न जाने क्यों नफरत के बीज से छाती पे उगते जा रहे हैं...आँखें मोहब्बत की खोज में किसी टूटे सिरे की पनाह में हैं ...कई बार गांठे लगा चुकी हूँ ....कच्चे धागे की पकड़ पता नहीं और कितनी दूर साथ दे .... तभी अचानक किसी अज़ीज़ मित्र के ये अक्षर सामने आ खड़े होते हैं ...."कभी सूर्य चमकता है कभी बारिश हो जाती है लेकिन . . . इन्द्रधनुष बन जाने के लिये इन्ही दोनों की ज़रुरत होती है" ....मैं फिर अपना जमीर तलाशने लगती हूँ .....बीज एक-एक कर रुईं की मानिंद आसमां में विलीन हो जाते हैं .....मैं इन कच्चे धागों के साथ एक धागा और जोड़ देती हूँ फर्ज़ का.......
दुआ है रब्ब उस मित्र को इन्द्रधनुष के सातों रंग दे .....
(१)
दौड़ .....
ज़िन्दगी ....
इक न खत्म होनेवाली
दौड़ है .....
जड़ों के नीचे फिसलता है पानी
दरकती है ज़िस्म की ज़मीं
दूर कहीं परछइयां सी सिमटती हैं
प्यार-मोहब्बत का खेल
अनवरत चलता है
पृष्ठभूमि पर ......
हर सिम्त इक दुगंध सी फैली है
सीवर के खुले ढक्कन की सी
उफ्फ़......!
सांसों में इक तेज भभका
बड़बड़ाता सा घुस आया है
अधेड़नुमा भावुक सांसें
जीने के लिए ....
शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे .....!!
(२)
आत्म-हत्या ....
कुछ मुखौटों द्वारा
फेंके गए ....
सड़े -गले शब्दों का गोश्त
नग्न हो ....
वीभत्स भंगिमाओं के साथ
नृत्य करता रहा रातभर ...
और .......
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......!!
(३)
क़दमों के निशां ....
यहाँ कोई शज़र
दूर तलक साथ नहीं देता
सन्नाटे वाबस्ता
पलटते हैं पन्ने ....
लफ्ज़ दर्द के छींटे लिए
साँस लेने की कोशिश में
औंधे पड़े हैं ........
यहाँ .....
कोई आँख का मुरीद नहीं
लकीरें तिडकती हैं हाथों से
वक़्त अपना चेहरा
हाथों में लिए
झांकता है दरीचों से ...
चाँद खौफ़ का लिहाफ ओढ़े
सहमा सा खड़ा है ....
कोई समवेत चीखती आवाज़
यक-ब-यक खामोश हो जाती है
सफ़्हों पर .....
अय खुदा ....!
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!
Monday, November 15, 2010
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72 comments:
बहुत अच्छी प्रस्तुति .तीनों बहुत ही गहरे भावों से भरी हुई . आत्महत्या सोंचने की विवश कर देती है...
वाह !! बहुत खूब ... तीनों नज्मों ने निशब्द कर दिया .... बेहतरीन प्रस्तुति ... ' आत्मा हत्या ' बहुत पसंद आई ... शुभकामनाएं ...
‘मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!’
वक़्त की बेरहम आंधी सभी निशां मिटा देती है... यही है समय की निति और मनुष्य की नियति :(
शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे .....!!
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......!!
एक सिहरन है इन शब्दों में...
कोई आँख का मुरीद नहीं
लकीरें तिडकती हैं हाथों से
वक़्त अपना चेहरा
हाथों में लिए
झांकता है दरीचों से ...
ये तो बस कमाल है....बहुत ही जबरदस्त.
लिखने का आभार!
pahli nam ne stabdh kiya..dusri ne nishbd...!
‘मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!’
बेहतरीन हैं तीनों सी रचनाएँ
आत्महत्या ने निशब्द कर दिया .....
सुन्दर रचना.
अधेड़नुमा भावुक सांसें
जीने के लिए ....
शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे ...
कैसे लिख लेती हैं आप इतना गहरा?
शब्दों की इस जादूगरी में हम तो उलझकर रह जाते हैं हरकीरत जी
ज़िन्दगी...इक न ख़त्म होने वाली दौड़ है...
