Saturday, February 18, 2012

झोपड़ियों का वेलेंटाइन ....

'दर्द की महक ' छप कर मेरे हाथों में है ....शुक्रिया 'हिंद-युग्म'...पुस्तक बहुत ही अच्छी बन पड़ी है ....इसमें आप सब की टिप्पणियाँ भी शामिल हैं ...पुस्तक अमृता-इमरोज़ जी को समर्पित है ...
विमोचन
दिल्ली २७ फरवरी प्रगति मैदान में लगे 'इंटर नैशनल पुस्तक मेले' में शाम पांच बजे ..इमरोज़ जी के हाथों .....
संभवत: हीर भी आये .....:))
पर आप सब आना न भूलियेगा ....सादर निमंत्रण है .....
(
अगर विमोचन के बारे आप विस्तार से जानना चाहते हैं तो फोन करें प्रकाशक शैलेश भारतवासी जी को ....उनका न. है ....९८७३७३४०४६,९९६८७५५९०८ )

और अब इक लम्बी कविता .....'' झोपड़ियों का वेलेंटाइन ''
झोंपड़ियों में वेलेंटाइन .....


झोपड़ियों का वेलेंटाइन ....


ओ...
आज के दिन
खोल दें
ये बूढी खिड़कियाँ
...

पैरों की फटी दरारें
गुजरे वक़्त के खुरदरे हाथ
आँखों की सिलवटें
और इनके नीचे
खोखले ,पोपले हुए चेहरों पर
रख दें अपने ...
ठन्डे जर्द होंठ ....

आओ याद करें
पीली सरसों के बीच
उड़ती धानी चुनर
धान की महकती बालियाँ
टेसू के दहकते फूल
जो कभी छाती में
चिडचिड़ाते थे आग ..

आओ....
इस धूल से सनी चादर
मैले-कुचैले चिथड़ों में ढूँढें
बाद -अज-शबाब
सुर्खरू गुलाब की हसीं पत्तियाँ
चूड़ियों की खन-खन
महावर की लाली
और लाल हो जायें ....

आओ आज के दिन
माज़ी के उलझे जालों से
चुन लायें ..
खुशगवार गुलाबी दिन
ढोती, हांफती,ढहती ज़िन्दगी में
साँस लेते खुशनुमा पल ...
जब नहीं बदलते थे पत्तियों के रंग
चंचल वर्षा की बूंदों में
उग आती थी सुर्ख धूप
नर्म सूखी घास में
सरसराती थी सांसें
धीरे-धीरे खींचती डोर में
कट जाती थीं पतंगे
भीतर कहीं बर्फ झड़ती
तो तुम झुककर
बंद कर देते थे किवाड़
अपने होंठों से ....

मिट्टी खोदते वक़्त
जब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता था व्याकरण....
धरती-आकाश, चाँद-तारे
पर्वत-नदियाँ,पेड़,हवाएं
फूल,भंवरे समूचा ब्रह्मांड
गाने लगता था
बसंत राग...


आओ....
इस क्षीण होती काया में
टुकड़े टुकड़े बाँट लें
ज़िन्दगी के रंग
प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी
प्रेम नहीं मुरझाता कभी
प्रेम नहीं झड़ता कभी
बस धुंधली होती रौशनी में
गुम जाते हैं कहीं शब्द
कहानियों के पन्नों में
दब जाते हैं कहीं हमारे चिन्ह
और मौत लिखती है ....
अज्ञात लिपि में
प्रेम का शोकगीत .....!!

55 comments:

shikha varshney said...

सच्ची कविता और प्रभावशाली हमेशा की तरह.
पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें.

केवल राम said...
This comment has been removed by the author.
रश्मि प्रभा... said...

यही है प्रेम .... जहाँ दिखावा नहीं बस प्रेम है
.....पुस्तक विमोचन पर शुभकामनायें...

हरकीरत ' हीर' said...

@@
" हीर " का आना लाजमी है ......हम तो दूर से ही पहचान लेंगे ...संभवतः हम भी वहीँ होंगे ....!

:))

केवल राम said...

