(१)
पिछले दिनों इक काम वाली लड़की ने जो अपनी दास्ताँ सुनाई तो कलम खामोश न रह सकी .....
पहली नज़्म उसी के मनोभाव हैं ......दूसरी नज़्म अपना परिचय खुद देती है ....
वक़्त बदलता है ...परिवर्तन होते हैं मकानों की जगह अब बहुमंजिला इमारतें ली रही हैं ....
और ये इमारतें .....?
नाकामियों का सफ़र तय करते लोगों के काम आती हैं ....
सौतेली .....
अब तक मेरी ज़िन्दगी में
एक वही तो थी ....
जिसने मुझे
अपनी नज़र में बनाये रखा ...
रोज़ ज़िन्दगी के ...
आधे से ज्यादा कामों में मैं
उसकी सोच में बसी होती
कभी कपड़ों के ढेर में ...
कभी बर्तनों के अम्बार में ...
कभी चूल्हे की सिसकती आग में...
कभी उसकी दुखती पीठ पर
फिरती मेरी अँगुलियों में ...
तो कभी बिस्तर पर फैले
फटे कम्बल में से कंपकंपाती
ठण्ड में खनकती उसकी हँसी में
वह हर पल मेरे साथ होती .....
मेरी अपनी माँ तो .....
कबका जीना बंद कर चुकी थी .....!!
(२)
अनचाहा गर्भ ....
मद्धिम बूढी लालटेन
अँधेरे का सीना चीर
देखने का असफल प्रयास करती है
तम से आवृत कोई स्त्री ...
अपनी गोद से ...
कुछ ,धीमे से नीचे रखती है
और थके क़दमों से, लौट जाती है
अँधेरी रात लिखने लगती है
अनचाहे गर्भ का भविष्य ...
मन में एक साथ ...
कई चिताएं जलने लगती हैं .....!!
(३)
परिवर्तन .....
खुला दरवाजा
अधखुली खिड़कियाँ ...
उखड़ा पलस्तर ...
बरसों से कोई परिचित सी पदचाप
सुनने की आस में .....
इक पुराना जीर्ण, उपेक्षित सा मकां
आहिस्ता-आहिस्ता खंडहर हो गया है
शायद इसके गिरने के बाद यहाँ ....
एक बहुमंजिला इमारत बन जाये .....
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......!!
पिछले दिनों इक काम वाली लड़की ने जो अपनी दास्ताँ सुनाई तो कलम खामोश न रह सकी .....
पहली नज़्म उसी के मनोभाव हैं ......दूसरी नज़्म अपना परिचय खुद देती है ....
वक़्त बदलता है ...परिवर्तन होते हैं मकानों की जगह अब बहुमंजिला इमारतें ली रही हैं ....
और ये इमारतें .....?
नाकामियों का सफ़र तय करते लोगों के काम आती हैं ....
सौतेली .....
अब तक मेरी ज़िन्दगी में
एक वही तो थी ....
जिसने मुझे
अपनी नज़र में बनाये रखा ...
रोज़ ज़िन्दगी के ...
आधे से ज्यादा कामों में मैं
उसकी सोच में बसी होती
कभी कपड़ों के ढेर में ...
कभी बर्तनों के अम्बार में ...
कभी चूल्हे की सिसकती आग में...
कभी उसकी दुखती पीठ पर
फिरती मेरी अँगुलियों में ...
तो कभी बिस्तर पर फैले
फटे कम्बल में से कंपकंपाती
ठण्ड में खनकती उसकी हँसी में
वह हर पल मेरे साथ होती .....
मेरी अपनी माँ तो .....
कबका जीना बंद कर चुकी थी .....!!
(२)
अनचाहा गर्भ ....
मद्धिम बूढी लालटेन
अँधेरे का सीना चीर
देखने का असफल प्रयास करती है
तम से आवृत कोई स्त्री ...
अपनी गोद से ...
कुछ ,धीमे से नीचे रखती है
और थके क़दमों से, लौट जाती है
अँधेरी रात लिखने लगती है
अनचाहे गर्भ का भविष्य ...
मन में एक साथ ...
कई चिताएं जलने लगती हैं .....!!
(३)
परिवर्तन .....
खुला दरवाजा
अधखुली खिड़कियाँ ...
उखड़ा पलस्तर ...
बरसों से कोई परिचित सी पदचाप
सुनने की आस में .....
इक पुराना जीर्ण, उपेक्षित सा मकां
आहिस्ता-आहिस्ता खंडहर हो गया है
शायद इसके गिरने के बाद यहाँ ....
