पिछले दिनों ओ बी ओ परिवार ने ऑनलाइन तरही मुशायरा किया ....एक मिसरा दिया गया था जिस पर सभी को ग़ज़ल मुकम्मल करनी थी ...मिसरा था ....
"मैं जानता हूँ जो वो, लिखेंगे जवाब में'' बह्र थी- बह्र मुजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ महजूफ
221-2121-1221-212
मिसरे में जहाँ पर मात्राओं को गिराकर पढ़ा गया है उसे लाल रंग से दर्शाया गया है.....
मुश्किल बह्र थी ....फिर भी हमने इसे बह्र में लिखने की कोशिश की ....
कितनी सफल रही हूँ आपको तय करना है ....सभी ग़ज़लगोओं इल्तिजा है मेरी खामियों को इंगित करें और बतायें कहाँ कैसे कमी रह गई है ....
ढूँढा जनम-जनम किये तुझ को चनाब में............
मत पूछ इश्क मेरा, रहा किस अजाब में
ढूँढा जनम-जनम किये , तुझ को चनाब में
है रब की ये इबादत, इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क जाने क्या, हैं पड़े जो हिसाब में
बेताब दिल है कितना,यह गाफिल है हुस्न भी
बैठे हैं जब से आ के , वो यूँ मेरे ख्वाब में
घबरा न यूँ ऐ दिल मिरे,ख़त की उडीक में
लब तो कहेंगे कुछ न, ये शर्मो -हिजाब में
तुझसे जो की मुहब्बत ,बदनाम हो गए
इक लफ्ज़ 'बेहया' है मिला जो खिताब में
है मर्जे-इश्क यह भी तो ऐसा है तिश्नगी का
अजाब -यातना, गाफ़िल- संज्ञाशून्य
हिजाब- संकोच,पर्दा , तश्नगी-प्यास , शबाब-सौन्दर्य
*******************************
(२)
"बहल जायेगा दिल बहलते बहलते "
१२२ १२२ १२२ १२२
फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
मेरे दिल के अरमां रहे रात जलते
रहे सब करवट पे करवट बदलते
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने
बहुत रोया है दिल दहलते- दहलते
लगी दिल की है जख्म जाता नहीं ये
बहल जाएगा दिल बहलते- बहलते
तड़प बेवफा मत जमाने की खातिर
चलें चल कहीं और टहलते -टहलते
अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
अभी जख्म खाने कई चलते-चलते
है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन
ये चढ़नी पड़ेगी , संभलते संभलते
ये ज़ीस्त अब उजाले से डरने लगी है
हुई शाम क्यूँ दिन के यूँ ढलते ढलते .
जवाब आया न तो मुहहब्बत क्या करते
बुझा दिल का आखिर दिया जलते जलते
न घबरा तिरी जीत ही 'हीर' होगी
वो पिघलेंगे इक दिन पिघलते पिघलते
"मैं जानता हूँ जो वो, लिखेंगे जवाब में'' बह्र थी- बह्र मुजारे मुसम्मन अखरब मक्फूफ़ महजूफ
221-2121-1221-212
मिसरे में जहाँ पर मात्राओं को गिराकर पढ़ा गया है उसे लाल रंग से दर्शाया गया है.....
मुश्किल बह्र थी ....फिर भी हमने इसे बह्र में लिखने की कोशिश की ....
कितनी सफल रही हूँ आपको तय करना है ....सभी ग़ज़लगोओं इल्तिजा है मेरी खामियों को इंगित करें और बतायें कहाँ कैसे कमी रह गई है ....
ढूँढा जनम-जनम किये तुझ को चनाब में............
