पिछले दिनों ''हम सब साथ-साथ '' पत्रिका के संपादक किशोर श्रीवास्तव जी का sms आया ... जुलाई-अगस्त अंक के लिए रिश्ते -नातों पर केन्द्रिक रचनायें चाहिए ....उन्हीं दिनों ये नज़्म उतरी थी ....''आग की लपटों में जलते रिश्ते ''.....कुछ ऐसे वाकये आये दिन अख़बारों की सुर्खियाँ होते हैं जिन्हें पढ़ कर मन भीतर तक दहल जाता है ....ये रिश्ते सिर्फ खंडहर ही नहीं होते .....बल्कि अमानवीयता की आग में जलकर राख़ हो जाते हैं ..
...और हम सब दर्शक से ....मूक देखते रहते हैं सात जन्मों तक साथ निभाने वाले रिश्तों को ...चंद दिनों में दम तोड़ते हुए .....आग की लपटों में स्वाहा होते हुए ......
किशोर जी से मेरा परिचय पिछले वर्ष शिलोंग के एक साहित्यिक कार्यक्रम में हुआ था .....बहुत ही हसमुख और मिलनसार ....दो दिन के कार्यक्रम के बाद जब हम तीसरे दिन चेरापूंजी पर्यटन के लिए गए.... किशोर की ने अपने गीतों और चुटकुलों से यात्रा को रोमांचमय बना दिया ...बीच-बीच में वे मुझे टोक देते ....हरकीरत जी सिर्फ मुस्कुरा भर देती हैं कुछ सुनाइए भी .....वे बहुत अच्छे कार्टूनिस्ट भी हैं ......तो लीजिये पेश है उनके द्वारा मेल से भेजी मेरी रचना की स्केड प्रति ......
वह अंगुली पर थूक लगा
ज़िन्दगी के सारे पन्ने
एक ही बार पलट देती ...
कहानी शायद प्रेम के
उस छ्द्दमवेश से शुरू हुई थी
जहाँ सुब्ह की सडांध
और रात की दुर्गन्ध
धुआँ-धुआँ होते रिश्तों को
निर्ममता से क़त्ल कर
प्रतिवाद में खड़ी थी ........
एक सूखे उजाड़
क्वाटर की खिड़की से
वह अक्सर सामने के बगीचे को
एक तक निहारा करती .....
मेरी स्मृति में
आग की उलटी-सीधी लपटें
रिश्तों को धू-धू कर जलाने लगीं हैं
और चिंगारियों में ......
इक बेबस चीत्कार है .......
मेरी अँगुलियों में
कुछ नुकीली सी कीलें गड़ने लगी हैं
मैं अंगुलियाँ टटोल कर देखती हूँ
ज़िन्दगी के कितने ही
जहरीले कांटें गड़े हैं ....
आज फिर
आसमां से इक
आग का गोला गिरा है
और डाल गया है
कई छाले मेरे ज़िस्म पर .....
पैरों के नीचे रिश्ते
सूखे पत्ते से कसमसाने लगे हैं
कुछ सवाल हड्डियां चीरते हैं
कोई गिद्ध नोच खाती है
देह से मांस मेरा .....
इक तेल का कनस्तर
चीखों के साथ लगाता है
मृत्यु पर ठहाके .....
माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग
खिलखिलाकर बजाते हें तालियाँ ....
और मैं .....
किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को
देख रही हूँ....
जिनकी आत्माएँ कबकी
मर चुकी हैं .......!!
कृपया नज़्म को बड़ी करने के लिए तस्वीर पर दो बार क्लिक करें ......
इस नज़्म को आप मेरी आवाज़ में भी सुन सकते हें ....यहाँ........
...और हम सब दर्शक से ....मूक देखते रहते हैं सात जन्मों तक साथ निभाने वाले रिश्तों को ...चंद दिनों में दम तोड़ते हुए .....आग की लपटों में स्वाहा होते हुए ......
किशोर जी से मेरा परिचय पिछले वर्ष शिलोंग के एक साहित्यिक कार्यक्रम में हुआ था .....बहुत ही हसमुख और मिलनसार ....दो दिन के कार्यक्रम के बाद जब हम तीसरे दिन चेरापूंजी पर्यटन के लिए गए.... किशोर की ने अपने गीतों और चुटकुलों से यात्रा को रोमांचमय बना दिया ...बीच-बीच में वे मुझे टोक देते ....हरकीरत जी सिर्फ मुस्कुरा भर देती हैं कुछ सुनाइए भी .....वे बहुत अच्छे कार्टूनिस्ट भी हैं ......तो लीजिये पेश है उनके द्वारा मेल से भेजी मेरी रचना की स्केड प्रति ......
