
मैं उन लोगों में से नहीं हूँ
जिनके घर का दरवाज़ा वृद्धाश्रम की ओर खुलता है।
मैं उन लोगों में से हूँ
जिनके घर अपने पुरखों की मौजूदगी से
अगरबत्ती की तरह महकते हैं।
मेरा यह उपन्यास वात्सल्य–भाव में डूबी हुई रचना है।
अगर इसे पढ़कर कोई अपने माता–पिता का हाथ पकड़
उनके पास बैठकर दो–चार बातें कर लेता है,
तो मैं समझूँगा कि मेरी माँ और मेरी बुआ ने
उस लोक में भी यह उपन्यास पढ़ लिया—
जहाँ पहुँचकर मनुष्य हर लिखत–पढ़त से परे हो जाता है।
जसवीर सिंह राणा
भाग १
अस्थि-घाट से गिरती राख़
कांड-1
मैं आँखें बंद किए दरी पर बैठा था।
लोग आ रहे थे। अफ़सोस जताकर जा रहे थे।
जब कोई पूछता — “क्या बात भाई!… चेहरा कुछ ढीला-ढाला है…!”
“नहीं जी…!” दो शब्दों का ज़वाब देकर मैं फिर आँखें बंद कर लेता।
मेरी चुप देखकर आने वाला, बरामदे में बैठे लोगों के पास जाकर बातों में लग जाता।
मैं सोच में पड़ गया था। जिसकी उँगली पकड़कर चलना सीखा —
वह हाथ छुड़ा कर पार चला गया था।
दरी पर बैठे लोग मौत के बहाने राजनीति की बातें कर रहे थे।
मेरी चेतना में बस बाजी (पिता) की ही लौ जल रही थी।
उसकी आग दिल की तरफ बढ़ रही थी। देह से छिटका उसका साया कह रहा था — “चल उठ…!”
मैं उठकर खड़ा हो गया। बरामदे में बैठे लोग
ऊपरी नज़र से देख रहे थे।
उनमें कोई अपना नहीं दिख रहा था। मेरी नज़र उसे ढूँढ रही थी।
वह लॉबी में औरतों के बीच घिरी बैठी बाहर देख रही थी।
मैं भीतर देख रहा था। हमारे बीच जालीदार दरवाज़ा था।
मैंने दरवाज़ा खोलकर भीतर क़दम रखा — जहाँ बाजी खाट पर लाश बना मृत पड़ा था।
वहीं चौंकड़ी मारकर बैठ गया। औरतों की ओर देखकर आँखें बंद कर लीं।
मेरी चेतना में एक पहाड़ उगने लगा। उस पर दूर-दूर तक हरियाली फैली हुई थी।
“हरियाली माथे लगनी तो अच्छी होती है…!” —
मैंने एक दरख़्त का आसरा लेकर बैठ गया।
२
तेज़ हवा चलने लगी। एक बुल्ला चेतना के आर-पार हो गया।
मेरी देह से एक साया निकलकर ख़्यालों में उतर गया।
मैंने हाथ उठाकर उसे आवाज़ दी —
“रुक… जा…!!”
“अब… अब और नहीं रुक सकता…!”
हवा में गिरता वह साया पीछे मुड़कर बोला।
मेरी आवाज़ काँपने लगी —
“पर क्यों…!”
“क्योंकि मैं सारी उम्र एक अजनबी के घर में रहा हूँ…!”
धुँधलके में विलीन होता वह साया बाजी (पिता जी) की तरह बोला।
उसकी आवाज़ सुनकर मेरी चेतना टूट गई।
मैं आँखें बंद किए फिर उसी दरी पर बैठा था।
“अगर बैठा नहीं जाता… तो लेट जा…!”
मेरे कंधे पर हाथ रखकर वह बोली।
उसका हाथ पकड़कर मैंने लंबी सिसकारी ली —
“मां… मैं बाजी को देखकर आता हूँ…!”
“वो अब कहाँ है!... वो तो चला गया…!”
हाथ छुड़ाकर वह दो क़दम पीछे हट गई।
देह से निकलकर उड़ा साया धुँधलके से पार जा चुका था।
उसे इस पार लाने के लिए मुझे जलती चिता पुकारने लगी—
“आ जा अब…!”
“मैं… मैं श्मशानघाट होकर आता हूँ मां…!”
उसकी 'हां' सुने बग़ैर ही मैं जालीदार दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया।
पीछे से चिंता में डूबी आवाज़ आई —
“अगर जाना ही है… तो ये दो गिलास चाय ले जा!
वहाँ दो आदमी चिता की रखवाली में बैठे हैं… वो भी पी लेंगे…!”
“जगदीप!... तू भी इसके साथ चला जा…!”
गुरमीत बहन के पति को साथ जाने के लिए कहकर वह निश्चिंत हो गई।
मैं अनजानों की तरह बातें करते हुए लोगों की तरफ़ देखता जगदीप के पास जा बैठा।
“चाय आ गई…!”
कुछ ही पलों बाद वह डोलू और गिलास पकड़कर बाहर आ गया ।
गली में उसकी ज़ेन कार खड़ी थी।
उसने डिक्की खोली और उसमें जाकर बैठ गया।
मैं उसकी साथ की सीट पर बैठ गया। डोलू
और गिलास पैरों के पास रख लिए।
कार धीरे धीरे श्मशान घाट की ओर चल पड़ी।
३
काँड- 2
हमारे गाँव का श्मशानघाट नाभा रोड पर, सड़क के किनारे था।
उसके प्रवेश–द्वार पर ‘श्मशानघाट अमरगढ़’ लिखा हुआ था।
जगदीप की कार उसी सड़क पर दौड़ रही थी—जिस रास्ते से बाजी की अर्थी गुज़री थी…
जहाँ कंधा बदलने के लिए अर्थी नीचे रखी गई थी—उस जगह के पास पहुँचकर मेरा दिल अजीब तरह से बैठ गया।
मैंने तुरंत कार रुकवाई—
“जगदीप!... एक मिनट रोकिये…!”
“क्या हुआ…?” उसका सवाल पीछे छूट गया और मैं जल्दी से कार का दरवाज़ा खोल नीचे उतर गया।
दाएँ हाथ सड़क के दूसरी ओर ‘बाबा ज्ञान दास’ की समाधि थी।
उसी के सामने, सड़क पर कभी अर्थी नीचे रखी गई थी।
“हाँ बचाकर!... यहाँ नीचे रख लो!... कंधा बदल लो…!”
बुज़ुर्ग की वह आवाज़ हवा में वैसे ही तैर रही थी—
जैसे उस दिन परमजीत ने तोची नाई से कहा था,
“और यह पानी वाला घड़ा भी फोड़ दो…!”
“ला…ओ…!”
मैं दौड़कर घड़ा पकड़ लाया था।
बुज़ुर्ग ने समझाया—
“यहीं सड़क पर ही फोड़ दो, बेटा…!”
मैंने कहा—
“मेरे अंदर तेरे पानी का कर्ज़ है!... बचाकर फोड़ूँगा…!”
घड़े के फटने की आवाज़ सुनकर मैं सड़क से कच्चे रास्ते की तरफ़ जा खड़ा हुआ।
कच्चे रास्ते के साथ खेत थे। किनारों पर झाड़–झंखाड़ था। सूखे ठूंठ पड़े थे।
मैंने एक सूखे ठूंठ को देखकर घड़ा उसके ऊपर हल्के से दे मारा—
“ठा…ह…ह…!!”