मत पूछ इश्क मेरा, रहा किस अजाब में
ढूँढा जनम-जनम किये , तुझ को चनाब में
है रब की ये इबादत, इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क जाने क्या, हैं पड़े जो हिसाब में
बेताब दिल है कितना,यह गाफिल है हुस्न भी
बैठे हैं जब से आ के , वो यूँ मेरे ख्वाब में
'' मैं जानती हूँ जो वो, लिखेंगे जवाब में ''
गर पढ़ सको तो पढ़ लो,नजरों से दिल मिरा लब तो कहेंगे कुछ न, ये शर्मो -हिजाब में
तुझसे जो की मुहब्बत ,बदनाम हो गए
इक लफ्ज़ 'बेहया' है मिला जो खिताब में
बुझता नहीं बुझाए, किसी भी शबाब में
कोई गुलाब पड़ न रहे यूं किताब में
लो कह दिया है हम ने तो,तुम भी यह कह दो “हीर”
अजाब -यातना, गाफ़िल- संज्ञाशून्य
हिजाब- संकोच,पर्दा , तश्नगी-प्यास , शबाब-सौन्दर्य
*******************************
(२)
"बहल जायेगा दिल बहलते बहलते "
१२२ १२२ १२२ १२२
फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
(बह्र: मुतकारिब मुसम्मन सालिम)
रदीफ़ :- कुछ नहीं (गैर मुरद्दफ़)
काफिया :- अलते (चलते, टलते, मचलते, सँभलते, फिसलते आदि)
मेरे दिल के अरमां रहे रात जलते
रहे सब करवट पे करवट बदलते
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने
बहुत रोया है दिल दहलते- दहलते
लगी दिल की है जख्म जाता नहीं ये
बहल जाएगा दिल बहलते- बहलते
तड़प बेवफा मत जमाने की खातिर
चलें चल कहीं और टहलते -टहलते
अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
अभी जख्म खाने कई चलते-चलते
है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन
ये चढ़नी पड़ेगी , संभलते संभलते
ये ज़ीस्त अब उजाले से डरने लगी है
हुई शाम क्यूँ दिन के यूँ ढलते ढलते .
जवाब आया न तो मुहहब्बत क्या करते
बुझा दिल का आखिर दिया जलते जलते
न घबरा तिरी जीत ही 'हीर' होगी
वो पिघलेंगे इक दिन पिघलते पिघलते
67 comments:
लो कह दिया हमने 'हीर'तुम भी कह दो
दबा न रहे गुलाब , कोई फिर किताब में
bahot sunder likhi hain......
आपकी लेखनी दुबारा चल पड़ी..बहुत खुश हूँ मैं.
बेहद खूबसूरत गज़ल...
हर शेर लाजवाब.
सादर.
बहुत दिनों बाद वापसी हुई, लेकिन एक शानदार शाहकार के साथ...
तुझसे हुई मुहबत , बदनाम हो गए हम
आज लफ्ज़ 'बेहया' ,मिला है खिताब में
Khoob Kaha...Bahut hi Badhiya Gazal
तुझसे हुई मुहबत , बदनाम हो गए हम
आज लफ्ज़ 'बेहया' ,मिला है खिताब में ..
Gazal ki barikiyan to usdaad log jaane ... Ham to bas Anand le rahe hain in kamaal ke sheron ko ... Lajawab hain sabhi sher ... Subhan alla ...
अंतिम पंक्तियाँ तो खुद में
इंकलाबी तेवर समेटे हुए हैं
फिर कोई गुलाब
दबा न रहे किताब में.
अच्छा लगा लंबे इन्तजार के बाद आपकी नई ग़जल पढ़कर.
हीर जी! आदाब !!!!!!!
ऐसे-ऐसे अलफ़ाज़ स्तेमाल किये हैं कि लगता है कोई अरबी की टीचर जी आ गयी हैं. आपकी ग़ज़ल को किसी यूनीवर्सिटी के डीन के पास भेजनी पड़ेगी. फिलहाल 'दिलग्गी' को 'दिल्लगी' कर लें अन्यथा वो खफा हो जायेंगी. वो नहीं समझीं ! अरे वही ....वो कहते हैं न ! दिल लगी से दिल लगाया दिल लगी के घर गए दिल लगी मुख से न बोली दिल्लगी में मर गए .......जहाँ तक 'मुहबत' की बात है तो गज़ल में कैसे करते हैं मुझे नहीं पता हम तो मुहब्बत करते हैं......वो भी नॉन स्टॉप ......'
'मैं जानती हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में'
बेहद खूबसूरत गज़ल...
आद. कौशलेन्द्र जी ,
आदाब ....
''दिल्लगी'' ठीक कर दिया है ...रही 'मुहबत' की बात तो बह्र में लाने के लिए एक शब्द कम किया था ....
चलिए अब लाल घेरे में दे दिया है ...