आत्महत्या...
और...
क़दमों के निशां...
सब कुछ जाना पहचाना...
फिर भी कितना अलग है आपका लेखन.
हरकिरत जी, आज फिर एक कमाल की प्रस्तुति...बहुत ही बढ़िया एवं संवेदना से परिपूर्ण क्षणिकाएँ...आभार
चाँद खौफ़ का लिहाफ ओढ़े
सहमा सा खड़ा है ....
कोई समवेद चीखती आवाज़
यक-ब-यक खामोश हो जाती है
सफ़्हों पर .....
अय खुदा ....!
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ....................................…हरकीरत जी, बहुत गहराई तक दिल को छू गयीं आपकी ये पंक्तियां----और फ़िर अद्भुत बिम्बों का प्रयोग---आपकी रचनाओं को अलग पहचान देते हैं।----------हेमन्त
अधेड़नुमा भावुक सांसें
जीने के लिए ....
शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे .....!!
कुछ मुखौटों द्वारा
फेंके गए ....
सड़े -गले शब्दों का गोश्त
नग्न हो ....
वीभत्स भंगिमाओं के साथ
नृत्य करता रहा रातभर ...
लफ्ज़ दर्द के छींटे लिए
साँस लेने की कोशिश में
औंधे पड़े हैं ........
हरकीरत जी,
अद्भुत सृजन है आपका...एक एक शब्द दिमाग को मचल देता है..आपके पाठक होने का अहसास भी संतुष्टि देता है..
तीनों रचनाएँ अच्छी हैं
अय खुदा ....!
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!
- विजय तिवारी ' किसलय'
कुछ मुखौटों द्वारा
फेंके गए ....
सड़े -गले शब्दों का गोश्त
नग्न हो ....
वीभत्स भंगिमाओं के साथ
नृत्य करता रहा रातभर ...
और .......
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......!!
जीवन के रंगमंच का कड़वा सच है..............
रचनाएँ अच्छी हैं
क़दमों के निशां ...........एक ख़ूबसूरत नज़्म
"सफ़्हों पर .....
अय खुदा ....!
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें .."
अच्छा लिखती हैं.
आप भी रहेंगी और आपके क़दमों के निशान भी रहेंगे.
वाह !! बहुत खूब ... तीनों नज्मों ने निशब्द कर दिया .... बेहतरीन प्रस्तुति
‘मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!’
आपके ब्लॉग में आकर बड़ा सुकून मिलता है...
याद नहीं किसकी पंक्तियाँ है, जो याद आ गयी आपको पढ़ते हुए...
"क़दमों के अमिट निशाँ हैं शिलाओं पर, मेरे...
सोचो कितना बोझ उठाये इन राहों से गुजरा हूँ."
आभार.
कमाल की अभिव्यक्ति।
...ऐसी नज़्मों ने ही मुझे आपका फालोवर बना दिया था।...बधाई।
वितृष्णा और उदासी से भरी नज्में ...
मगर ..
ये भी जीवन का एक पहलू है ही ...!
जीवन के तीन अंगों की अभिव्यक्ति। विचारमयी, प्रवाहमयी।
वाह क्या खुबसूरत रचना लिखी है हरकीरत जी...
सोचने पर विवश करती रचनायें....
काफी गहरा लेखन...
यूँ ही लिखती रहे..
अपनी शर्म धोने अब कहाँ जायेंगे ??? ...
ज़िन्दगी ....
इक न खत्म होनेवाली
दौड़ है .....
जड़ों के नीचे फिसलता है पानी
दरकती है ज़िस्म की ज़मीं
आपके शब्द तो हमेशा चुप करा देते हैं.....इतने गहरे अहसास और उनसे उपजे भावों को कुशलता से पिरो देना...आपके वश की ही बात है...
khatm na hone wali jindagi kee daur.........ne dil ko chhoo liya.......harkeerat jee!!
apke soch ko salam!!
‘मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!
हमेशा की तरह सुन्दर शब्दों का संगम ....।
हर नज़्म ने स्तब्ध कर दिया है ...कदमों के निशाँ बहुत अच्छी लगी ....शब्दों को ऐसे संजोया है कि बार बार पढने का मन होता है ...
