Thursday, February 28, 2013

'नव्या' पत्रिका में मेरी तीन कवितायेँ ....

'नव्या' पत्रिका में मेरी तीन कवितायेँ ....
FEB-APRI-13 MAIN

'हीर' की तीन कविताएँ

27 Feb. 2013
ART-MOON
(1)       पत्थर  हुई औरत ....

अनगिनत प्रार्थनाएं
अनगिनत स्वर
पर कोई भी शब्द स्पष्ट नहीं
अर्थहीन शब्द तैर रहे हैं हवाओं में
एक दिव्य गुंजन
क्या है ये ....?
जड़ या चेतन ....?

वह सब भूल गई है
अपना अतीत
अपना वर्तमान
ह्रदय का स्पंदन
आँख , कान श्वास -प्रश्वास
सब कुछ शून्य  मुद्रा में नि:शब्द है
रात सुब्ह  के ब्रह्म मुहूर्त की प्रतीक्षा में बैठी  है
वह आज पावन कुम्भ के जल से
कर लेना चाहती है आचमन* ...

द्विधाओं के संजाल से
मुक्त करेगा कोई चमत्कारिक दृश्य
जलावृत में तैरती अमृत बूंदें
बुराइयों का कर  तर्पण
गरुड़ पंखों से
आस्थाओं के पुंज को
शायद  जीवित कर दे
अरे ! यह क्या ...?
उसके गालों में आंसू ....?
आह ! आज बहने दूँ इन्हें
शायद उसकी चेतना से
 शून्य लौट जाए  ......!!

आचमन* -शुद्धि के निमित्त मुंह में जल लेना 

WINDOW-K

(2)   बंद खिड़कियाँ ....


अंधेरों को चीरकर
दो रौशनी के धब्बे
ठहर गए हैं मेरे घर के सामने
मुसलाधार बारिश में
क्रुद्ध हवाएं
एक चमकदार अंगुली से
बजाती हैं घंटी
कोई रोशनदान से झांकता है
नीली, पीली, हरी बत्तियां
बदहवासी से दौड़ी चली आती हैं ...

 कितने जालों से घिरी है ज़िन्दगी
सोचती हूँ खो न दूँ तुम्हें कहीं
वृक्षों से गिरती बूंदों की मानिंद

इक चिड़िया तिनका लिए चहकती है
लेकिन स्वतंत्रता पंख फड़फड़ा रही है
बंद खिड़कियों के भीतर

आह ! कोई दर्द  मोम की तरह
जमता जा रहा है अंतड़ियों में
तमाम मर्यादाएं ,नैतिकताएं बाँध दी गई हैं
मेरे कदमों से ....
मैं खो चुकी हूँ अपना संतुलन
इससे पहले कि उफनते ज्वालामुखी से
झुलस जाएँ तुम्हारे पर
जाओ चिड़िया उड़ जाओ
तुम अपना घर कहीं
और बसा लो .....

(3) विकल्प ...

खामोश सन्नाटा
 सांस रुन्धकर अटकने लगी है
भयातुर आँखें
आक्रामकता से आक्रांत
विसंगतियों और क्रूरताओं से भरा यह समाज
समय की गांठों में उलझा हुआ ...

खुद से खुद को बचाने की खातिर
 लड़ता है कवि ज़िन्दगी के
 खतरनाक शब्दों से
जबकि प्रेम मुट्ठियों में बंद है
सच कपडे उतारे  सामने खड़ा है
अपने हिस्से की सारी जमीन
 खोद डालता है वह
खुद को शर्मसार होने से बचाने के लिए ....

कितना त्रासद
कितना उदास ,प्रेम का रंग
अनब्याही भूख सा
जहां तेवरों  में ढह जाते हैं
आंतरिकता के शब्द
चलो इन मरे हुए शब्दों के विरुद्ध
खड़े कर दे हम बीज रूप में
मुस्कानों के फूल ..
और हंसी का कोई विकल्प रख दें ....


http://www.dil-punjab.com/parvaaz-a-kalmparvaaz-a-kalm

34 comments:

दिगम्बर नासवा said...

बहुत प्रभावी ... तीनों रचनाओं में गरही टीस है ... दर्द की लहर है जहाँ रौशनी की हलकी सी लकीर भी नज़र आती है ...

राहुल said...

कितना त्रासद
कितना उदास ,प्रेम का रंग
अनब्याही भूख सा
---------------------
काफी गहरी रचना ... कई बार पढ़ना पड़ेगा ...

Suman said...

प्रकाशित तीनों सुन्दर रचनाओं के लिए बहुत बहुत बधाई !

Ramakant Singh said...