बुज़ुर्ग की जीभ अपने–आप वाहेगुरु–वाहेगुरु करने लगी।
नीचे मिट्टी। ऊपर पानी।
दोनों के बीच—फूटे घड़े की किरचें बिखरी थीं।
४
वे टूटी हुई किरचें वहीं उसी तरह बिखरी पड़ी थीं।
मिट्टी पर सूखे पानी के निशान थे।
मैं नीचे बैठकर पानी से भीगी मिट्टी की एक चुटकी उठाई और अपने माथे पर लगा ली।
उसकी तासीर में कोई गहरा, छुपा हुआ असर था—मेरे कंधों पर जैसे अचानक भार आ गया।
एक कंधे पर पानी वाला घड़ा… दूसरे कंधे पर बाजी की अर्थी थी।
जब घर से यात्रा शुरू हुई थी, डॉ. राजीव गुप्ता की हिदायतें मेरे साथ-साथ चल रही थीं।
उन्होंने सख्ती से कहा था—
“मैं समझ रहा हूँ!... पिता की मौत बहुत बड़ा दुख होता है!...
पर तेरी ओपन–हार्ट सर्जरी को अभी छह महीने भी नहीं हुए!...
इसलिए न ज़्यादा रोना!... न अर्थी को कंधा देना!...
अगर जीना है, तो अपना ख़याल रखना…!”
बाजी की मौत का ख्याल मेरी आँखों में आँसुओं का तूफ़ान बनकर घूम रहा था।
सब लोग फूट–फूटकर रो रहे थे।
मैं एक तरफ खड़ा, धीरे–धीरे रो रहा था।
पोर्च में, बाहर वाली दीवार के पास बने बाथरूम के बाहर, फर्श पर लोग बाजी को अंतिम स्नान करा रहे थे।
मैंने उसे कई बार वहीं अपने हाथ से नहाते देखा था—
वह इसी फर्श पर बैठकर खुले पानी से कितनी देर तक नहाया करता था।
जब पानी से भीगे शरीर पर तौलिया फेरकर कपड़े पहनाए गए और उसकी पार्थिव देह अंतिम दर्शन के लिए रखी गई…
मैंने उसके पैरों की तरफ रखे गेहूँ वाले तसले में दस रुपये का नोट रखकर माफी माँग ली—
“बाजी!... मैं तेरा निकम्मा बेटा हूँ!... मुझे माफ़ मत करना…!”
“चलो, उठाओ भाई…!”
ऊपर से आई आवाज़ सुनकर चार लोगों ने अर्थी कंधों पर उठा ली।
मैंने एक बाई को हाथ देकर उनके साथ साथ चल पड़ा।
कितना बदकिस्मत बेटा था मैं—
न अर्थी को कंधा दे सका, न खुलकर रो सका।
किस्तों में रोता हुआ, मैं चुपचाप साथ चलता जा रहा था।
५
“बस बस… चुप कर अब !”
जगदीप का हाथ अपने कंधे पर महसूस कर मैंने आँसू पोंछ लिए।
हाथ झाड़कर धीरे–धीरे उठा और
दरवाज़ा खोलकर सीट पर जा बैठा।
कार स्टार्ट हो गई।
चीमे के ढाबे से आगे, बाईं तरफ़ श्मशानघाट दिखाई दे रहा था।
उसका द्वार खुला था।
मेरी नज़र उसकी बाहरी दीवार के पास बनी पानी की हौद पर जा टिकी।
बाजी का संस्कार करके लौटते समय सबने वहीं अपने हाथ धोए थे।
पर मैंने नहीं धोए थे—
मैं तो बाप से ही हाथ धो बैठा था।
वह चला गया था…
यकीन नहीं आ रहा था, इसलिए फिर देखने आ गया था।
इसके बाद तो उसकी चिता भी ठंडी हो जानी थी।
०००००
कांड ३,पेज १९
पानी वाली टैंकी से नज़र हटाकर मैंने कार की डिक्की खोली।
डोलू और गिलास उठाकर नीचे उतरा।
डिक्की बंद कर जगदीप मेरे साथ चल पड़ा।
प्रवेश–द्वार के अंदर दाख़िल होकर मैंने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई।
दाएँ हाथ एक पुराना बाथरूम था। उससे थोड़ा आगे संस्कार करने आए लोगों के बैठने के लिए ईंटों का पक्का शेड था।
उसके सामने दूसरी तरफ़ भी वैसा ही शेड था। दोनों में सीमेंट की बैंचें थीं। दोनों की छत थी, पर दीवारें नहीं थीं। दोनों शेड सिर्फ़ थम्बों के सहारे खड़े थे। हवा आर–पार हो रही थी।
मैं और जगदीप स्टोन-टाइल वाले रास्ते पर चल रहे थे।
रास्ते के दोनों तरफ़ सीमेंट की बैंचों की ख़ाली कतार थी।
उनके पीछे खाली जगह में चारदीवारी तक फैले सूखे पेड़ उदास खड़े थे।
टूटे पत्तों पर खड़-खड़ करती चलने की आवाज़ आगे बढ़ रही थी।
सामने अंतिम संस्कार के लिए बना लंबा-दोहरा दस थम्बों वाला शेड था।
उसमें एक ही समय चार मृतकों का संस्कार करने के लिए चार खाने बनाए हुए थे।
हर खाने में लाश रखने से पहले और बाद में लकड़ियाँ सजाने के लिए चारों ओर लोहे के छह-छह चौकोर पाइप गाड़े हुए थे।
मेरी नज़र जलती चिता पर टिक गई। वह लपलप कर जल रही थी।
बाज़ी का सिर, पैर, हाथ, उँगलियाँ—सब कुछ जल चुका था।
“शायद कुछ बाकी बचा हो…!”
सोचता हुआ मैं नज़दीक जाकर ठिठक गया।
पेज २०
मुझे देखते ही जीत का बारू ऊंची आवाज़ में बोला—
“आ जा!... आ जा!... यह देख…!”
उसकी आवाज़ भूत जैसी थी। वह दाव जैसा लंबा गंडासा लिए बाजी की चिता को कुरेद रहा था।
“आओ!... चाय पी लो...!”
उसके पास खड़े पगड़ी पांडा ब्राह्मण को देखकर मैं नीचे बैठकर गिलास में चाय डालने लगा।
चाय का गिलास उठाकर बारू चिता की आग के आसपास घूमने लगा।
उसकी आँखों में आग की परछाइयाँ नाच रही थीं।
जगदीप हाथ बाँधे खड़ा था।
मैं पैर मोड़कर बैठा शेड की धुएँ से काली हुई छत की ओर देख रहा था।
“ऊपर की ओर क्या देख रहा है ?... इधर देख!... तेरी बाजी का बाकी शरीर तो जल गया सी!... पर छाती नहीं जली!... उसमें से पानी निकल रहा था!
हमने खूब तेल छिड़का!... लकड़ियाँ मंगवाकर लगाईं!... पर छाती नहीं जली…!”
चाय की घूँट भरकर वह गंडासा हाथ में लिए मेरे पास आकर खड़ा हो गया।
मैं खड़े होकर सीधा हो गया।
वह चिता की ओर देखते हुए आँखें घुमाकर तिरछी नज़र से मेरी ओर झाँकने लगा—
“देख ले! जब छाती नहीं जली!... तो हमने चिता से बाहर निकाल ली!...