वह अंगुली पर थूक लगा
ज़िन्दगी के सारे पन्ने
एक ही बार पलट देती ...
कहानी शायद प्रेम के
उस छ्द्दमवेश से शुरू हुई थी
जहाँ सुब्ह की सडांध
और रात की दुर्गन्ध
धुआँ-धुआँ होते रिश्तों को
निर्ममता से क़त्ल कर
प्रतिवाद में खड़ी थी ........
एक सूखे उजाड़
क्वाटर की खिड़की से
वह अक्सर सामने के बगीचे को
एक तक निहारा करती .....
मेरी स्मृति में
आग की उलटी-सीधी लपटें
रिश्तों को धू-धू कर जलाने लगीं हैं
और चिंगारियों में ......
इक बेबस चीत्कार है .......
मेरी अँगुलियों में
कुछ नुकीली सी कीलें गड़ने लगी हैं
मैं अंगुलियाँ टटोल कर देखती हूँ
ज़िन्दगी के कितने ही
जहरीले कांटें गड़े हैं ....
आज फिर
आसमां से इक
आग का गोला गिरा है
और डाल गया है
कई छाले मेरे ज़िस्म पर .....
पैरों के नीचे रिश्ते
सूखे पत्ते से कसमसाने लगे हैं
कुछ सवाल हड्डियां चीरते हैं
कोई गिद्ध नोच खाती है
देह से मांस मेरा .....
इक तेल का कनस्तर
चीखों के साथ लगाता है
मृत्यु पर ठहाके .....
माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग
खिलखिलाकर बजाते हें तालियाँ ....
और मैं .....
किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को
देख रही हूँ....
जिनकी आत्माएँ कबकी
मर चुकी हैं .......!!
कृपया नज़्म को बड़ी करने के लिए तस्वीर पर दो बार क्लिक करें ......
इस नज़्म को आप मेरी आवाज़ में भी सुन सकते हें ....यहाँ........
74 comments:
कृपया नज़्म को बड़ी करने के लिए तस्वीर के ऊपर दो बार क्लिक कर लें ......!!
जिनकी आत्मायें मर चुकी होती हैं उनसे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है………………एक भयानक त्रासदी का सटीक चित्रण्………॥
रचना प्रकाशन पर बधाई
ढेर सारी शुभकामनाएं।
bahut badhiya lagi
Badhai ho
Jyada saaf nahi dikh rahi waise...par thodi mehna t ke baad kaam chal jata hai..
aur mehnat safal hoti hai :)
ye panktiyaan jindagi ka aaina hai!
jismein har kisi ka aks hai!!
aapko shubhkaamneyan!!
ये मात्र एक रचना नहीं...समाज की सच्चाई प्रस्तुत की है आपने।
दो बार क्लिक करने पर भी बड़ी मुश्किल से पढ़ पाए..लेकिन पढ़ कर पढने में की गयी महनत का प्रसाद मिल गया...अद्भुत रचना है...बधाई..
नीरज
मरी हुई आत्माएँ..बहुत शानदार रचना..
सोचने को विवश करती.
बहुत बधाई...
सटीक प्रस्तुति.... पढ़वाने के लिए शुर्क्रिया ....
वाह कितनी खूबसूरत रचना है
रचना साफ़ नहीं देख रही ..पर प्रकाशन पर ढेरों शुभकामनायें.
बहुत अच्छी नज्म लिखी है .
चित्र को सेव कर के पढ़ी गयी है.अन्यथा अक्षर साफ़ नहीं दिखाई दे रहे.पत्रिका में प्रकाशन पर बधाईयाँ .
किंकर्तव्यविमूढता की स्थिति भी आग की लपटों में जलने के समान ही होती है.
..बेहतरीन नज्म.
आह ! फिर इक दर्द सा उठा है
फिर किसी ने जख्म कुरेदे हैं ।
मानवीय पीड़ा को अभिव्यक्त करने में आपका ज़वाब नहीं ।
बहुत दर्दनात्मक सच को दर्शाती रचना ।
bahut bahut badhaai
आपको बहुत बहुत बधाई... मैं अब थोडा फ्री हो गया हूँ... अबसे रेगुलरली आऊंगा,..... उम्मीद करता हूँ कि आप ठीक होंगी...
प्रकाशन की बधाई...रचना बड़ी मुश्किल से पढ़ पायी...बिलकुल सटीक रचना
बहुत वेदना से भरी रचना ...........सच्चाई बयां करती......