एक बहुमंजिला इमारत बन जाये .....
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......!!
86 comments:
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली .....
....ye pariwartan to nahi ho sakta...ye to puraatan vywstha ka ki ang dikhta hai ....very nice post...
doosra teesra kamaal hai
aur yeh bejod
मद्धिम बूढी लालटेन
अँधेरे का सीना चीर
देखने का असफल प्रयास करती है
तम से आवृत कोई स्त्री ...
अपनी गोद से ...
कुछ ,धीमे से नीचे रखती है
और थके क़दमों से, लौट जाती है
अँधेरी रात लिखने लगती है
अनचाहे गर्भ का भविष्य ...
मन में एक साथ ...
कई चिताएं जल उठी हैं .....!!
हीर जी ...
यह समोधन ही अद्भुत लगता है पहले तो मुझे ... :)
कपरिवर्तन, परपीड़ा और कुप्रथाएं सब पर तीखे कटाक्ष करने आसान है ..पर इन चीज़ों से उपजों दर्द को महसूस करना और कराना बड़ी बात है ..और यह बड़ी बातें आपकी तीनों नज्मों में मिलीं मुझे ...
सादर
आतिश
बहुत ही मर्मस्पर्शी तीनों रचनाएं..मन को छू लिया..आभार
ओह ये दर्द की दास्ताँ ...
हीर जी,
सारी नज्में बेहतरीन.....अनचाहा गर्भ.....सबसे अच्छी लगी.... एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा करती है....आखिर कब तक?...........बहुत खूब हीर जी
... bhaavpoorn rachanaayen !!!
मेरी अपनी माँ तो .....
कबका जीना बंद कर चुकी थी .....
मार्मिक ....
अँधेरी रात लिखने लगती है
अनचाहे गर्भ का भविष्य ...
मन में एक साथ ...
कई चिताएं जल उठी हैं .....!!
वीभत्स चित्रण ...एक नारी की मजबूरी का या समाज के डर का ...
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली .
ऊँची इमारतों की यह भी त्रासदी ....सारी रचनाएँ मन को झिंझोडती सी ...
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......
उफ़ ..डूब सा गया मन .
बहुत उम्दा रचनाएँ हैं सभी.
इन ऊँची होती जा रही इमारतों की नींव में कहीं इंसानियत दफ़न है ....
मार्मिक !
@ हीर जी....जज़्बात पर टिप्पणी का शुक्रिया ......हाँ जी वो टाइपिंग की ही गलती थी....एक बार फिर से आपका शुक्रिया|
"सौतेली " में पीड़ा और लाचारगी , मन को द्रवित कर गयी . "अनचाहा गर्भ " कलुषित समाज और विकृत मानसिकता पर पीड़ा दिल को छू गयी ."परिवर्तन" , अट्टालिकाए तो अपनी ऊँचाई पर इतराती ही रहेंगी , क्यू की वो नीचे नहीं देख सकती .
stri mann ko kitne sayane dhand se aapne apne shabd me peeroya......dhanya hain ham jo follow karte hain...........aur aisa kuchh padhne ko mil jata hai
abhar !~!!
.आज कुछ दर्द उठ रहा है
.................पंजाबन जादू
--
तीनो रचनायें बेजोड्……………हर क्षणिका एक कहानी कहती हुयी।
stri mann ko kitne sayane dhang se aapne apne shabd me peeroya hai ......dhanya hain ham jo follow karte hain...........aur aisa kuchh padhne ko mil jata hai
abhar !~!!
sabhi rachnaayen gahare dard chhipaaye hue...maarmik.
आदरणीय हीर जी
नमस्कार !
सारी नज्में बेहतरीन.....सारी रचनाएँ मन को झिंझोडती है
कित्ती सही बात लिखी न आपने..
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ...
यह पंक्तियां पढ़कर एक खामोशी सी छा जाती है ...गहन भाव लिये हुये सुन्दर शब्द रचना ।
ओह सौतेली मां तो सौतेली ही होती है ।
दूसरी और तीसरी से यही लगता है कि विकास की कीमत तो चुकानी पड़ती है ।
हरकीरत जी आपकी नज्में सीधे दिल पर असर करती हैं...ब्लॉग जगत में आप नज्मों की मलिका हैं...इन बेहतरीन नज्मों के लिए दाद कबूल करें...