मैंने इसी गंडासे से उसके छोटे–छोटे टुकड़े किए!... काटकर फिर आग में रखा!... और लकड़ियाँ मंगा कर ऊपर डलवाईं!... तब जाकर छाती जली…!”
उसकी बात सुनकर मेरा दिमाग सुन्न हो गया।
मुझे लगने लगा कि वह सच में बाजी को काट रहा था।
वह हमारा खेत का गूंढ़ी था — उससे हमेशा खेत की मेंड़ को लेकर झगड़ा चलता रहता।
हर बरस हाड़-सावन में तू-तू, मैं-मैं होती रहती।
कई बार बाजी ने उसे पीटा भी था; वह शरीर से कमजोर था और बाजी ताकतवर।
जीते-जी वह कुछ नहीं कर सका।
पर मौत के बाद उसने चिता से निकालकर बाजी की छाती वैसी ही टुकड़ों में काट दी जैसे जीते-जी करना चाहता था।
उसने बदला ले लिया था।
हाथ में गंडासा लिए वह विजयी मुद्रा में चिता के चारों ओर चक्कर काट रहा था।
पेज २१
उसकी बात सुनकर मेरी आँखों में चिता की आग भर उठी।
पैरों के नीचे की ज़मीन तपने लगी।
मैंने उसे गले से पकड़कर धक्का मारा —
“तूने मेरे बाजी को काटा!... मैं तुझे…!!”
“ओए… ओए… तू…!!”
उल्टे पाँव भागता वह चिता में गिरता गिरता बचा।
पांडे ब्राह्मण ने उसे पकड़कर थाम लिया।
जगदीप ने मुझे पकड़ लिया —
“एक मिनट!... एक मिनट!... मेरी बात सुन…!”
“मेरी बात सुन बेटा !...
अगर यह ऐसा न करता, तो लोथ पड़ी रहती !...
हम दोनों इसी बात की सोच में बैठे थे!...
तूने ये अच्छा इनाम दिया उसे…!”
पांडे की बात सुनकर मेरे गुस्से पर पानी पड़ गया।
मैं नीचे बैठ गया और धीरे-धीरे रोने लगा।
गंडासा पास में पटककर बारू मुझे बाँहों में लेकर मनाने लगा।
मुझे उससे डर लगने लगा —
कहीं वह मुझे भी तो नहीं काट देना चाहता था!
“नहीं… ऐसी कोई बात नहीं!... चल, अब चलें…!”
जगदीप ने मुझे बाँहों से उठाने की कोशिश की।
मैं खाली डोलू–गिलास उठाकर उसके साथ श्मशान-घाट से बाहर निकल पड़ा।
शेड के नीचे जलती चिता की गर्मी मेरी पीठ को झुलसा रही थी।
हाथ में गंडासा पकड़े बारू अपनी मूँछें मरोड़ रहा था।
उसके पीले पड़े होंठों पर कोई दबी हुई मुस्कान खेल रही थी।
००००००
२२
कांड ४
श्मशान में घटी बात सुनकर एक पल को माँ का रंग भी उड़ गया।
पर वह समझदार थी। उसने समझदारी से काम लिया।
मुझे सीने से लगाकर बोली —
“ले तो पगले!... भला ऐसा भी कोई करता है !... अगर बारू की जगह कोई और भी होता… वही करता!...”
“अगर वह इतनी हिम्मत न करता, तो आधी-जली लाश को कौए-कुत्ते घसीटते घूमते!... न फिर अच्छा होता क्या?... बड़ी पढ़ी-लिखी बातें करता फिरता है…!”
पोर्च में दरी पर बैठे लोग भी धीरे-धीरे बारू के पक्ष में बोलने लगे।
वह उलाहना देने हमारे घर आया था।
मैं भरी सभा में सिर झुकाए चुपचाप बैठा रहा।
बारू भी आँखें नीचे किए बैठा था।
उसके होंठों पर सिगरेट थी। आवाज़ में दर्द था।
मेरा हाथ पकड़कर वह बार-बार कह रहा था —
“दिल पर मत लेना छोटे भाई!... यह तो जगत की रीत है…!”
“यह तो करतार की मर्ज़ी है भाई!... अब रोटी खाकर सो जा!...
सुबह फूल (अस्थियां) चुनने भी जाना है…!”
दरी पर बैठे सबको समझाकर बारू भी उठकर घर की ओर चल पड़ा।
उसके जाने के बाद मेरे भीतर अँधेरा उतरने लगा।
बाहर लाइटें जल उठी थीं।
“यह बाहर वाली बत्ती भी जला दो…!”
अंधेरे से डरने वाली मेरी माँ अंदर बैठी सहमी हुई थी।
मेरे पास बैठा जगदीप कह रहा था —
“चल अंदर!... रोटी खा ले...!”
“नहीं!... मुझे भूख नहीं…!”
बाजी के जाने के बाद मेरी भूख मर गई थी।
जिसने सारी उम्र कमाकर रोटी खिलाई, उसके बिना रोटी खाना ज़हर लगती थी।
२३
वह भूखा ही चला गया था। मैं कैसे रोटी खाता!
“देख, तू बीमार है!... जितनी ज़रूरत है, उतनी खा ले!... रोटी से क्या दुश्मनी है तेरी याद!...”
सुबह की भूख से बेहाल बैठी माँ चुन्नी से आँखें पोंछने लगी।
मैं उसके पास बैठकर दो–तीन ग्रास खाकर अंदर बिस्तर पर जाकर लेट गया।
आँखें बंद कर लीं। नींद उतरने लगी। मेरी चेतना पानी में डूबने लगी।
जब पूरा घर सो गया, मेरी रूह में कुछ सोया-सा जाग उठा।
देह से एक साया उठकर खड़ा हो गया। मैं उसके सामने खड़ा था।
वह मेरे भीतर प्रविष्ट हो गया। देह को बिस्तर पर पड़े छोड़कर मैं रसोई से माचिस उठाकर स्टोर की ओर चल पड़ा।
पेटी की बगल में रखी गंडासी उठाई।
हवा में क़दम रखते हुए कुंडी खोलकर बाहर पोर्च में आ खड़ा हुआ।
दरियाँ लपेटकर एक कोने में रखी हुई थीं।
उनके ऊपर बैठे लोगों को याद करता हुआ मैं दीवार फाँदकर दोनों घरों के बीच की सँकरी गली में कूद गया।
गली में घुप्प अँधेरा था।
तेज क़दमों से चलता हुआ मैं खाई वाली गली पार कर मेन रोड पर जा पहुँचा।
बारू की कोठी के सामने मवेशियों वाला घर था। वही मवेशियों की देख-रेख के लिए वहीं रहता था।
मैं दीवार पर चढ़कर धीरे से नीचे लटककर ज़मीन पर ताक लगाकर बैठ गया।
सब शांत देखकर मैं झुककर चलता हुआ चारपाई के सिरहाने की तरफ़ जा खड़ा हुआ।
“बारू!... तूने ठीक नहीं किया...!”