वैसे ये कठिन शब्द हम 'इस्तेमाल' करते हैं सिर्फ काफिया मिलाने के लिए .... :))
पढ़ सको तो पढ़ लो,नजरों से दिल मिरा
कहेंगे ना लब ये ,कुछ शर्मो - हिज़ाब में
लो कह दिया हमने 'हीर'तुम भी कह दो
दबा न रहे गुलाब , कोई फिर किताब में
वाह ...बहुत खूब कहा है आपने ...
khoobsoorat khayaalaat,harkirat ji.
lekin,behr se blkul khaarij.is par aap ko tawajjo deni hogi
aur behr ke rukn jo aap ne diye hain,vo durust nahin;rukn yoon hain
221-2121-1221-212
बहुत बहुत शुक्रिया चरनजीत जी ....
रुक्न की वजह से ही सारी गड़बड़ हो गयी ....
अब...????
चलिए आप भी मदद कीजिये ....:))
गज़ल की बारीकियां नहीं जानती ..पर आपकी गज़ल का एक एक शेर मन में उतरता चला गया .. बहुत खूबसूरत गज़ल
हरकीरत जी,
नमस्ते.
मैं तो आपकी ग़ज़ल को पढ़कर आनंदित होता हूँ.... और अपने स्वभाव के अनुरूप छंद के साँचे को मन में जमा कर लेता हूँ.
मन के किन्हीं विचारों को ढालने में काम आयेगा.
रब की इबादत ये ,इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क क्या जाने,जो पड़े हिसाब में
बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है.
इस मिसरा के साथ पूर्णतय: न्याय किया है आपने .
बह्र वास्तव में बड़ी मुश्किल है .
मात्राएँ छोडिये , हम तो एक एक शे'र को पढ़कर आनंदित हो रहे हैं .
लग रहा है जैसे ब्लोगिंग पर फिर से बहार आ गई है .
बहुत शानदार ग़ज़ल के साथ वापसी पर स्वागत है .
अभी तो इतना भी , फिर आते हैं ज़वाब के साथ .
ग़ज़ल की इतनी गहन जानकारी तो हमे नहीं है की इस पर नुक्ताचीनी कर सकें पर हाँ ये ज़रूर कहेंगे की पढ़ने में ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी.......बहुत खूब|
कह दिया लो हमने 'हीर'तुम भी कह दो
पड़ा रहे न गुलाब , कोई फिर किताब में
उफ़ उफ़ उफ़ ..आप जब भी कहती हैं बस कमाल ही कहती हैं.
इस मिसरा के साथ पूर्णतय: न्याय किया है आपने .
बह्र वास्तव में बड़ी मुश्किल है .
मात्राएँ छोडिये , हम तो एक एक शे'र को पढ़कर आनंदित हो रहे हैं .
लग रहा है जैसे ब्लोगिंग पर फिर से बहार आ गई है .
बहुत शानदार ग़ज़ल के साथ वापसी पर स्वागत है .
अभी तो इतना भी , फिर आते हैं.
मैं जानता हूँ ...तीर चलाने में आप चूकने वाली नहीं हैं...मौक़ा भर मिलना चाहिए...... आखिर आपने भी 'इस्तेमाल' कर ही दिया एक तीर.
ज़नाबी जी ! आपसे एक और दरख्वास्त है...अभी जिस ट्रेक पर चल रही हैं उसी पर चलती रहिएगा .....अच्छा लगता है..... बेहर और रुक्न का क्या ...आहिस्ता-आहिस्ता सब ठीक हो जायेंगे.. :)))))))))))))
पढ़ सको तो पढ़ लो,नजरों से दिल मिरा
कहेंगे ना लब ये ,कुछ शर्मो - हिज़ाब में.excellent hir jee.
बेहद खूबसूरत गज़ल
कहाँ गायब थी इतने दिनों ....आई तो बहार लेकर ... ??????
बहुत खूब, प्रेम चरम ढूढ़ने लगता है..
आप आती कम है ,छा ज्यादा जाती हैं,
बहुत उम्दा....|
bahut khubsurat gajal, ek shandar aagaj
हरकीरत जी
बहुत दिनों बाद आपकी कोई रचना पढने को मिली है...मैं कोई उस्ताद नहीं हूँ लेकिन मुझे लगता है ये ग़ज़ल बहर में नहीं है... जैसे मतले को ही लें: -
ना पूछ/ रहा इश्क/ मिरा किस अ/ज़ाब में
2 2 1/ 1 2 2 1/ 1 2 2 1/ 2 1 2
ढूंढता/ तुझे रहा/ हर जनम च/नाब में
2 1 2/ 1 2 1 2/ 2 1 2 1/ 2 1 2
इसी तरह बाकी के शेर भी देखने पड़ेंगे...