बहुत ही अद्भुत अंतर्चेतना को जागृत करती तीनो प्रकाशित कविताओं के लिए कोटिशः बधाई ...

मेरा मन पंछी सा said...

तीनो ही रचनाएँ बहुत ही बेहतरीन है..
गहरे भाव लिए....

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर रचनाएं

शुभकामनाएं

Manav Mehta 'मन' said...

behatreen...

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

तीनों कविताएँ बहुत गहन भाव लिए हुए, दिल को छूती हुईं....
कविताएँ प्रकाशित होने के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ...!:-)
~सादर!!!

Sanju said...

Nice post.....
Mere blog pr aapka swagat hai

Saras said...

कितना त्रासद
कितना उदास ,प्रेम का रंग
अनब्याही भूख सा
जहां तेवरों में ढह जाते हैं
आंतरिकता के शब्द
...कितनी बार ...न जाने कितनी बार हम तेवरों में खो देते हैं वह पल जिन्हें जीने के लिए न जाने कितने जन्म राह तकते हैं...

Tamasha-E-Zindagi said...

बेहद सुन्दर अभियक्ति | आभार |

Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

इन्हे पढ़कर अच्छा लगा.

Kailash Sharma said...

तीनों रचना ही बहुत प्रभावी और सशक्त...

कालीपद "प्रसाद" said...

बहुत प्रभावी तीनों सुन्दर रचनाओं के लिए बहुत बहुत बधाई !
latest post मोहन कुछ तो बोलो!
latest postक्षणिकाएँ

डॉ. मोनिका शर्मा said...

प्रभावी रचनाएँ.....गहरी अभिव्यक्ति

सदा said...

गहन भाव लिये ...तीनों रचनाएं बेहद सशक्‍त
प्रकाशन के लिये बधाई सहित शुभकामनाएँ

travel ufo said...

बधाई , आपकी कविताये आगे भी ऐसे ही छपती रहें

डॉ टी एस दराल said...

इन रचनाओं में गहरे भावों के साथ भाषा और शब्दों के ज्ञान की गहराई भी है।
बधाई।

ओंकारनाथ मिश्र said...



तीनो रचनाएँ उत्कृष्ट.


खुद से खुद को बचाने की खातिर
लड़ता है कवि ज़िन्दगी के
खतरनाक शब्दों से
जबकि प्रेम मुट्ठियों में बंद है
सच कपडे उतारे सामने खड़ा है
अपने हिस्से की सारी जमीन
खोद डालता है वह
खुद को शर्मसार होने से बचाने के लिए ....

कवि की परिस्थिति का सुन्दर चित्रण.

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति।

Onkar said...

बहुत प्रभावशाली रचनाएँ

रचना दीक्षित said...

बेहतरीन कवितायेँ और ब्लॉग का नया कलेवर बहुत सुंदर लगा. बधाई हीर जी.

Asha Joglekar said...

चलो इन मरे हुए शब्दों के विरुद्ध
खड़े कर दे हम बीज रूप में
मुस्कानों के फूल ..
और हंसी का कोई विकल्प रख दें ....

एक आस तो जगी है मन में यही जगायेगी आस्था जीवन में ।

Asha Joglekar said...

आपको प्रकाशन पर बहुत बधाई । तीनों कविताएं दर्दीली ।

sourabh sharma said...

इक चिड़िया तिनका लिए चहकती है
लेकिन स्वतंत्रता पंख फड़फड़ा रही है
बंद खिड़कियों के भीतर, मुक्ति की पीड़ा की सच्ची अभिव्यक्ति

अंजना said...

बहुत ही बढिया ।

Akhil said...

तीनों ही रचनाये कमाल की हैं ...मुझे खास तौर पर 'विकल्प' बहुत पसंद आई। बहुत बहुत बधाई आपको।

shalini rastogi said...

हीर जी ...तीनों ही रचनाएँ बेहद प्रभावशाली हैं ... बार बार पढ़ रही हूँ पर मन नहीं भरता ...

Unknown said...

सार्थक और सुंदर रचना .....
आप भी पधारो स्वागत है ...
http://pankajkrsah.blogspot.com

Dinesh pareek said...


सादर जन सधारण सुचना आपके सहयोग की जरुरत
साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )

Dinesh pareek said...


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Dinesh pareek said...


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Anju (Anu) Chaudhary said...

बहुत खूब

Naveen Mani Tripathi said...

apki rachanaye .....jitani tareef karu kam hogi ....bahut hi prabhavshali teeno rachanayen hai bilkul mn ko chhoone wali hain ...sadar aabhar Heer ji .

Holi pr hardik badhai ke sath hi blog pr amantrn sweekaren .