हवा के कान में बात कहकर मैंने दोनों पैर जमा कर गंडासी चलाई।
चीख निकलने से पहले ही उसका सिर धड़ से अलग हो गया।
कुछ पल तड़पकर वह ठंडा हो गया।
मैंने दाँतों के बीच जीभ दबाकर उसका छाती वाला हिस्सा अलग कर लिया।
२४
दूर पराली वाली कोठी के पास एक काला कागज़ पड़ा था।
सिर और धड़ वहीं छोड़कर मैंने गंडासी और छाती को कागज़ में लपेट श्मशानघाट की ओर चल पड़ा।
उसका प्रवेश-द्वार खुला था। मैं पत्थर की टाइलों वाले फ़र्श पर चलता हुआ संस्कार वाले शेड के नीचे जाकर खड़ा हो गया।
बारू अपनी मौत का सामान पीछे छोड़ गया था। गैस भट्टी वाले कमरे की दीवार के पास लकड़ियों के साथ तेल की पीपी रखी हुई थी।
मैंने बाजी की छाती वाले हिस्से पर बारू की छाती रखकर उसके ऊपर लकड़ियाँ सजा दीं।
तेल छिड़ककर माचिस की तीली लगा दी। मेरी आँखों में एक छोटा-सा सिवा (चिता) जलने लगा।
जब साढ़े तीन बजे गुरुद्वारे में मेवा जथेदार बोल रहा था,
मेरे अंदर सुलगती बदले की आग राख़ हो चुकी थी।
मैं श्मशानघाट से बाहर आकर पानी के हौद से पानी लेकर ख़ून में लथपथ गंडासी धोई । बाबा ज्ञान दास की समाधि की ओर
मुँह करके माथा टेक कर घर लौट आया।
पाठी पाठ कर रहा था। पूरा गाँव सोया हुआ था।
घर वालों के जागने से पहले ही मैं दीवार फाँदकर धीरे से पोर्च में उतर गया।
गंडासी साफ़ करके स्टोर में रख दी।
माचिस रसोई में रखी और हवा की तरह चलता हुआ बेडरूम में पहुँच गया।
देह बिस्तर पर पड़ी थी।
मेरे अंदर से निकला हुआ साया उसमें प्रवेश कर गया।
मैं फिर सो गया।
“जिसने भी क़त्ल किया!... कमाल का आदमी था…!”
कोई सोया हुआ आदमी कह रहा था।
कोई जागता हुआ बोला,
“बाक़ी शरीर तो यहीं छोड़ गया!...
सिर्फ़ छाती वाला हिस्सा निकाल कर ले गया…!”
“मुझे तो यह किसी भूत–प्रेत या ऊपरी चीज़ का काम लगता है…!”
नींद में गूँजती आवाज़ सुनकर मेरी आँख खुल गई।
पूरा घर जाग चुका था। अस्थियों की रस्म की तैयारी चल रही थी।
रात को गाँव गए जगदीप और गुरमीत भी लौट आए थे।
२५
बाहर पोर्च में पांडा और बारू और दरियां बिछा रहे थे। उनकी आवाज़ सुनकर मैंने अपना हाथ अपनी छाती पर रख लिया।
मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। मां गुरमीत को बता रही थी—
“मुझे तो रात बहुत बुरा सपना आया!... पूरी रात बस ख़ून ही ख़ून दिखता रहा!... जैसे कोई राणा की छाती में से दिल निकाल ले गया हो!...
...जब भी आँख खुलती!... मैं तो उठकर इसे देखने चली जाती...!”
“इक तो आग लगा यह मुँह बहुत सूखता रहा था!... मैं तो बिस्तर के नीचे पानी का गिलास रखकर सोई....!”
सूखे होंठों पर जीभ फेरती वह मेरी तरफ़ देखने लगी।
मैं उससे नज़रें चुरा रही थी। डरावना सपना याद करते ही मेरे चेहरे का रंग उड़ गया था।
लेकिन बारू के चेहरे का रंग तो लाल था। मेरी छाती पर उंगली रखकर वह कह रहा था
“डर मत, छोटे भाई!... तेरी छाती में फ़ौजी बाप का दिल है...!”
उसकी उंगली की चुभन महसूस होते ही छाती में दर्द की एक रेखा उठी।
मैंने फूल (अस्थियां) उठाने जाने वाले लोगों पर नज़र टिका ली।
००००००
कांड ५
पेज २६
फूल (अस्थियों) की रस्म पर जाने की तैयारी हो चुकी थी।
सारा कुटुंब-कबीला इकट्ठा होकर बैठा था। दोस्त-मित्र, रिश्तेदार सब आ चुके थे।
“चलो भाई!... अब क्या इंतज़ार करते हो...!” बुजुर्ग की बात सुनते ही
दरी खाली हो गई।
पैरों में जूते पहन लिए गए। मोली ने बाल्टी उठा ली — उसमें दूध मिला पानी था। एक मटकी थी।
तोची नाई के हाथ में स्टील की थाली थी, जिस पर सफ़ेद मलमल का कपड़ा दिया हुआ था।
थाली में लकड़ी की छोटी-सी फावड़ी, चार कीलें, सूत की गुच्छी, माचिस, चार दीये और दाँती(हंसुआ) रखी हुई थी।
वह सबसे आगे चल रहा था। मेरे पीछे भीड़ चली आ रही थी।
जिस सड़क से कल बाजी की अर्थी गुज़री थी, वह सड़क आज चुप थी।
जहाँ पानी का घड़ा फूटा था, उस जगह के पास पहुँचकर मुझे बहुत प्यास लगी।
श्मशान घाट वाली उस खेल (हौद) में जहाँ लोगों ने हाथ धोए थे — मेरा मन किया कि उसमें डुबकी लगाकर पानी पी लूँ।
लेकिन सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए मैं फूल चुनने आई भीड़ के साथ आगे बढ़ता शेड के नीचे जाकर खड़ा हो गया।
अंतिम संस्कार वाली जगह बाजी के स्थान पर राख की चादर बिछी थी।
वह कहाँ चला गया! — यह सोचकर मैं भरी आँखों से खड़ा था। पाँच साल का शानवीर मेरी उँगली पकड़े खड़ा था।
तोची नाई नीचे बैठा था। उसने थाली का सामान निकालकर ईंटों के फ़र्श पर रख लिया था।
२७
मेरे चाचों–तायों के लड़के — परमजीत, अवतार, काका, मोली, बावा, दद्दी,
गोगी — सब राख की चादर के आसपास बैठे थे।
जगदीप मेरे पास खड़ा था। शानवीर ने बैठने का इशारा किया, तो मैं भी नीचे बैठ गया।
मेरी आँखों से दो आँसू निकले और राख में गिर पड़े।
किसी की आवाज़ आई,
“थोड़ा पानी छिड़क लो!... राख ठंडी है!... पर कोई–कोई अंगारा अभी भी दहक रहा है!...
हाँ, यहाँ और पानी छिड़क दो…!”
कई हाथ राख की चादर को उलट-पुलट करने लगे।
दातियाँ चलने लगीं। लकड़ी की फावड़ी राख को खुरचने लगी।
लेकिन बाजी न तो राख की चादर के नीचे था, न ऊपर!
वह तो उसकी हड्डियों के फूल थे।
“लो, यह पकड़ लो!... यह हड्डी है!... देखो, इसमें दाढ़ भी है!...
यह कड़ा भी उठा लो!... बस मोटी–मोटी हड्डियाँ चुन लो…!”
जब पानी वाले थाल में हड्डियाँ गिरने लगीं,
मैं बाजी के हाथ की उँगली खोजने लगा।
मेरी मुट्ठी से राख झर रही थी।
“चलो, अब धोकर कपड़े में रख लो!... ढेरी इकट्ठी कर दो…!”