नीरज
बेहतरीन गज़ल. हर शेर कमाल का.
आद नीरज जी ,
आदाब....
आपके कहेनुसार काफी-फेर बदल के साथ सुधार किया है ....
अब देखें और सुझाव दें .....
है रब की ये इबादत, इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क जाने क्या, है पड़े जो हिसाब में!
बहुत खूब!
waah...sundar gazal..
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ..... वाकई , एक एक शेर दिल तक उतर गया आपका, बस एक लफ़्ज ही मुँह से निकल पाया .... लाजवाब
तुझसे जो की मुहब्बत ,बदनाम हो गए
इक लफ्ज़ 'बेहया' है मिला जो खिताब में
बहुत सुन्दर.
हीर जी , बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल बन पड़ी है...
मात्रिक क्रम में सुधार भी अच्छा लग रहा है ।
हम तो दो दिन लगे रहे हिसाब में
कुछ भी ना लिख पाए ज़वाब में ।
ग़ज़ल के शे'र हैं ही इतने असरदार ।
अब तो राजेन्द्र जी का ही आसरा है ।
शायद वही कुछ लिख पाएं । :)
है रब की ये इबादत, इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क जाने क्या, है पड़े जो हिसाब में
बेताब दिल है कितना,यह गाफिल है हुस्न भी
बैठे हैं जब से आ के , वो यूँ मेरे ख्वाब म
Vah heer ji kya khoob likha hai apne ......vakai lajabab.....ak betareen prastuti ke liye badhai sweekaren ....hr sher lajabab hai.....apke blog pr aakar anubhutiyon ko pankh mil gaye ...ak bar fir se badhai.
वाह ..वाह..
है रब की ये इबादत, इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क जाने क्या, है पड़े जो हिसाब में
इन पंक्तियों ने दिल को छू लिया..बहुत सुन्दर.
हर एक शेर दिल को छू गया.शब्द नही ढूंढ पा रहा क्या कहूं.....अद्भुत
है रब की ये इबादत, इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क जाने क्या, है पड़े जो हिसाब में.
आज फिजां कुछ बदली बदली सी हैं. गज़ल की शल्यक्रिया तो ज्ञानी लोग करेंगे, हम तो अदाओं और मोहब्बत के कायल हैं. लाजवाब.
गुलाब के किताब से बाहर आने का स्वागत है।
तुझसे जो की मुहब्बत ,बदनाम हो गए
इक लफ्ज़ 'बेहया' है मिला जो खिताब में
waah harkeerat , nazm to sunder likhti ho hi , pehli baar ghazal padhi hai , bahut achhi hai ,
tujhse jo ki muhabbat , badnaam ho gaye
Ik behaya sa lafz mila hai khitaab mein
kaisa rahega ? sab sujhav de rahe hain to , gustaakhi maaf :)
hari jee bahut sunder rachna hain
बहुत सुन्दर और सार्थक सृजन, बधाई.
.
कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर भी पधारकर अपना स्नेहाशीष प्रदान करें, आभारी होऊंगा.
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल, हर शेर अपने आप में बेहतरीन है.
आभार :-)
है मर्जे-इश्क यह भी तो ऐसा है तिश्नगी का
बुझता नहीं बुझाए, किसी भी शबाब में
bhut umda gajal ..abhar...
. kuch tumne likha kuch hum ne likha kuch tum ne pada kuch hum ne pada
dil ka dard to hota hi hi chupane ke liye jo na aap chupa sake na ye hum se mumkin hua ................?
है मर्जे-इश्क यह भी तो ऐसा है तिश्नगी का
बुझता नहीं बुझाए, किसी भी शबाब में
bhut umda gajal ..abhar...
. kuch tumne likha kuch hum ne likha kuch tum ne pada kuch hum ne pada
dil ka dard to hota hi hi chupane ke liye jo na aap chupa sake na ye hum se mumkin hua ................?