पधने मै बहुत कठिनाई होती है, लेकिन बहुत सुंदर लगी आप की यह रचना.कृप्या लेख का रंग बदल दे ओर फ़ंट थोडे बडे कर दे तो आप की मेहरबानी होगी.
धन्यवाद... अरे बधाई तो ले ले...आप को बहुत बहुत बधाई प्रकाशन पर जी
राज़ जी ,
इसके फॉण्ट तो बड़े नहीं हो सकते ...कहें तो दोबारा फिर लिख दूँ .....?
वैसे कठिनाई से ही सही पढ़ तो हो जाती है .....!!
और रही प्रकाशन की बात तो कई रचनायें प्रकाशित होती रहती हैं ....ये इसलिए छापी की किशोर जी ने ऐसे ही मुझे मेल कर दी थी .....सोचा उनका भी मान रह जायेगा .....!!
बहुत सुन्दर रचना. मगर मैने तो ठीक से पढी. कई बार क्लिक करने से फ़ॉन्ट भी बड़े हो गये.
बहुत मार्मिक.....पढ़ कर मन सिहर उठा.....
किंकर्तव्यविमूढ़-सा ही रह जाना पड़ता है कई बार ...
आज की नज़्म /कविता में कुछ अलग सा रंग है ...प्रेम से जुदा ...जिंदगी की कडवी हकीकत के करीब ...!
अक्सर होता यही है कि हम लोग भीड़ से उम्मीद लगा लेते हैं.
सच तो यह है कि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता
और विवेक तो होता ही नहीं है
बेहतर रचना
और हां... रचना को पढ़कर टिप्पणी कर रहा हूं
हा.. हा.. हा...
दिल ओ दिमाग़ को झिंझोड़ती हुई रचना
बहुत कुछ सोचने को विवश करती है ,
आप की नज़्में मन को स्पर्श करती हैं
बधाई
पैरों के नीचे रिश्ते,
सूखे पत्ते से कसमसाने लगे हैं,
गहराई लिये हुये हर शब्द, बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
इक तेल का कनस्तर
चीखों के साथ लगाता है
मृत्यु पर ठहाके .....
माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग
खिलखिलाकर बजाते हैं ताली ....
is hisse ki pratikatmkta ne rongte khade kar diye ...zabardast lagi kavita aap ki ..
बढिया रचना!
udwelit kartee rachnaa
मेरी अँगुलियों में
कुछ नुकीली सी कीलें गड़ने लगी हैं
मैं अंगुलियाँ टटोल कर देखती हूँ
ज़िन्दगी के कितने ही
जहरीले कांटें गड़े हैं ....
Rishte jahaan mahakti hava ka jhonka hain vaheen jahreele kaanton ki tarah jism mein gadi keelen bhi hain jo hamesha sard deti hain ...
Rachna rishton ke maayne khojti hai ...
खूबसूरत रचना...
प्रकाशन पर आप को बहुत बहुत बधाई....
बेहतरीन,संजीदा नज्म..
इसके प्रकाशन पर बधाई क़ुबूल किजिये.
@ वाणी गीत said...
किंकर्तव्यविमूढ़-सा ही रह जाना पड़ता है कई बार ...
आज की नज़्म /कविता में कुछ अलग सा रंग है ...प्रेम से जुदा ...जिंदगी की कडवी हकीकत के करीब ...!
वाणी जी ,
इस तरह की रचनायें अधिकतर पत्रिकाओं के लिए ही लिखती हूँ ........
ब्लॉग में नहीं डालती अक्सर .....आज डाल दी .....!!
हरकीरत जी...
आपके पास अमूल्य शब्दों का भंडार है.
रचना गहरा असर छोड़ने में सफल है.
Hi..
Nazmön ko teri jab bhi..
Padhte hain hum kabhi jo..
Ek dard aisa uthata..
Bheencha kisi ne dil ko..
Ek aag si utarti..,
seene main jaati jalti..
Ankhon main dard dekar..
Man bhav-vihal karti..
Bahut dard bhari rachna..hamesha ki tarah..
Deepak
माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग
खिलखिलाकर बजाते हैं ताली ....
in baignee rango ka jaadoo virla hai...inhe padhne fir fir aana padta hai.
dekha is baar aapne type bhi kar diya.
aisa likhne ka shukriya
behtareen
"और मैं किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को देखती हूँ
जिनकी आत्माएँ मर चुकी हैं .......!!"
आज संवेदनशील की होने की शायद नियति है
आभार
और मैं किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को देखती हूँ
जिनकी आत्माएँ मर चुकी हैं .......!!"
harkeerat jee..behadd marmik rachna..yahi samaaj ki sachhai hai. aur aapne ise bakhubi ujaagar kiya hai apne shabdon se.
badhai sweekar karen.