नीरज
हृदय स्पर्शी रचना
man ko chhooti tino rachnaaye...
kunwar ji,
teeno rachnayen..
marmshparsi...
bhavpoorn...
ati sunder...
samaj aur zlndgi ki asundarta ko darshati hui....
अँधेरी रात लिखने लगती है
अनचाहे गर्भ का भविष्य ...
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
याद आ रहे हैं मुझे अपने शहर के अनाथालय।
बहुत बेहतरीन
रामराम.
dil ko bhigo kar rakh dene walee rachanae..........
jeevan ke ek aur pahloo se parichay kara gayee.aabhar
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली
दर्द को महसूस कर उसे वैसा ही शब्दों में उतार देने की गज़ब की क्षमता है , आप में...पाठक भी उस दर्द को करीब से महसूस करता है.
मन भावों को व्यक्त करती, तीन बेहतरीन कवितायें।
सभी नज़्में हृदय को स्पर्श करती हैं।
गहन अर्थों को समेटती हुई बेहतरीन रचनाएं।
हरकीरत जी, तीनों ही नज़्में बहुत अच्छी हैं...हमेशा की तरह.
अनचाहा गर्भ और परिवर्तन बहुत प्रभावित करने वाली हैं.
बेहद संवेदन शील !शुभकामनायें आपको !
अब तक मेरी ज़िन्दगी में
एक वही तो थी ....
जिसने मुझे
अपनी नज़र में बनाये रखा ...
रोज़ ज़िन्दगी के ...
आधे से ज्यादा कामों में मैं
उसकी सोच में बसी होती
कभी कपड़ों के ढेर में ...
कभी बर्तनों के अम्बार में ...
कभी चूल्हे की सिसकती आग में...
कभी उसकी दुखती पीठ पर
फिरती मेरी अँगुलियों में ...
तो कभी बिस्तर पर फैले
फटे कम्बल में से कंपकंपाती
ठण्ड में खनकती उसकी हँसी में
वह हर पल मेरे साथ होती .....
मेरी अपनी माँ तो .....
कबका जीना बंद कर चुकी थी .....!!
मार्मिक...
मर्मस्पर्शी रचनाएं, लाजवाब लेखन. तीनों ही क्षणिकाएं बहुत खास लगीं.
आपकी नज़्मों के बिम्ब जो कहते हैं
वही लिखा आपने प्रतिबिम्ब जो कहते हैं
सौतेली और अनचाहा गर्भ
मानव मन को झकझोर देने वाली रचनाएं हैं हरकीरत जी
बहुत ख़ूब !
भावना प्रधान तीनों रचनाएँ एक से बढ़कर एक हैं,दिल को छूने वाली हैं
हीर जी, तीनों रचना बहुत ही गहरे भावों से भरी हुई तथा मर्मस्पर्शी है.... सुंदर प्रस्तुति.
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......!!
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
कटु यथार्थ की अभिव्यक्ति .....तीनो रचनाओं में जीवन की सच्चाईयों को सामने लाया गया है ...बहुत आभार
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......!!
ओह ये दर्द की दास्ताँ
आप को पढ कर मन बेचेन हो ऊठता हे, बहुत मार्मिक कविताऎ. धन्यवाद
हीर जी ...क्या लिखूं निशब्द हूँ .....
तीनों ही रचनाएँ बेहतरीन हैं...... कमाल की प्रस्तुति......
कहाँ से इतनी स्वेदंनाएं लाती है और कहाँ जाकर उनके लिए शब्द खोजती हैं.....
६-८ पंक्तियों की कविता को सोचते रहता हूँ....
teenon hi nazmein bohot kamal hai heer ji....bohot hi zyaada touching hain....mann bhar aaya
आदरणीय हरकीरत जी,
आपकी कवितायें भावनाओं की संवेदना को स्वयं जीती हैं ! इतनी गहराई में डूब कर लिखना, जहाँ शब्दों के अर्थ-विम्ब आपके अनुसार अंकुरित होते हों ,सबके बस की बात नहीं है !
तीनो ही कवितायें संवेदना को प्राणवान करती हुई ब्लॉग जगत की गरिमा में श्रीवृद्धि कर रही हैं !
बहुत बहुत बधाई !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
हरकीरत जी, ये तीनों कविताएं गहरी मानवीय संवेदनाओं से भरी हुई हैं। इन कविताओं से आपके भीतर का कवि एक नया रूप लेता भी दिखाई देता है। बधाई !
बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
तीनों रचनाएं बेहतरीन.