फ़िर् से दिल के दर्द को ख़ूबसूरती से शब्दों में पिरोया है ...
हीर जी,
आपके लिए जितना भी कहा जाये कम है....सिर्फ आपके ब्लॉग पर ही ये होता है मेरे साथ मेरे पास कहने को लफ्ज़ नहीं होते......अब चाहे बात बड़ी ही हो जाये पर मैं आपको गुलज़ार साहब के समकक्ष रखता हूँ .......कदमो के निशां....सुभानाल्लाह......सच है बहुत कम लोग ऐसे जीते हैं दुनिया में जिनके क़दमों के निशां पीछे छूटते हैं.......खुदा आपको ये तौफिक दे.......
आपकी उर्दू और आपके फन के लिए मेरे पास अंग्रेजी में ही शब्द बच रहा है .......hats off to you with standing ovation
हमेशा की लाजवाब करती आपकी रचनाएँ...कमाल की सोच और उतनी कमाल की शैली...वाह..
नीरज
ओढ कर ज़िन्दगी का कफ़न
दर्द मे भीगूँ और नज़्म बनूँ
अब इससे ज्यादा क्या कहूँ …………बस यही तो हरकीरात है।
zindgi ka kadwa sach....
lajawab bhavabhivyakti...
gahrayee ke charam ko samete...
nazme dil se nikalkar dilon tak pahunch rahi hain |
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......!!
बहुत खूब.....
इंसानी जज्बातों को जिस प्रकार आपने शब्दों में पिरोया है... हमारे लिए निशब्द.......
"शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे .....!!"...
....और .......
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......
....चाँद खौफ़ का लिहाफ ओढ़े
सहमा सा खड़ा है ....
कोई समवेद चीखती आवाज़
यक-ब-यक खामोश हो जाती है
सफ़्हों पर .....
तीनो कवितायें बेहतरीन .. विम्बो के माध्यम से आधुनिक जीवन के उलझनों कोअभिव्यक्त किया गया है..
‘मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!’
तारीफ़ के लिए शब्द कम पड़ जाएँ.बेमिसाल और लाजवाब लेखन के लिए बधाई.
मै पहली बार आया हूँ आपके दर पर . लेकिन कुछ ले के जा रहा हूँ , अब ये नहीं बता सकता क्या , लेकिन वो है नज्मो के प्रति अपने मन में अनुराग की एक बूंद जो शायद बार बार यहाँ आने पर सागर में बदल जाए . ज्यादा शब्द नहीं है मेरे पास इतनी खूबसूरत नज्मो को देने के लिए .,आभार
एक और बेहद उम्दा प्रस्तुती. आभार.
phir ek baar bemisal prastuti. aapko padkar me nishabd ho jata hu. aisa lagta hai kuch kahna chand ko chune ke saman hai. bus itna kahna chahunga ki aapki to baat hi juda hai neeche aap aur upar khuda hai.
कुछ मुखौटों द्वारा
फेंके गए ....
सड़े -गले शब्दों का गोश्त
नग्न हो ....
वीभत्स भंगिमाओं के साथ
नृत्य करता रहा रातभर ...
और .......
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......!!
वाह इन पंक्तियों ने तो मन मोह लिया....
टिपण्णी करना तो चाहता हूँ पर शब्द साथ छोड़ जाते हैं और कहते हैं की हममे इतनी सामर्थ्य नहीं की हम इस ब्लॉग के किसी भी पोस्ट पर कुछ कह सकें अतः मेरी शुभकामनायें स्वीकार करें.......
विनम्र अनुरोध है की मेरे ब्लॉग में आकर मार्गदर्शन प्रदान करें :-
http://gouravkikalamse.blogspot.com/
&
http://bhartiyagourav2222.blogspot.com/
धन्यवाद.
बहुत सुंदर लिखती हैं आप ! कदमो के निशान तो होने ही चाहिए !सब कहने के लिए क्योकि शरीर तो नश्वर है ! आभार !
बेहतरीन हैं तीनों सी रचनाएँ, कमाल की सोच शुभकामनाएं ..
सफ़्हों पर .....
अय खुदा ....!
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!