और मैं किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को देखती हूँ
जिनकी आत्माएँ मर चुकी हैं .......!!"
harkeerat jee..behadd marmik rachna..yahi samaaj ki sachhai hai. aur aapne ise bakhubi ujaagar kiya hai apne shabdon se.
badhai sweekar karen.
हरकीरतजी
आदाब !
नमस्कार !!
सतश्रीअकाल !!!
प्रथमतः हार्दिक बधाई …
एक और विलक्षण काव्य रचना के लिए ।
…और , मैं बधाई देना चाहूंगा
हम सब साथ साथ पत्रिका के संपादकजी को !
हीरजी की रचना
किसी ब्लॉग पर ,
किसी पत्रिका ,
किसी संकलन में सम्मिलित है
तो उनके लिए भी गर्व और सम्मान की बात है ।
…पूरी रचना आद्योपांत हरकीरतजी की पहचान स्वयं है ।
और मैं किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को देखती हूँ
जिनकी आत्माएँ मर चुकी हैं .......!!
साधु साधु !
अस्सीम शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
bahoot khoob, maree huee aatmaon ke daur men halat ka behatareen aur sajeev chitran kiya hai aapne.
शुभम....
मार्मिकता की हद है यह तो॥
प्रस्तुत बिम्ब कितनी सजगता से उकेरे गए हैं...सुंदर
एक ह्रदय-स्पर्शी रचना के लिये बधाई....
आप को दूसरा अमुता प्रीतम कहना शुरु करना पड़ेगा। हर शब्द को दर्द से पिरो कर निकालती हैं। शब्दों से मर्म पर चोट करती हैं। पर रिश्ते नाते, भावनाओं को जो लोग नहीं समझते उनका क्या करें। न ही कभी समझे हैं वो लोग। न ही समझेंगे।
सुबह की सडांध / और रात की दुर्गन्ध / धुआँ-धुआँ होते रिश्तों को / निर्ममता से क़त्ल कर / प्रतिवाद में खड़ी थी ........ एक सूखे उजाड़ / क्वाटर की खिड़की से / .... ...... पैरों के नीचे रिश्ते / सूखे पत्ते से कसमसाने लगे हैं / कुछ सवाल हड्डियां चीरते हैं / कोई गिद्ध नोच खाती है / देह से मांस मेरा ..... इक तेल का कनस्तर / चीखों के साथ लगाता है / मृत्यु पर ठहाके ..... माचिश की तीली से उठते बैंगनी रंग / खिलखिलाकर बजाते हैं ताली ....
@ कमाल के बिम्ब. इन बिम्बों से एक अजीब से बीभत्स दृश्य को उकेर दिया है आपने, चित्रकारों, कार्टूनिस्टों को ही ये चित्रात्मकता नहीं भायेगी बल्कि प्रत्येक कल्पनाशील को आनंदित करेगी. यह कविता वीभत्स का अच्छा उदाहरण मानी जायेगी. हिंदी साहित्य में इस रस के अपेक्षाकृत कम उदाहरण हैं.
भावपूर्ण रचना ..
कार्टून भी अच्छा बन पडा है...
Behtareen.... jabardast..... iske siway aur kuchh kahna muhal hai. badhai.
पैरों के नीचे रिश्ते
सूखे पत्ते से कसमसाने लगे हैं
कुछ सवाल हड्डियां चीरते हैं
कोई गिद्ध नोच खाती है
देह से मांस मेरा .....
aaj ke rishto ki sahi vykhaya .
mnko udvelitkarti hue rachna
सचमुच अच्छी रचना है , अच्छा लगा इस पढ़कर
रिश्तों की आग को आपने बहुत करीब से महसूस किया है।
................
नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?
बहुत गहरे अहसास, लाजवाब!!! मार्मिक कविता. पर सत्य आज के समय का
बहुत खुबसूरत रचना ||
लाजवाब प्रस्तुती ........
sann kar dene vali kavit, sochane ko majboor karti hai.
दिन-ब-दिन बढ़ती गईं, उस हुस्न की रानाइयां
पहले गुल, फिर गुलबदन, फिर गुलबदाना हो गए
… … … … …
हीरजी !
क्या बात है !
पहले रचना की स्केड प्रति लगाना …
फिर , दोबारा लिखने की तक़्लीफ़ करना …
और ,
अब नज़्म को आपकी ख़ूबसूरत आवाज़ में भी सुनने का अवसर देना …
शुक्रिया !