वो इश्क जाने क्या, हैं पड़े जो हिसाब में
बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने... बारीकियों का तो मुझे कुछ पता नहीं... लेकिन पढ़ कर अच्छा लगा... मन को सुकून देती हुयी सी ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
गर पढ़ सको तो पढ़ लो,नजरों से दिल मिरा
लब तो कहेंगे कुछ न, ये शर्मो -हिजाब में
तुझसे जो की मुहब्बत ,बदनाम हो गए
इक लफ्ज़ 'बेहया' है मिला जो खिताब में
hr sher dil me jagah banata hua .......socha tha ki ak hi comment kafi hai pr kya karun apne likha hi kuchh aisa hai....bar bar padhane ka mn karta hai ....aur hr shabd me jadu hai....
heer ji apne to etani bebaki se apni bat kah dali hai ....bilkul prany ke sitar ke har tar jhankrit ho uthe hain....Khuda apki lekhni ko aur jajbat bayan karne ki takat de.....vakai bahut hi jeevant prastuti ....hajar bar badhai
गज़ल बहुत अच्छी लगी !
बेहद खूबसूरत गज़ल| धन्यवाद।
गर पढ़ सको तो पढ़ लो,नजरों से दिल मिरा
लब तो कहेंगे कुछ न, ये शर्मो -हिजाब में
....लाज़वाब...बेहतरीन गज़ल ...हरेक शेर बहुत उम्दा..
आरदणीय हरकीरत हीर जी
मुझे गजल कहने की तमीज तो नहीं है परन्तु आपके द्वारा लिखे गये शब्दों के पढकर सचमुच भाव विभोर हो गया हेूं
आप पुनः ब्लाग पर दिखीं इसकी हार्दिक प्रसन्न्ता है
इस बेहतरीन गजल के लिये बधाई स्वीकार करें
सादर
अशोक कुमार शुक्ला ...
The gazel is very nice and very touching and I heartily appreciate it for its feelings but it still requires some modifications to fit the metre (chhand)
हीर जी बहुत दिनों के बाद फिर से ब्लॉग पढने लिखने का समय मिला है आपके घर आई तो इस खूबसूरत गज़ल से मुलाकात हुई ।
है रब की ये इबादत, इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क जाने क्या, हैं पड़े जो हिसाब में ।
एक से एक नगीने शेर हैं आपकी गज़ल में पर ऊपर वाला बहुत भाया ।
हमे तो हर शेर दिल के करीब लगता है
बहर और रुकन लगे हड्डी कबाब में
कलम "हीर "की ,रूह से इत्तला कराती है
छंद और मात्राये लिखी जाती किताब में
अरे वाह मै शायर तो नहीं मगर ---
लाजबाब प्रस्तुति !
बहुत अच्च्छा लगा !
आभार!
bahut hi sundar gazal hai,bdhai aap ko
गौ वंश रक्षा मंच:
gauvanshrakshamanch.blogspot.com
par aap saadar aamntrit hai ...shukriya
प्रत्युत्तर दें
खूबसूरज अल्फाज़, दिलकश अंदाज़। बस यही कि लिखा कीजिए, आपको पढ़ना अच्छा लगता है।
रब की इबादत ये ,इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क क्या जाने,जो पड़े हिसाब में
बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है.बेहतरीन
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल... बेहतरीन.
वाह, बहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागवाह, बहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है ।..त है ।..
तुझसे जो की मुहब्बत ,बदनाम हो गए
इक लफ्ज़ 'बेहया' है मिला जो खिताब में
THE SOUND AND MELODY COME OUT
IN BEAUTIFUL LINES OF GAZAL.
THANKS.
है रब की ये इबादत, इसे कह न दिल्लगी
वो इश्क जाने क्या, हैं पड़े जो हिसाब में...
waah...HEER ji...aapki har baat dil se nikal kar dill chhoo jati hai...fir se umda..likha hai aapne...aapki kalm salamat rahe....
गर इंतज़ार ही लिखा मेरे नसीब में,
कोताही न कर एक पल ख़त ओ किताब में।
कुछ ज़लज़लों का जिक्र है कुछ हादसों के हाल
बस खैरियत की सांस है लुब्बेलुआब में।
किसी वजह से चुप हूं ..शायद जल्द बोल पड़ूं?
Post a Comment