पिछली बार की कुछ टिप्पणियों ने सोचने पर मजबूर किया ....क्या औरत को भूख के लिए सिर्फ एक निवाला रोटी भर चाहिए .....? या जीने के लिए एक चारदीवारी ....? जहाँ त्रासदियों का आँगन अपनी दास्ताँ लिखता रहे और चुप्पियाँ एक-एक कर अपनी चूडियाँ तोडती रहे ......? मेरी लेखनी सिर्फ मेरा निजी दर्द नहीं है बल्कि उन तमाम औरतों के लिए भी है जहाँ उन्हें ब्याहने के बाद थूक दिया जाता है ....या चिन दिया जाता है .....उसके पास जीने के लिए उनकी खुद की ज़मीन नहीं होती है .....पिता के घर के खनकते घुंघरू पति के घर आ एक-एक कर टूटने लगते हैं ... उन टूटते घुंघरुओं के साथ -साथ उसकी सांसे धीरे-धीरे कफ़न के नीचे का सुख तलाशने लगती हैं ....आज फिर जलते हुए कुछ सवाल हैं .....
शायद ये दर्द मेरी सांसों में है ....इसलिए सवाल उठाने वाले क्षमा करें .....
(पिछली पोस्ट पर व्यस्तता के कारण सभी की पोस्ट नहीं पढ़ पाई ......अन्यथा न लें ....)
(१)
त्रासदियाँ .....
ऐसे बहुत सारे सवाल
जो अक्सर टूटने के बाद
चुप्पियों में पनपने लगते हैं
किताबों में दर्ज हो
आत्मकथात्मक शैली में
लिख जाते हैं 'रशीदी टिकट' पर
त्रासदियों की दास्ताँ ....!!
(२)
जिद्दी धुनें ........
जीवन क्या है ...?
उलझनों का द्वन्द
एक चक्रवात घूमता है
तुम्हारे लफ़्ज़ों की थरथराती ज़मीं पर
जब भी मैं पैर रखती हूँ ....
तुम कहीं भीतर बहुत गहरे में
गर्त हो जाते हो .....
झूठ के भी पैर हुए हैं भला ....?
बस कुछ जिद्दी धुने बजने लगती हैं
बेवजह .........!!
(३)
प्रेम ......
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
(४)
सुलगते सवाल .....
तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!!
Tuesday, June 1, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
83 comments:
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
जब भी आपके ब्लॉग पर आते हैं, तो एक रूहानी सुकून मिलता है...
आपकी रचनाएँ.... जैसे सुलगते हुए मन से निकला धुँआ, आपकी रचनाओं पर टिप्पणी करना भी एक महाभारत है, अक्सर शब्द नहीं मिल पाते, बेहतरीन!
बड़े आवेश मेँ लिखी हैँ कविताएं अबकी बार! आवेग और आवेश मेँ सत्य तो प्रकट होता है मगर अनुभव छूट जाता है।साहित्यकारोँ मेँ लिँग भेद नहीँ होता और न उसका रचा निजि होता है।उसकी व्यष्टि,समष्टि होती है यानी उसका 'मैँ' 'हम' होता है।आपका प्राकथन और बाद मेँ कविताएं भी अच्छी हैँ। बधाई!
चारों रचनाएं बहुत अच्छी लगीं....
bahut dard de jati hai trasdi .
antrman tak bhedte ye sval ?
ab to jvab dene ka smy aa gya hai
charo rachna sashkt hai
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित ..
बहुत सुन्दर क्षणिकाएं हैं हरकीरत जी.
वो जो जिया जाता है...
वो जो देखा जाता है....
वो जो रात दिन विचार बनकर मन में उभर आता है....
वो किसी एक पल में शब्दों का रूप लेकर...
भावनाओं का प्रतिबिंब बन जाता है.....
और...जन्म होता है ऐसी नायाब रचना का...
जो प्रशंसा से अधिक...चिंतन चाहती है.
दग्ध और टूटे सवाल...जिन पर गौर किया जाना चाहिए ! हमेशा की तरह सार्थक क्षणिकाएँ ।
बहुत सुन्दर..!!
namaskar
kya khoob likhati hai aap.sach bahut achha lagata hai aapki rachnaye padhana. shubhkamnayen.