देखन में छोटी लगें, वार करे गम्भीर. शुभकामनाएँ...
दर्द का स्वाद कुछः अलग हट कर.... तीनो कविताओं में छिपा औरत का दर्द भीतर घुलता चला जाता है....
खुला दरवाजा
अधखुली खिड़कियाँ ...
उखड़ा पलस्तर ...
बरसों से कोई परिचित सी पदचाप
सुनने की आस में .....
इक पुराना जीर्ण, उपेक्षित सा मकां
आहिस्ता-आहिस्ता खंडहर हो गया है
शायद इसके गिरने के बाद यहाँ ....
एक बहुमंजिला इमारत बन जाये .....
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......!!
aur main ungli se kathor zameen kuredne lagi hun
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......
बहुत उम्दा रचनाएँ हैं सभी.
खुला दरवाजा
अधखुली खिड़कियाँ ...
उखड़ा पलस्तर ...
बरसों से कोई परिचित सी पदचाप
सुनने की आस में .....
इक पुराना जीर्ण, उपेक्षित सा मकां
आहिस्ता-आहिस्ता खंडहर हो गया है
शायद इसके गिरने के बाद यहाँ ....
एक बहुमंजिला इमारत बन जाये .....
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......!!
...समाज में छुपे अंतहीन दर्द की गहरी परत को उघाडती आपकी रचनाएँ सीधे मर्म को छूती है ... ... आवरण में एक सनसनाती गूंज सी उठती है......
सुन्दर लिखती है आप, साधुवाद.
ਤ੍ਵਾਦਾ ਪੁੰਜਾਬੀ ਲੇਖ ਭੀ ਪਾਧਿਯਾ, ਸੁੰਦਰ ਲਾਗਿਯਾ ਸੀ, ਏਸ ਕਰਕੇ, ਰਬ ਮੇਹਾਰ੍ਬਾਨਿਯ ਬਕਸ਼ੇ ਤਵਾਦੀ ਕਲਮ ਨੂ,
ਮੈਨੂ ਪੁੰਜਾਬੀ ਕਾਮ ਆਂਦੀ ਹੈ, ਜੇ ਕੋਈ ਗਲਤੀ ਹੋਵੇ ਤੋਂ ਮਾਫ਼ ਕਰਨਾ,
Bahut-2 sunder post.
apko pdhkar suku miltan hai.
wah. bahut achcha likhtin hain aap.
1 में यह सही है न..!
कभी उसकी दुखती पीठ पर
फिरती मेरी अँगुलियों में ...
कहीं यह तो नहीं था..
कभी मेरी दुखती पीठ पर
फिरती उसकी अँगुलियों में ...
तीसरी बहुत ज्यादा पसंद आई,शुभकामनाएँ
शोभनम्
ek se badhkar ek kavitayen ma prasann ho gaya have a nice day
ek se badhkar ek kavitayen ma prasann ho gaya have a nice day
ek se badhkar ek kavitayen ma prasann ho gaya have a nice day
adbhut kavitayen hain man prasann hua
adbhut kavitayen hain man prasann hua
1 में यह सही है न..!
कभी उसकी दुखती पीठ पर
फिरती मेरी अँगुलियों में ...
कहीं यह तो नहीं था..
कभी मेरी दुखती पीठ पर
फिरती उसकी अँगुलियों में ...
नहीं देवेन्द्र जी ....
यहाँ एक लड़की अपनी सौतेली माँ का वर्णन कर रही है ....
वह अपनी सौतेली माँ की सोच में हमेशा इसलिए बसी रहती थी क्योंकि उसे लड़की से बर्तन ,कपडे ,घर की सफाई और अपनी पीठ मलवानी होती .....और उसे ओढने के लिए एक फटा कम्बल दिया जाता ....
उम्मीद है अब भाव स्पष्ट हो गए होंगे .....
बहुत ही मर्मस्पर्शी कवितायें,आज आपकी अभिव्यक्ति में एक चीज़ नोटिस में आई कि आपकी कविताओं की अन्तिम पंक्ति हज़ारों पंक्तियों से अकेले मुकबिला करने में सक्छम हैं, बधाई।
हरकीरत जी तीनो रचनाये उम्दा सभी मार्मिक और दिल को छूने वाली !
आपकी रचनाओ में जो दर्द है अकथनीय है!