नाई पानी वाले थाल में हड्डियों के फूल धोने लगा।
चार हाथों ने मलमल का सफ़ेद कपड़ा ताना,
और उन फूलों को उसमें रखकर गठरी बाँध दी।
राख़ की ढेरी को इकट्ठा कर उसके चारों कोनों में कीलें गाड़ दी गईं।
पहली कील में कच्चे सूत का धागा बाँधा,
और बाकी तीन कीलों के चारों ओर अट्टी घुमाकर बाजी का सिवा (मरघट) बाँध दिया।
राख़ की ढेरी के ऊपर सूत की अट्टी रखकर जब मैंने मढ़ी (समाधि)का दीया जलाया,मेरे पास बैठे शानवीर का चेहरा चमक रहा था।
मेरी आँखों के आगे अँधेरा था।
हाथ सूखे पत्तों की तरह काँप रहे थे।
“चल भाई!... फिर जाने का कुसमय होता है…!”
पीठ पर पिंड का हाथ महसूस करके
मैंने सफ़ेद कपड़े की पोटली थामी
और शेड की ओर चल पड़ा।
२८
दीवार से सटा हुआ एक लोहे का बक्सा लगा था।
मेरे हाथ से पोटली लेकर परमजीत ने उसे उसके अंदर रख दी। ताला लगाने के बाद बक्से की दरारों में से पानी टपकाने लगा। मैंने अपने दोनों हाथ उस टपकते पानी के नीचे कर दिए।
कोई समझदार मेरा हाथ पकड़कर मुझे आगे ले गया।
“यहाँ हाथ धो लो…!”
जब लोगों ने खेल (हौद) के पानी की तरफ़ इशारा किया,मैंने फूलों वाले पानी से भीगे हुए हाथ चेहरे और सिर पर फेरे और फिर घर की ओर चल पड़ा।
मेरी चेतना में अभी भी बक्से का वह टपकता पानी बूँद–बूँद गिर रहा था।
००००
२९
कांड-६
धोई हुई मूँग की पीली दाल बनी थी।
चार लोग दीवार के सहारे दरी पर बैठे रोटी खा रहे थे।
अगर मैं भी अर्थी में कंधा दे आया होता, तो मैं भी उनके साथ बैठकर रोटी खा रहा होता।
मुझे एक तरफ़ बैठा देख मां मन ही मन झूर रही थी।
मां, राजू, गुरमीत, शालू, आशीमा, शानवीर, जगदीप, बुआ और काका, मासी—सब तैयार थे।
कीरतपुर साहिब जाने के लिए किराए की ट्रैक्स गाड़ी बाहर गली में खड़ी थी।
उसमें बैठने से पहले बुआ कह रही थी— “एक लंबा-सा परना (गमछा) ले लो!... उसका एक सिरा ज़मीन पर फेरता हुआ पूरे घर का चक्कर लगा!... हर खूँचे कमरे में जाकर बाहर निकलते हुए कहना— ‘आ जाओ बाजी, चलिए...!’ ”
“बाजी!... आ जाओ, चलिए...!” ज़मीन पर परने का सिरा फेरता हुआ मैं घर में ऊपर की हवा की तरह घूमने लगा।
मैं यह क्या कर रहा था! जिस बाजी ने पैसा-पैसा जोड़कर पहले दो बार ख़ुद घर बसाया। तीसरी बार मुझे बसाने लायक बनाया— उसी को घर से मैं उसे बाहर निकाल रहा था!
“अरे यह तो फूलों (अस्थियों) की रस्म है!... यहाँ कोई आदमी घर से निकलता थोड़े ही है!... वह यहीं रहता है, यहीं!...” मेरी छाती पर हाथ रख बुआ हौसला देने लगी।
उसकी बात अपनी जगह ठीक थी। पूरे घर में परने का सिरा फेरते हुए जब लॉबी पार कर बाहर का फाटक लाँघा— मैंने पीछे मुड़कर हाथ जोड़े। मन में कहा— “बाजी!... तुम यहीं रहना....!”
“चल बैठ मुंडया!... देर हो रही है!...” मेरे ट्रैक्स में बैठने से पहले सभी अपनी–अपनी सीटों पर बैठ चुके थे।
मेरी सीट के बगल वाली एक सीट खाली थी— वह बाजी की थी।
वह जगह अब हमेशा खाली रहने वाली थी।
उसमें मैंने अपनी मोहब्बत के रंग भरने थे।
३०
“बस अब बार–बार आँख मत भर!... अपने दिल का भी ख़याल रख!...”
जब गाड़ी में बैठी बुआ ने यह बात कही,
उसके पास बैठी माँ भरी आँखों से शीशे में मेरे तरफ़ देख रही थी।
मैं उसकी यह चुप्पी की भाषा समझता था।
वह मन में कह रही थी— “कोई बात नहीं!... थोड़ा-सा रो लेने दो इसे...!”
परना गले में डालकर, आँखें पोंछता हुआ मैं गाड़ी में बैठ गया।
जब गाड़ी चलने लगी,मैंने ख़ाली सीट पर परना रखकर धीरे से कहा— “बाजी!... मैं आ गया बस...!”
सबको सुनाने के लिए मैंने यूं ही ऊंची आवाज़ में कहा ‘आ जाओ बाजी, चलिए’।
“यहाँ रोक लो...!”
गाँव की गली पार करती गाड़ी श्मशानघाट के आगे जाकर रुक गई।
वहाँ खेतों के पास परमजीत खड़ा था।
वह मुझे संस्कार वाले शेड के नीचे ले गया।
वहाँ भी परने का सिरा फेरकर मैंने मन में फिर कहा— “बाजी!... तुम यहीं रहना...!”
“आ, यह पकड़...!”
जब परमजीत ने बक्सा खोलकर उसमें से फूलों वाली पोटली निकाली और मुझे पकड़ाई—
वह दुनिया के सबसे भारी फूल लग रहे थे।
उन्हें उठाकर चलना मुश्किल था।
धीरे–धीरे चलता हुआ जब गाड़ी के पास पहुँचा,परमजीत कहने लगा—
“बैठने से पहले ज़मीन पर एक सिक्का फेंककर माथा टेक देना...!”
मैंने ज़मीन पर दस रुपए का सिक्का फेंककर माथा टेक दिया।
गाड़ी का दरवाज़ा बंद हो गया।
बाजी की आख़िरी यात्रा शुरू हो गई।
मैंने ख़ाली सीट पर फूलों वाली पोटली रख दी।
उसमें से रिसता पानी मेरी तरफ़ बढ़ता चला आ रहा था।
००००००
३१
कांड ७
रात दस बजे हम कीरतपुर साहिब से घर लौट आए।
ड्रॉइंग रूम में गुरु ग्रन्थ साहिब का प्रकाश हो चुका था। पाठी पाठ कर रहा था।
मैं माथा टेककर एक कोने में बैठ गया।
आँखें बंद कर ध्यान पाठ पर टिकाया।
शब्द-गुरु की बाणी ‘पानी पिता, पानी पिता’ का जप करने लगी।
मुझे अस्थिघाट से बहता बाजी दिखाई देने लगा—
वह नीचे बहती नहर के पानी में बह रहा था।
मैं लकड़ी के पुल पर खड़ा उसकी राख़ की ओर देख रहा था।
“राख़ नहीं!... मैं तो पानी हूँ....!”
बाजी की आवाज़ सुनकर मेरा ध्यान टूट गया।
वह पाठी की आवाज़ में बोल रहा था—
“मैं तो तेरे पास बैठा हूँ!... तू कहाँ है...?”