हीर जी, आपके कदमों के निशां भी रहेंगे और आपका लिखा भी रहेगा… आप जो लिख रही हैं वो इतनी आसानी से मिटने वाला नहीं है…
हरकीरत जी आपकी रचनाओ मे बहुत सारी बातो बहुत से दर्दो का समावेश है एक बार नहीं कई बार इन रचनाओ को पढने की इच्छा की हर बार कुछ नया पन लगा!
तीनों रचनाएँ खूब बन पड़ी हैं..
दौड तो जाने ज़िंदगी का ही खाका खींचती सी दिखती है.. जिस्म दरकता है ...
खूब
मनोज खत्री
---
यूनिवर्सिटी का टीचर'स हॉस्टल -३
बहुत खूब ...
क़दमों के निशां .....सुन्दर रचना !!
हरकीरत जी आप सच मे उत्कृष्ट शब्द शिल्पी हैं। अपने शब्दों का जाल ऐसे बुनती हैं कि इन्सान चाह कर भी उनके चक्रव्यूह से निकलना नही चाहता। दिल चाहता है पढी जाओ बस। अन्तहीन संवेदनाये नये नये बिम्ब
लफ्ज़ दर्द के छींटे लिए
साँस लेने की कोशिश में
औंधे पड़े हैं ........
यहाँ .....
कोई आँख का मुरीद नहीं
लकीरें तिडकती हैं हाथों से
वक़्त अपना चेहरा
हाथों में लिए
झांकता है दरीचों से ...
वाह लाजवाब। बधाई आपको।
... बेहतरीन !!!
7/10
बेहतरीन नज्मों की सौगात
'आत्महत्या' नज़्म वजूद को झकझोर देने में सक्षम है. आपके बारे में ज्यादा नहीं मालुम लेकिन पिछली नज्मों को पढने के बाद कह सकता हूँ कि आप अब एक पुस्तक (नज़्म संकलन) निकाल सकती हैं.
ऍहांaद ख़ौफ़ का लिहाफ़ ओढे सहमा सा खड़ा है।
quite appealing, congrats.
कमाल का लिखते हैं आप ,तीनो नज्में अपने असर का पानी रूह की जड़ों तक पहुंचाती हैं !
मुबारक हो आपको !
उस्ताद जी ,
आप सब की दुआ से जल्द ही मेरा दूसरा संकलन शाया होने जा रहा है .....
जिसका प्रकाशन हिंद-युग्म कर रहा है......
उम्मीद है दिसम्बर तक ये आपके हाथों में होगा .....
umda bhvnaon ko sahejti kavitayen badhai
लफ्ज़ दर्द के छींटे लिए
साँस लेने की कोशिश में
औंधे पड़े हैं ........
XXXXXXXXXXXX
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!
जीवन भी क्या विरोधाभास है ? और इस जीवन में हमारे अनुभूत सत्य को जीवंत कर दिया है आपने ...लाजबाब प्रस्तुति
हार्दिक शुभकामनायें
पृष्ठभूमि के परिवर्तन ने चारों तरफ प्रकाश किया है .शुभ दीपावली..
आपकी नज्म हमेशा से ही बुनावट का नया ईजाद लेकर आती हैं..
इस बार भी कुछ चीजों से आंख नहीं हट रही ..
प्यार-मोहब्बत का खेल
अनवरत चलता है
पृष्ठभूमि पर ......
ज़िन्दगी ....
इक न खत्म होनेवाली
दौड़ है .....
अधेड़नुमा भावुक सांसें
जीने के लिए ....
शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे .....!!
सड़े -गले शब्दों का गोश्त
नग्न हो ....
वीभत्स भंगिमाओं के साथ
नृत्य करता रहा रातभर ...
यहाँ कोई शज़र
दूर तलक साथ नहीं देता
लफ्ज़ दर्द के छींटे लिए
साँस लेने की कोशिश में
औंधे पड़े हैं ........
चाँद खौफ़ का लिहाफ ओढ़े
सहमा सा खड़ा है ....
कोई समवेत चीखती आवाज़
यक-ब-यक खामोश हो जाती है
सफ़्हों पर .....