लब ख़ामोश होना चाहते हैं ,
क्योंकि कान और दिल मुसलसल मशरूफ़ होना चाहते हैं ,
कुछ हसीन दर्द भरे एहसास के लिए …
कथ्य पढ़ूं , भाव चुनूं !
कुछ उधेड़ूं … कुछ बुनूं !
शब्दों की पीर गुनूं …!
अब स्वर का दर्द सुनूं !!
… … … … …
… … … … …
… … … … …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
एक सूखे उजाड़
क्वाटर की खिड़की से
वह अक्सर सामने के बगीचे को
एक तक निहारा करती .....
मेरी स्मृति में
आग की उलटी-सीधी लपटें
रिश्तों को धू-धू कर जलाने लगीं हैं
और चिंगारियों में ......
इक बेबस चीत्कार है .......
dil aur dimag pe gahri chhap chhod gayi ,aapki kalam ko salaam karti hoon .
आपकी आवाज में सुनना अद्भुत रहा!!
आपने तारीफ कर दी मेट्रो कविता की। बल्ले बल्ले हो गई जी। हम भी अब अपने सीना ठोक के कवि कहेगे।
पहले ही कितना कह दिया है सबों ने .अब और क्या कहूं ?
बस यह कि...........कविता की अनुभूति को आपकी आवाज़ , उदास ही सही , एक ऐसी गहराई दे जाती है कि वह दर्द मन को , ' हीर ' की पीर से सीधे दिल तक उतर जाने का सीधा रास्ता बता देती है .
शब्द बिना सुर साजों के ही वेदना के स्वर में पीड़ा को श्रृंगार दे गए.
अनुपम प्रयोग ......शब्द और स्वर का .
मेरी अँगुलियों में
कुछ नुकीली सी कीलें गड़ने लगी हैं
मैं अंगुलियाँ टटोल कर देखती हूँ
ज़िन्दगी के कितने ही
जहरीले कांटें गड़े हैं ....
जिंदगी,रिश्ते,प्रेम,नफ़रत हर बातों का बड़े ही सूक्ष्म लाइनों में पर प्रभावशाली वर्णन....हर एक नज़्म दिल को छू जाती है..
हरकिरत जी सुंदर रचना के लिए बधाई..
और मैं .....
किंकर्तव्य-विमूढ़ सी
सामने खड़ी भीड़ को
देख रही हूँ....
जिनकी आत्माएँ कबकी
मर चुकी हैं .......!!
बेहतरीन नज़्म है, बहुत मार्मिक!
बहुत दिनों से टूर पर था, इसलिए नहीं आ पाया था! माफ़ी!
हीर जी, मेरा बचपन तो राजस्थान में ही बीता है किस्मत यहाँ ले आई, बाकी विस्तार में कभी मिलने पर बताऊंगा!
बहुत खूब...स्वर और भावों का अनूठा संगम.
जितनी पीड़ा आपकी इस नज्म में है उसे आपने उतने ही भावपूर्ण स्वर में गाया भी है.
आपकी यह कविता तो मैंने भी देखी थी...बढ़िया है.
***********************
'पाखी की दुनिया' में आपका स्वागत है.
ऐसे रिश्तों का तो शायद जल जाना ही बेहतर होता है।
आपकी आवाज़ सुनी ।
सुनते ही रह गए ।
बहुत मधुर है ये ।
नज़्म से मेल खाती ।
जाने क्यों पाकीज़ा की मीना कुमारी याद आ गई ।
अभी राजेंद्र जी का गीत सुनकर आ रहे हैं ।
आज तो डबल ट्रीट हो गई ।
पहली बार आपको सुना ...गज़ब की कशिश और बेहतरीन भाव हैं आपकी इस रचना में ! सादर
पहली बार आपको सुना ...गज़ब की कशिश और बेहतरीन भाव हैं आपकी इस रचना में ! सादर
त्रासदी का मर्मस्पर्शी चित्रण ।
प्रशंसनीय ।
अच्छी रचना.....हीर जी ! रिश्ते नातों का मनोविज्ञान बहुत गहरे से समझती हैं आप !
मर्मस्पर्शी कविता।
………….
ये ब्लॉगर हैं वीर साहसी, इनको मेरा प्रणाम
सिर्फ आवाज में सुनने की खातिर आया था......निराश नहीं हुआ .....
सुन्दर भाव लिए क्षणिका |बधाई
आशा
कितना बढ़िया लिखती हैं आप.....शब्द कहां कहां से निकल आते हैं जेहन से सही में.....आप शब्दों की चितेरी और दर्द की चितेरी हैं..
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