मैं तो कीरतपुर में ही रह गया था।
बाजी मेरे साथ घर लौट आया था।
उसकी राख़ हुई देह तसले में जौ रूप में बोई गई थी।
वह घड़े में पानी बनकर तैर रहा था।
मेरी आँखों में आँसू तैर रहे थे।
मैं एक कोने में जौ वाले तसले और घड़े पर रखे नारियल की ओर देख रहा था।
वह सफ़ेद कपड़े में लिपटा हुआ था।
“अरे देखो, कौन जा रहा है....!”
मेरी आँखों में तैरता बाजी कहने लगा।
मैंने उसकी उँगली की दिशा में देखा—
हरे रंग की फ़ाइबर से बनी गैलरी की छत के नीचे तीन लोग जा रहे थे।
शानवीर मेरी उँगली पकड़े चल रहा था।
मैं सफ़ेद मलमल के कपड़ों में बांधकर बाजी को कंधे पर टांगा हुआ था।
दो पीढ़ियाँ—एक पीढ़ी को जल-प्रवाह करने के लिए अस्थिघाट की ओर बढ़ रही थीं।
३२
पीछे चलते आ रहे रिश्तेदारों में से मां सबसे धीमे चल रही थी।
उसके पैरों के नीचे की धरती डोल रही थी। क़दम लड़खड़ा रहे थे।
मैं लड़खड़ाते क़दमों के साथ अस्थि–घाट पर चढ़ तो गया था, पर ठहर नहीं सका।
“इसे नीचे उतार लो!... अभी तुम्हें इसकी ज़रूरत है....!”
जब पानी में बहती राख आँखों से ओझल हो गई,शानवीर ने मेरी उंगली पकड़कर मुझे नीचे उतारना शुरू किया।
राजू को उसकी उंगली पकड़ा, मैं रजिस्टर में नाम दर्ज करवाने के लिए कमरे की कतार की तरफ चल पड़ा।
मरने वाले का नाम। मौत की तारीख़। गाँव। ज़िला।
जब रजिस्टर में लिखने वाले ने पूछा, “मरने वाले से आपका रिश्ता....!”
“वो मेरा बाप था....!” ‘बाजी’ की जगह '' बोलते हुए मेरी दहाड़ निकल गई।
मैं लाइन से निकलकर गुरुद्वारा पतालपुरी साहिब की तरफ़ चला गया।
अर्दास के बाद आख़िरी निशानी लेने के लिए रिश्तेदारों का काफ़िला बर्तनों की दुकान की ओर चल पड़ा।
पूरी दुकान में पीतल–स्टील के बर्तन चमक रहे थे—
खूंडे, खूँडियाँ, हार–श्रृंगार का सामान, बच्चों के खिलौने और गंडासियाँ चमक रही थीं।
बाजी बड़े गिलास में पानी पिया करता था।
मैंने एक हैंडल वाला बड़ा गिलास खरीद लिया।
इसके तले के नीचे ‘बापू दर्शन सिंह’ लिखवा लिया।
मशीन से लिखे अक्षर दानेदार थे।
मैं सबका देनदार था।
हर कोई अपना-अपना बर्तन पसंद कर रहा था—
“मैं तो यह गड़वी लूँगी....!”
“मुझे तो यह केतली ले दे!... हमें भी केतलियाँ ले दो....!”
रिश्तेदारों की आवाज़ों में उलझी मां एक तरफ़ चुप खड़ी थी।
वह मेरी ओर देखकर थोड़ी देर बाद आँखें पोंछकर पीछे की ओर मुँह फेर लेती।
३३
मौत की लूट देखकर राजू होंठ भींच लेता। उसकी आँखों में ऐतराज़ था।
“ऐतराज़ तो मुझे भी है, राणेया!... तू ही बता अब!... ये रिश्तेदार जो मेरी मौत का सामान खरीद रहे हैं!... ये जो कल मेरी लाश के पास बैठकर रो रहे थे!... अगर मैं पानी से निकलकर बाहर आ जाऊँ!... ये लोग मुझे दोबारा जीने नहीं देंगे....!”
बर्तनों की खरीद में लगे रिश्तेदारों की काँव- काँव में बाजी की आवाज़ नीचे दबकर रह गई।
उसके नाम वाला गिलास उठाकर मैंने मां की ओर देखा।
वह राजू को चुप रहने का इशारा कर रही थी।
सबके हिस्से की रकम अदा करके मैंने पितरों का ऋण उतार दिया।
मौत का सामान उठाकर रिश्तेदारों का काफ़िला ट्रैक्स (गाड़ी) की ओर चल पड़ा।
गाड़ी को सामने वाली पहाड़ी पर बनी बुड्ढन शाह की मज़ार तक जाना था। उसके बाद माथा टेककर घर लौट आना था।
०००००
३४
काँड -८
हवा में उड़ी बात घर पहुँच चुकी थी।
जिसने वह बात कही थी, पाठी ने उसका नाम नहीं बताया।
वह कह रहा था, “सुबह जब मैंने अनाउसमेंट की!... आज दोपहर एक बजे गुरुद्वारा साहिब में गुरमुख प्यारे दर्शन सिंह जी की अंतिम अरदास होनी है!... परिवार की ओर से सभी भाई-बहनों को अरदास में शामिल होने की विनती की गई है, भाई…!”
“अनाउसमेंट सुनकर एक आदमी कहने लगा— तू उसे गुरमुख क्यों कह रहा है!... वह तो दाढ़ी काटता था!... शराब पीता था!...” पाठी से सुनी यह बात मेरे दिल पर इस तरह लगी
जिस तरह बाजी को सुबह खाली पेट शराब पी जाती थी। मैं दर्द से दोहरा हो गया।
मन में भोग वाले दिन बोलने का फ़ैसला पक्का कर लिया।
पहले से ही घर के अंदर खुसर-पुसर चल रही थी।
सबसे ज़्यादा भैणी वाली बुआ कह रही थी—
“न मेरे पुत्तर!... अच्छा नहीं लगता!... तू कहीं और बोल लेना!... अगर तुझे बोलने का इतना ही शौक है तो!... आज तो कोई और ही बोलता ही अच्छा लगता है…!”