@@ दर्द की महक ' छप कर मेरे हाथों में
यह दर्द की महक दिल से ......आपके हाथों तक कैसे पहुंची .....अब तो और भी महक आएगी ....दनिया दर्द के गीत गाएगी ...!
@@ संभवत: हीर भी आये .
" हीर " का आना लाजमी है ......हम तो दूर से ही पहचान लेंगे ...संभवतः हम भी वहीँ होंगे ....!

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

पदचिह्म भले ही दब जाएं, मिट तो नहीं सकते.. वो फिर उभरेंगे, बींज से पौधे की तरह !!!

केवल राम said...

मिट्टी खोदते वक़्त
जब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता हैं व्याकरण....

यह प्रेम का व्याकरण ना जाने कब अपने नियम बदल देता है पता ही नहीं चलता ...हर किसी के लिए यह अलग अलग है ....मेरी पहली टिप्पणी में कुछ खामियां रह गयी थी ....क्षमा प्रार्थी हूँ ...!

अरुण चन्द्र रॉय said...

पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

प्रेम के अनेक रंग, एक यह भी..

डॉ टी एस दराल said...

पहले तो पुस्तक प्रकाशन की बहुत बधाई ।
विमोचन की शुभ घड़ी भी समझो आई ।

दिल्ली का दिल तो अभी से धड़कने लगा है ।

असली वेलेंटाइन तो झोंपड़ियों में ही बसते हैं ।
फुरसत में लिखी सुन्दर रचना ।

रचना दीक्षित said...

ढेरों शुभकामनायें पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर. मुझे २७ को ही लखनऊ जाना है इसलिए विमोचन पर न पहुचने के लिये क्षमा चाहिती हूँ

इस्मत ज़ैदी said...

मिट्टी खोदते वक़्त
जब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता हैं व्याकरण....
धरती-आकाश, चाँद-तारे
पर्वत-नदियाँ,पेड़,हवाएं
फूल.भंवरे समूचा ब्रह्मांड
गाने लगता बसंत रा

behtareen !
jab sabhi log valentine day manane men busy hon aise men is andaz se sochna,,aap kee samvedansheelta ko darshata hai.

amit kumar srivastava said...

झोपड़ियां कोई भी हो ,दिलों की झोपडी महफूज़ रहे बस |
नए परचम की बधाई |

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

ख़ुशियों की जगह तय नहीं होती...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

ओय होय!

अब समझ में आया आपकी गैरमौजूदगी का मतलब।
यह तो बड़ी खुशी की खबर है। हम समझ रहे थे कि शैलश जी रोजी रोटी के चक्कर में साहित्य जगत से दूर चले गये। पिछले पुस्तक मेले की सभी यादें कौंध गईं। देखें इस बार क्या हो पाता है!

बहुत बहुत बहुत बधाई।

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रेम की स्पष्ट थाप गूँजती रहती है, सदियों, जब भी शोर कम होता है।

vidya said...

बहुत मुबारक...
जहाँ "दर्द की महक" है....इमरोज़ साहब होंगे...तो हीर का होना लाज़मी है...
वो तो हर सफ़हे..हर लफ्ज़ में हैं...
क्योकि-
प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी
प्रेम नहीं मुरझाता कभी
प्रेम नहीं झड़ता कभी

सादर नमन हीर जी..

ashish said...

आपकी कवितायेँ कल्पना लोक से बाहर लाकर यथार्थ के कठोर धरातल पर जीवन की पगडंडियों में ले जाती है. . पुस्तक प्रकाशन और विमोचन की कोटिशः बधाई .

वाणी गीत said...

इस क्षीण होती काया में
टुकड़े टुकड़े बाँट लें
ज़िन्दगी के रंग
प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी
प्रेम नहीं मुरझाता कभी
प्रेम नहीं झड़ता कभी
बस धुंधली होती रौशनी में
गुम जाते हैं कहीं शब्द ...

प्रेम तो हर रंग रूप में वही है ...
बेहतरीन !
शुभकामनायें !

Avinash Chandra said...

पुस्तक प्रकाश की ढेरों बधाइयाँ, कविता बहुत ही सुन्दर है।

मेरा मन पंछी सा said...

प्यार एक ऐसा अहसास है जो कही भी पनप सकता है
फिर चाहे वह झोपड़ी ही क्यों ना हो ..
बहुत ही बेहतरीन रचना...
पुस्तक प्रकाशन एवं विमोचन पर हार्दिक शुभकामनाए:-)

Avinash Chandra said...