हृदय को झकझोरती रचनाएं।
बहुत ही सुन्दर।
परिवर्तन! आप ने न जाने किस मनोभाव में ये लिखी है नहीं जानता, लेकिन मुझे मेरे मोनोभाव के साथ ये छू कर गुज़र गयी!
ati sundar...aur parivartan ne to man par chhaap chod di hai!
bahut hi achchha likha hai aapne
कुछ ,धीमे से नीचे रखती है
और थके क़दमों से, लौट जाती है
अँधेरी रात लिखने लगती है
अनचाहे गर्भ का भविष्य ...'
wah bahut achchha
Badhai ho
nice poem.
धन्यवाद।
मैंने पहले नहीं समझा था। समझा तो बहुत अच्छी लगी कविता।
अब तक मेरी ज़िन्दगी में
एक वही तो थी ....
जिसने मुझे
अपनी नज़र में बनाये रखा ...
रोज़ ज़िन्दगी के ...
आधे से ज्यादा कामों में मैं
उसकी सोच में बसी होती
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सौतेली शब्द को लेकर अच्छा प्रयोग
पांच लाख से भी जियादा लोग फायदा उठा चुके हैं
प्यारे मालिक के ये दो नाम हैं जो कोई भी इनको सच्चे दिल से 100 बार पढेगा।
मालिक उसको हर परेशानी से छुटकारा देगा और अपना सच्चा रास्ता
दिखा कर रहेगा। वो दो नाम यह हैं।
या हादी
(ऐ सच्चा रास्ता दिखाने वाले)
या रहीम
(ऐ हर परेशानी में दया करने वाले)
आइये हमारे ब्लॉग पर और पढ़िए एक छोटी सी पुस्तक
{आप की अमानत आपकी सेवा में}
इस पुस्तक को पढ़ कर
पांच लाख से भी जियादा लोग
फायदा उठा चुके हैं ब्लॉग का पता है aapkiamanat.blogspotcom
शायद स्त्री की त्रासदी है कि कदम कदम पर जीवन के हर पग वही दुख सहती है और पीडा के दंश सहती है कभी सौतेली माँ कभी सौतेली बेटी कभी अनचाहा गर्भ तो कभी पुरुष के शोषण और कभी औरत को औरत दुआरा ही छले जाने से। गहरे चिन्तन से उपजे भावों को आपने करीने से समेटा है अपनी तीनो रचनाओं मे। बहुत खूब। शुभकामनायें।
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली
...ਕਦੇ ਕਦੇ ਸੋਚਦਾ ਹਾਂ ,
...ਕਾਸ਼ ਨਾ ਬਣਦੀਆਂ ,
.....ਇਹ ਉੱਚੀਆਂ ਇਮਾਰਤਾਂ
.....ਕੱਚੇ ਕੋਠੇ ਨੂੰ ਲਿਪਦੀ ਮੇਰੀ ਮਾਂ
.....ਅਮਰ ਪਦਵੀ ਪਾ ਲੈਂਦੀ
ਕਿੰਨੀ ਕੁ ਸਿਫਤ ਕਰਾਂ ਤੁਹਾਡੀ ਤੇ ਤੁਹਾਡੀ ਕਲਮ ਦੀ ?
सौतेली कविता बहुत मार्मिक है । एक बच्ची के दुखों को पर्त-दर पर्त खोलती है । व्यथा का इतना यथार्थ परक चित्रण मन को मथ देता है । अन्य कविताएँ भी उत्तम हैं
बहुत सुंदर भाव भी और हां विषय भी...बेहद खूबसूरत रचना...
मैं अखबार उठा पढ़ने लगती हूँ ...
इक बहुमंजिला इमारत से कूदकर
इक स्त्री ने खुदकशी कर ली ......!!
मेरी अपनी माँ तो .....
कबका जीना बंद कर चुकी थी .....!!
पढते पढते जैसे कहीं रुकी सी रह गयी. आपको पढ़ना वाकई किस्मती होने जैसा है.
अनचाहा गर्भ ??? आपकी लेखनी ने कई कई शक्ल दे दी ! दर्द को साकार कर दी ! कितना सहज और कितना असहज ??? आभार !
सभी रचनाएँ बहुत उम्दा हैं मन को छू लिया.......आभार
.
suna tha ... aaj padha aur maun rah gaya
क्या बात लिखी है आपने आपका तहे दिल से शुक्रिया !
संवेदनशील कविता !
अब तक मेरी ज़िन्दगी में
एक वही तो थी ....
जिसने मुझे
अपनी नज़र में बनाये रखा ...
मेरी अपनी माँ तो .....
कबका जीना बंद कर चुकी थी .....!!
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