मुझे उसकी बात बुरी लगी थी।
वे नेता लोग— जिन्हें मरे हुए आदमी के बारे में कुछ भी नहीं मालूम, जिन्हें गुज़र चुके इंसान का नाम तक नहीं पता होता—
वे ही आज तक बोलते आए थे।
वही घिसी-पिटी भाषा में झूठ बोलते थे।
उनके पास हर किसी के लिए हर बार वही बातें, वही शब्द होते।
वे उन्हीं बातों के साथ मरने वाले का नाम जोड़कर श्रद्धा के फूल चढ़ा देते थे।
मरने वाले के परिवार का कोई सदस्य—
जो अंदर से टूटा हुआ होता—
वह विनम्र होकर हाथ जोड़ खड़ा रहता,
हर किसी का धन्यवाद करता रहता।
मैंने सिर उठाकर बाजी के भोग पर
अपने पिता की बोली — ‘बाप की बोली’ — को सिर उठाकर बोलना चाहा।
३५
सुबह से ही इस बात का विरोध हो रहा था।
पर दिल पर लगी हुई बात का जवाब देने के लिए
मैंने उस विरोध के ऊपर अपनी बात रख ही दी।
गाँव की रिवायत के अनुसार दोपहर एक बजे
गुरुद्वारा सिंह सभा में भोग की रस्म होनी थी।
घर में रखे पाठ का भोग कर, अरदास के बाद शब्द। उसके बाद गुरु की सवारी गुरुद्वारा साहिब छोड़ी जाती थी।
जिसे छोड़ने पाँच लोग गए थे—उनमें शानवीर भी था।
वह पानी वाला डोलू उठाए आगे-आगे छिड़काव करता जा रहा था।
वापसी के समय डोलू में जो पानी बचा हुआ था,
घर पहुँचकर उसने वह छिड़क कर शेष पानी पौधों में डाल दिया।
उन पौधों में बाजी लहराया करते थे।
धूप, बारिश और आँधियों में उन्होंने उन पौधों को बेटे की तरह पाला था।
जिसने मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया,
वह मेरे भीतर पीपल/बरगद बनकर खड़ा था। मैं जिसकी छाँव में बड़ा हुआ था।
आज उसकी उस छाँव का ऋण चुकाने का समय आ गया था।
वही समय मैं मुट्ठी में बाँधे गुरुद्वारे के सामने चौकड़ी के पास खड़ा था।
सफेद कुर्ता-पायजामा, सिर पर बँधा सफेद रूमाल—
मैं आने वाले लोगों का स्वागत कर रहा था।
चौकड़ी के पीछे बने हॉल में लोग लंगर खा कर महाराज की हज़ूरी में बैठ रहे थे।
रागी कीर्तन कर रहे थे।
मेरे पास खड़ी माँ, राजू और गुरमीत
भी अंदर जाकर बैठ गए थे।
मैं अंदर जाने के लिए हिम्मत जुटा रहा था।
मेरी हालत ‘नचिकेता’ की कहानी जैसी थी।
वह मिथक का एक पात्र था।
गांव-इलाके में जब किसी की मौत होती,
वह वाजा और ढोलकी लेकर भजन/शब्द गाने चला जाता।
शब्द की समाप्ति के बाद वह सबको एक ही बात समझाता—
“यह मालिक की मर्ज़ी है!... जिसने भेजा था, वही ले गया!...
भाणा मनो भाई, भाणा…!”
यह बात वह खड़े होकर कहा करता था।
जिस दिन उसके जवान बेटे की मौत हुई,
पूरा गांव-इलाका इकट्ठा हो गया।
आवाज़ें आने लगीं…
३६
“चलो भाई जी!... बैठो!... खड़े होकर शब्द गाओ!... भाणा (ईश्वर की रजा) मानने के लिए बोलो…!”
“सब कुछ होगा!... बाजा-ढोलकी भी बजेगी!... शब्द भी गाऊँगा!... भाणा मानने के लिए भी कहूँगा!... लेकिन आज यह सब खड़े होकर नहीं हो सकेगा…!”
नचिकेता की बात याद करते हुए मेरी टाँगों से जैसे जान निकल रही थी।
मैंने भरी सभा में खड़े होकर बाजी के बारे में बोलना था।
पहले भी कई लोगों के भोग पर बोल चुका था—
कभी ऐसी हालत नहीं हुई।मेरे होंठ सूख रहे थे।प्यास लग रही थी।ऊपर जाती सीढ़ियाँ पहाड़ बन गई थीं।
होंठों पर जीभ फेरता हुआ मैं महाराज (गुरु ग्रन्थ साहिब) की हज़ूरी में माथा टेककर
हाथ जोड़कर बैठी संगत में जाकर बैठ गया।
कीर्तन की समाप्ति के बाद जब पाठी ने अंतिम अरदास शुरू की,पूरी संगत खड़ी हो गई।
मैं हाथ जोड़कर खड़ा था।
मन ‘पवन गुरु, पानी पिता…’ वाली पंक्ति पर टिका हुआ था।
“बोले सो निहाल!... सत श्री अकाल…!”
जयकारे के बाद पाठी मुख्य वाक के लिए तैयार होने लगा।
उसके आख़िरी शब्दों के साथ-साथ दर्शन सैक्रेटरी उठकर खड़ा हो गया।वह सभी के भोग में मंच-संचालन किया करता था।
घर-परिवार और बाजी के बारे में थोड़ी-सी भूमिका बाँधकर उसने माइक मुझे थमा दिया।
मैं जैसे ही खड़ा हुआ,मेरे भीतर घात लगाए बैठा नचिकेता मुस्कराया।संगत में खुसर-पुसर हुई।हर आँख मुझे ऊपर-नीचे देखने लगी।
मैंने सूखते होंठों पर जीभ फेरकर बोलना शुरू किया—
“मेरे बाजी, सूबेदार दर्शन सिंह की अंतिम अरदास में शामिल साध संगत जी!... सबसे पहले फतेह बुलाओ—
वाहेगुरु जी का खालसा!... वाहेगुरु जी की फतेह!...”
फतेह बुलाकर मैं संगत में बैठे उस आदमी को ढूँढने लगा जिसने कहा था—
“तूने उसे गुरमुख कैसे कह दिया?... वह तो दाढ़ी कटाता था.. शराब पीता था…!”
३७
“साध-संगत जी!... यह ठीक है कि वह शराब पीता था!... दाढ़ी कटवाता था!... पर वह फिर भी गुरु का बंदा था!... वह कैसा आदमी था—यह बताने के लिए मैं उसकी ज़िंदगी की कुछ घटनाएँ आपसे बाँटना चाहता हूँ....!”
कुछ शब्द बोलकर मेरे सूखे होंठ तर हो गए थे। मैं बाजी की ज़िंदगी के इतिहास के कुछ पन्ने पलटने लगा:
पन्ना-1
वह भले ही दाढ़ी कटवाता था, लेकिन उसके सिर पर हमेशा जूड़ा रहता था। वह कभी नंगे सिर नहीं रहता था। ड्यूटी से पहले–बाद में या छुट्टी के दिनों में वह चार खाने वाला परना बाँधकर रखता। वरना वह हमेशा पगड़ी ही बाँधता था।
हर रोज़ सुबह नहाने के बाद सबसे पहले पगड़ी बाँधता था। जो भी उसकी खूबसूरत पगड़ी देख लेता, उसका दिवाना हो जाता। फौज में वह परेड में शामिल होने वाले फौजियों की पगड़ी बाँधता था। यूनिट में उसकी सुंदर पगड़ी के चर्चे थे।
वह थोड़ी ऊँची, नोकदार और दोनों तरफ़ से मिक्स लड़ी वाली पगड़ी बाँधता था। लड़के कहते—“तेरा बाजी तो जैसे लालटेन ही लगा देता है।” उसका एक अलग ही स्टाइल था।
रात को सोने से पहले वह दिनभर बाँधी पगड़ी उतारकर कुर्सी पर रख देता—जो अगली सुबह फिर से पहननी होती। पहले उस पर पानी छिड़कता, फिर पूणी करता, और पूणी की गई कपड़े की गोल-सी टिक्की बनाकर अपने सिरहाने रख देता।
जिस रात उसकी मौत हुई, उस दिन उसने नाभी-रंग (नेवी ब्लू) की पगड़ी बाँध रखी थी। और अगली सुबह बाँधने के लिए आसमानी रंग की पूणी कर सिरहाने रखी हुई थी।
पर अफ़सोस! वह अगली सुबह पगड़ी बाँधने के लिए उठ न सका....!