प्रकाशन*

वृजेश सिंह said...

बहुत अच्छा लगा.प्रेम को उसकी विविधता और सहजता के साथ आपने अपनी कविता में अभिव्यक्ति दी है.

M VERMA said...

मिट्टी खोदते वक़्त
जब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता था व्याकरण....
जमीनी हकीकत से लबरेज भाव ...
और फिर हरकीरत और हकीकत में बहुत अंतर तो नहीं है न

vandana gupta said...

पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें.प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी प्रेम नहीं मुरझाता कभी प्रेम नहीं झड़ता कभी बस धुंधली होती रौशनी में गुम जाते हैं कहीं शब्द कहानियों के पन्नों में दब जाते हैं कहीं हमारे चिन्ह और मौत लिखती है .... अज्ञात लिपि में प्रेम का शोकगीत .....!……………प्रेम की परिभाषायें कब बदलती हैं।

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

प्रेम अपनी भाषा में
लिखता था व्याकरण....
धरती-आकाश, चाँद-तारे
पर्वत-नदियाँ,पेड़,हवाएं
फूल,भंवरे समूचा ब्रह्मांड
गाने लगता था
बसंत राग...
बहुत ही सुन्दर...
पुस्तक विमोचन की सादर शुभकामनाएं....

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

पुस्तक विमोचन के लिए बधाई उर शुभकामनायें ...

कविता में हकीकत बयान है ... यही सच्चा प्रेम है ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत बढ़िया प्रस्तुति
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी लगा रहा हूँ! सूचनार्थ!
--
महाशिवरात्रि की मंगलकामनाएँ स्वीकार करें।

rashmi ravija said...

बेहतरीन रचना..

पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें.

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

वाह!!!!!हरकीरत जी,बहुत अच्छी सुंदर रचना,...
पुस्तक के प्रकासन और विमोचन बहुत२ बधाई ..

MY NEW POST ...सम्बोधन...

Ramakant Singh said...

भीतर कहीं बर्फ झड़ती
तो तुम झुककर
बंद कर देते थे किवाड़
अपने होंठों से ....
EXPRESSION OF PAIN WITH LOVE
THROGH NICE LINES
THANKS

Dr.NISHA MAHARANA said...

आओ आज के दिन
माज़ी के उलझे जालों से
चुन लायें ..
खुशगवार गुलाबी दिन.waah...very nice.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आओ याद करें
पीली सरसों के बीच
उड़ती धानी चुनर
धान की महकती बालियाँ
टेसू के दहकते फूल
जो कभी छाती में
चिडचिड़ाते थे आग ..

तब तो प्रेम हवा में बसता था .... बहुत सुंदर

Madhuresh said...

प्रेम अपनी भाषा में
लिखता था व्याकरण....

सच्चे प्रेम पर सुन्दर अभिव्यक्ति,
बहुत शुभकामनाएं!

सादर

Rakesh Kumar said...

आओ....
इस क्षीण होती काया में
टुकड़े टुकड़े बाँट लें
ज़िन्दगी के रंग
प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी
प्रेम नहीं मुरझाता कभी
प्रेम नहीं झड़ता कभी

आपकी प्रस्तुति लाजबाब व अति भावपूर्ण है.
आपके पुस्तक प्रकाशन और विमोचन के
बारे में पढ़ा.मेरी भी बहुत बहुत बधाई आपको.

आपके 'ऊँ' उच्चारण की गूंज मेरे ब्लॉग पर आने लगी है.'मेरी बात...' पर कुछ अपनी कहियेगा हीर जी.

अशोक सलूजा said...

बहुत-बहुत मुबारक !
शुभकामनाएँ!

Saras said...

शब्दों की ताक़त को आज पहचाना ....एक एक शब्द गहन पीड़ा में डूबा ...एक एक अभिव्यक्ति ...चोट पर मरहम जैसी ....मेरा यह सफ़र बिलकुल नया है ....और मेरा लेखन शैशव अवस्था में....फिर भी अपनी प्रतिक्रिया देने से नहीं रोक पाई ....बहुत ही संवेदनशील रचना ....

Maheshwari kaneri said...