हीरे की तरह हर सतर तराशी हुई है
दोनों संकलनों के नाम औ पते पहुंचाएं कृपया
As a sociologist i would like to say that only and only society is respocible or suicide.
i never saw the HEER but feel inside the HARKEERAT
with best regards
'pawan'
http://pachhuapawan.blogspot.com/2010/11/blog-post_17.html
kumar zahid जी , संकलन के लिए हिंद- युग्म के शैलेश जी से ही संपर्क करें ....
शीर्षक ..."दर्द की महक " ....
दिसम्बर के पुस्तक मेले में भी यह पुस्तक उलब्ध होगी .....
इसके साथ ही जितेन्द्र जौहर जी मेरे सम्पूर्ण साहित्य हर एक समीक्षात्मक पुस्तक लिख रहे हैं ....जो शीघ्र ही प्रकाशित होगी .....
behtreen pryogvadi kvita jise aapne apni chir prichit shaili me prstut kiya hai . ek ek shbd , kvita ka mrm ,apni sari smvedna ko bkhubi pathko tk phuchane me skshm hai .bhut khoob !
guruprv ki hardik bdhaai.
बहु अच्छी अभिव्यक्ति !
तीनों रचनाएँ मन को छूतीं हैं !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
कया कहूं..
हरकीरत जी बात चाहे आप वही कह रही हों जो हमारी जानी पहचानी हो पर लफ्जों की जादूगरी जो आपके पास है खुदा की नेमत है । यही देखिये
सफ़्हों पर .....
अय खुदा ....!
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!
और किसके निशां बचेंगे जी ।
अय खुदा ....!
मैं रहूँ न रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!
itni si khwaahish hai
kya kahun.. kuch alfaaz bahut kam hote hai kisi bhi rachna ki shreshthta ko aankhne ke liye ..
bahut accha likha hai kahna nazmo ke liye bahut kam aankna honga ..
isliye kuch na kahte hue aapki lekhni ko salaam karta hoon
aap hamesha hi bahut sundar kavitayen likhti hain.
क़दमों के निशां bahut pasand aayi.
nice ...
Shri Guru Nanak Dev ji de guru purab di lakh lakh vadhaian hoven ji
और .......
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......!!
बेहद खूबसूरत नज़्में. बेमिसाल
Harkirat ji apki teenon rachnayen bahut hi gehan anubhootion se bhari hain. Pad kar bahut achha laga.
geet me itnaaa dard mujhe bhaybheet karta hai....man se peeda chali jaye....
ashok chakradhar ne kaha hai kahi par...
CHEHRA SAAF KARNA HAI TO RO DO....SINCHAEE KE BAAD MUSKAAN BO DO..
SHUBHKAAMNA.
बहुत सुन्दर ...
बधाई ...
wah!! bahut hi khoob .
shabd kam lage nazmo ki prashansa me. badhai
आदरणीया हरकीरत 'हीर'जी!
स्नेहमयी हरकीरत 'हीर'जी !!
सुप्रिय हरकीरत 'हीर'जी !!!
आपकी पोस्ट्स पर कमेंट के वक़्त बहुत परीक्षा हो जाती है कई बार …
( मन से लिखे हुए को मन से पढ़ने की बुरी आदत जो है …)
क्योंकि कई बार आपकी कविताओं से भी अधिक आपकी भूमिका अंतर में ऐसी गहरी पैठ करती है कि कविता पर बात करने जितनी शक्ति-सामर्थ्य-ऊर्जा कुछ क्षणों के लिए क्षीण महसूस होने लगती है …
मैं इन कच्चे धागों के साथ एक धागा और जोड़ देती हूं फ़र्ज़ का ……
…और दरियादिली का ये आलम !
दुआ है रब्ब उस मित्र को इन्द्रधनुष के सातों रंग दे ……
नमन ! वंदन ! प्रणाम !
अय खुदा …!
मैं रहूं न रहूं
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें … … !!
हार्दिक शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
वक़्त अपना चेहरा
हाथों में लिए
झांकता है दरीचों से ...
चाँद खौफ़ का लिहाफ ओढ़े
सहमा सा खड़ा है ....
बढिया ...
अधेड़नुमा भावुक सांसें
जीने के लिए ....
शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे ....
वक़्त अपना चेहरा
हाथों में लिए
झांकता है दरीचों से ....
शब्दों को इतनी कलात्मकता से जोड़कर आपने जो माला बनायीं है, वह अद्भुत है.
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