मेरी बात सुनकर बैठी संगत ने महाराज की हज़ूरी में रखी बाजी की उस फोटो की ओर देखा, जिसमें उसने नेवी रंग की पगड़ी बाँधी हुई थी और वह सबकी ओर ध्यान से देख रहा था।
पन्ना-2
बाजी के भीतर गुरु-घर जाने का रस्ता बसा हुआ था।
एक बार सर्दियों के दिन थे। रात का समय था। वह शराब पीकर घर आने के बजाय खेत की ओर चल पड़ा।
बाज़ार से होता हुआ वह पाल की आटा चक्की तक तो ठीक पहुँचा, लेकिन वहाँ से दाएँ मुड़कर खेत की ओर जाने की बजाय वह सीधे आगे निकल गया। रीठे के घर से आगे जहाँ दाएँ हाथ को मुड़ती सड़क थी, वह उसे भी पार कर गया।
वह सड़क छन्ना गाँव की तरफ़ जाती थी। अमरगढ़...
३८
छन्ना दो किलोमीटर दूर था। वह चलते-चलते एक अनजाने गाँव पहुँच गया।
शराब के नशे में वह रास्ता भूल चुका था। गाँव में जाकर वह मोटर की ओर मुड़ने वाला मोड़ समझकर बाएँ मुड़ने वाली टूटी सड़क पर मुड़ गया।
वह सड़क गुरुद्वारे के आगे जाकर समाप्त होती थी। जब उसने निशान साहिब के मर्करी बल्ब की रोशनी में चमकता हुआ गुंबद देखा, उसकी चेतना पलट गई।
वह दस कदम पीछे हट गया। सड़क के उस पार एक पेड़ के सहारे टिककर बैठ गया। ठंड से उसका शरीर सुन्न हो गया। वहीं गिरकर सो गया।
जब सुबह के चार बजे लोग गुरुद्वारे माथा टेकने आने लगे, उनमें से एक ने उसे पहचान लिया और स्कूटर पर बिठाकर घर छोड़ आया।
अगर वह उस रात गुरुद्वारे के भीतर चला जाता, तो वह गुरु से बेमुख हो जाता।
यह घटना सुनकर सबकी आँखों में सवा महीना शराब छोड़कर माफी मांगने के लिए गुरुद्वारे जाता हुआ बाजी तैरता हुआ दिखाई देने लगा।
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पन्ना-3
मेरा बाजी फौज में था। उसने पाकिस्तान के साथ दो युद्ध लड़े थे।
एक युद्ध में जब भारतीय फौज पाकिस्तान में प्रवेश कर गई, तो मुसलमान लोग अपने गाँव खाली कर भागने लगे।
एक टुकड़ी की अगुवाई बाजी कर रहा था। तलाशी लेते हुए वह एक घर में घुस गया। बाकी फौजी दूसरे कमरों में चले गए।
जब बाजी आँगन से गुजरने लगा, तो दीवार के पास रखे मिट्टी के बड़े हाँड़े का ढक्कन हिला। उसके फौजी कदम रुक गए। वह सतर्क हो गया।
बंदूक सीधी हाँड़े की ओर तानी और आगे बढ़ने लगा। जवाबी हमला होने से पहले ही वह फुर्ती से ढक्कन उठा देता है।
हाँड़े के भीतर से एक मुसलमान बूढ़ा उठकर खड़ा हो गया।
फौजियों ने बंदूक उसकी ओर तान दी। बाजी को गोली चलानी थी — उसे मरना था।
ज़िंदगी और मौत के बीच केवल एक सेकंड का फासला था। उस फासले में गोली चल जानी थी।
लेकिन उससे पहले ही हाथ जोड़कर खड़ा वह बूढ़ा काँपती आवाज़ में बोला —
“सरदार जी!... उधर आपका ज़िला कौन-सा है....?”
“संगरूर....!” — बंदूक पर बाजी की पकड़ और कसी।
बूढ़ा रहम की भीख माँगने लगा —
“संगरूर ज़िले में आपका गाँव कौन-सा....?”
३९
“अमरगढ़....!” — घोड़े पर रखी उँगली हरकत करने के लिए तैयार हो गई।
बुज़ुर्ग की आँखों में ‘पानी पिया’ जैसा नमी तैरने लगी —
“उधर मेरा गाँव झल्ल है....!”
झल्ल और अमरगढ़ गाँव की राहें जुड़ी हुई थीं।
बंदूक के घोड़े से उँगली हटकर बाजी का चेहरा समझी हुई राह पर खिल उठ्या।
“जीओ पिंड, सब तेरा वाहेगुरु....!” — बुज़ुर्ग की आँखों में देखते हुए उसने नीचे बैठने का इशारा कर दिया।
हाथ जोड़कर वह बूढ़ा नीचे बैठ गया—ज़िंदगी नीचे बैठ गई।
बाजी ने हाँड़े पर ढक्कन रखा और बाहर निकलकर कहा—
“इस घर में कोई नहीं!... आगे चलो....!”
“बई, दरअस्ल वाक़ई गੁਰमुख बंदा था....!”
पुरुष संगत वाहेगुरु का जाप करने लगी।
औरतें अपनी चुननियों से आँसू पोंछने लगीं।
मेरी टाँगें काँपने लगीं।
मैं फतेह बोलकर नीचे बैठ गया।
देग परोसी जाने लगी।
गाँव और इलाक़ा मैं नई नज़र से देखने लगा।
संगत में मालेरकोटला से आया डॉ. एस. तरसेम भी बैठा था।
वह आँखों से कमज़ोर था, पर उसे पूरी घटना दिख गई।
बाद में उसी ने इस घटना पर एक छोटी कहानी लिखकर ‘नज़रिया’ पत्रिका में छपवाई थी।
जब वह मेरे सामने कहानी लिखने की बात कर रहा था,
नीचे चौकड़ी के पास खड़े लोग चाय की चुस्कियों के साथ मुझसे बातें कर रहे थे।
अहमदगढ़ वाला मामा कह रहा था —
“यार, मेरे भोग पर भी तू ही बोलेगा....!”
उसके सामने हाथ जोड़कर मैं लंगे वाले दरवाज़े के पास बने हॉल में जाकर बैठ गया।
वहाँ रिश्तेदार ‘पगड़ी की रस्म’ कर रहे थे।
अमलोह वाले पगड़ी के साथ सोने की छाप लेकर आए थे।
मैं दरी पर एक ओर बैठा था।
रिश्तेदार पैसे डाल रहे थे।
एक हाथ मेरी उँगली में छाप पहनाता जा रहा था।
मूंछों वाला चर्न मामा मेरे सिर पर मेहंदी-रंगी हरी पगड़ी लपेट रहा था।
उसने पगड़ी सुब्बे की तरह लपेट दी।
मैंने इसे नीचा रख लिया।
फोटो में नाभी...
४०
पगड़ी बाँधकर बैठा बाजी मेरी ओर सीधा देख कर बोला,
“राणिया!... यह तो बता, मेरी जैसी सोहणी पगड़ी बाँध...!”
“ठीक है बाजी....!” — उससे डरता हुआ मैं चौकड़ी पर जाकर बैठ गया।
वहाँ कई लेखक मित्र बैठे थे। उनमें प्रीति शैली भी बैठी थी।
मेरी उँगली की ओर देखकर वह हल्का-सा मुस्कराई,
“सर!... आपकी उँगली में पहनी हुई छाप बहुत सुंदर लग रही है...!”
“यह बाप खोकर ली है!... सुंदर तो लगनी ही थी...!”
मेरी बात सुनकर वह उदास हो गई।
मैं उदास आँखों से कीरतपुर साहिब के अस्थिघाट की ओर देखने लगा।
वहाँ से गिरती राख नीचे पानी में गिर रही थी।
मैं बाजी की उँगली पकड़े पानी पर चलता चला जा रहा था।

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