प्रेम तो प्रेम है वहाँ दिखावा कैसा..? हर्कीरत जी पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें....

सदा said...

आओ....
इस क्षीण होती काया में
टुकड़े टुकड़े बाँट लें
ज़िन्दगी के रंग
सच्‍चे शब्‍द ... जिन्‍दगी के रंग .. जिन्‍दगी के संग

हमेशा की तरह लाजवाब करती रचना ...

पुस्‍तक प्रकाशन एवं विमोचन पर आपको ढेर सारी बधाई ...

Shanti Garg said...

बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना,

दीपिका रानी said...

अच्छी कविता.. सच्ची कविता..दिल के ऐसे अल्फाज़ जो मौजूं भी हैं..

दीपिका रानी said...

पुस्तक के लिए शुभकामनाएं और बधाइयां :)

दिगम्बर नासवा said...

पुस्तक की बहुत बहुत बधाई ...
और कविता तो बेमिसाल है ... कुछ कहने लायक नहीं छोड़तीं आप ...

Asha Joglekar said...

गुम जाते हैं कहीं शब्द
कहानियों के पन्नों में
दब जाते हैं कहीं हमारे चिन्ह
और मौत लिखती है ....
अज्ञात लिपि में
प्रेम का शोकगीत .
इससे पहले कि यह हो आओ प्रेम की भाषा का व्याकरण समझ लें झोपडियों से ।

दर्द की महक के व्यापक होने पर बधाई ।

उपेन्द्र नाथ said...

हीर जी, दिल्ली से दूर होने के कारण उपस्थिति संभव तो नहीं है इसलिए बधाई यहीं स्वीकार करिये. पुस्तक विमोचन के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाये.

Sonroopa Vishal said...

काव्य कृति के विमोचन की हार्दिक बधाई.....

Onkar said...

prem ki sundar vyakhya ki aapne

सूत्रधार said...

पुस्‍तक विमोचन पर ...बधाई सहित शुभकामनाएं

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सुंदर एवं सार्थक दृष्टि।

------
..की-बोर्ड वाली औरतें।
मूस जी मुस्‍टंडा...

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

हार्दिक बधाई...शुभकामनाएँ!

मुझे ख़ुशी है कि मैं भी इस पुस्तक का एक छोटा-सा वैचारिक हिस्सा हूँ।

मैं पुस्तक ‘मेले’ में न जा सका, बल्कि ‘अकेले’ में आपके लिए दुआएँ करता रहा हूँ! दुआओं में कुछ तो असर होगा ही...!

Arvind kumar said...

मिट्टी खोदते वक़्त
जब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता था व्याकरण....
धरती-आकाश, चाँद-तारे
पर्वत-नदियाँ,पेड़,हवाएं
फूल,भंवरे समूचा ब्रह्मांड
गाने लगता था

बेहद खूबसूरत....
सादर

sandeep sharma said...

आओ आज के दिन
माज़ी के उलझे जालों से
चुन लायें ..
खुशगवार गुलाबी दिन
ढोती, हांफती,ढहती ज़िन्दगी में
साँस लेते खुशनुमा पल ...


बहुत ही खूबसूरत रचना...

ANULATA RAJ NAIR said...

आपकी तारीफ़ करूँ तो छोटा मुंह बड़ी बात होगी...

पुस्तक विमोचन पर बधाई एवं शुभकामनाएँ 'हीर' जी...

आपके स्नेह की आकांक्षा लिए-
अनु

ANULATA RAJ NAIR said...

आदरणीय हीर जी
आप सचमुच प्यारी हैं बहुत...
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए बहुत शुक्रिया.
मैंने आपको मेल किया है..वक्त मिले तो देखिएगा.
सादर.

RameshGhildiyal"Dhad" said...

Teri Khamoshi me kitna dard chhupa hai...teri khamoshi sunne ko hi wakt ruka hai...mai jane kab se dhoond raha tha tumko "HEER"
udta firta van-upvan me bankar "KEER"
..hriday ke atal gahraiyon se anekanek badhaiyaan aur saadar , sasneh sadhuwad....Atyant Umda aur bhawna pradhan sateek samiksha ...isse sundar , saarthak aur samarpit samiksha ho hi nahi sakti thi...aapko bhi sadhuwaad..