एक से बढ़कर एक ...सीधे दिल पर दस्तक देती हैं
..शायद ये दर्द मेरी सांसों में है ....इसलिए सवाल उठाने वाले क्षमा करें .....
..वाह! गुस्से में तो और भी...अच्छा लिखती हैं आप..! यह तेवर अच्छा लगा.
..
तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल..!
..बधाई.
..हाँ, कवि, परकाया प्रवेशी होता है. सारे जहाँ का दर्द महसूस करता है..और सवाल पूछता है..! यह हो सकता है कि उसका हल उसके पास न हो ..! यह हो सकता है कि वह ठीक वैसा ही न जिए जैसा लिखता है...! लेकिन वह महसूस करता है, सवाल उठाता है और समाधान भी रखने का प्रयास करता है, यह कम नहीं लगता मुझे. सभी महान आत्मा नहीं होते लेकिन महान आत्माओं के पनपने के लिए बंजर धरती में खाद-पानी देते रहना भी बड़ा काम है.
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
बहुत सुन्दर लिखा है।बधाई।
हरकिरत जी हमेशा की तरह सुंदर भावनाओं का प्रवाह..बढ़िया भाव को समेटते हुए एक सुंदर प्रस्तुति..बेहतरीन क्षणिकाएँ..बधाई स्वीकारें..
तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .
-गज़ब कर दिया...अद्भुत हैं सभी!!
आपके प्रयास से हिन्दी का प्रचार एवं प्रसार संभव होगा. कृपया प्रयास जारी रखें. साधुवाद!!
एक से बढ़कर एक ...सीधे दिल पर दस्तक देती हैं
हमेशा की तरह सार्थक क्षणिकाएँ ।
वाह .....harkeet जी गज़ब का लिखतीं हैं आप .......!!
मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है
क्या गरीब अब अपनी बेटी की शादी कर पायेगा ....!
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/2010/05/blog-post_6458.html
आप अपनी अनमोल प्रतिक्रियाओं से प्रोत्साहित कर हौसला बढाईयेगा
सादर ।
आपको पढ़ता हूं तो मुझे बरबस अमृता प्रीतम की याद आती है। वही अन्दाज.. बिल्कुल वही देशी शब्द और वही दर्द।
आपने अपने परिचय में लिखा है कि आपका कोई संग्रह भी है, यह किताब किसने छापी है। कहां से मिलेगी मुझे बताए.. मैं मंगवाकर पढ़ना चाहूंगा।
झूठ के भी पैर हुए हैं भला ....?
बस कुछ जिद्दी धुने बजने लगती हैं
बेवजह .........!!
ये जिद्दी धुने ही तो झूठ को पैर दे देते हैं
और फिर
सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!!
जमाना कौन सा जवाब देने को तैयार है
सुन्दर रचना
हरकीरत जी,
प्रेम ......
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
भावपूर्ण अभिव्यक्ति है ये लेकिन तमहीद में जो कुछ लिखा है आपने उस का भी जवाब नहीं
जहाँ त्रासदियों का आँगन अपनी दास्ताँ लिखता रहे और चुप्पियाँ एक-एक कर अपनी चूडियाँ तोडती रहे ......?
बहुत क़ीमती है ये जुमला ,
और अनगिनत घरों का सच भी,
पिता के घर के खनकते घुंघरू पति के घर आ एक-एक कर टूटने लगते हैं
क्या जुमला है!
बहुत बढ़िया ,
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
वाह कोई जवाब नहीं !!
पिता के घर के खनकते घुंघरू पति के घर आ एक-एक कर टूटने लगते हैं
बहुत गहरी गहरी बात है ,,,,
dil se likhi gai rachna
sakun deti hai ye rachna aap ki dil ko
bahut achha laga pad kar bahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/
कितने सवाल और होंगे अभी
कितने बवाल और होंगे अभी
मिट्टी गीली हैं मन की अभी
सुर्ख गुलाबी फूल खिलेंगे अभी
जब दर्द होता हैं न शब्दों में बयां
तो मुझसे तारीफ नहीं होती.......
आंसू मोती बन बरसते हैं आपकी कलम से
कभी कभी पूछता हूँ......दर्द क्यूँ हैं इतना???
कृपया बताएं आपके मोतियों की मालाएं कौन से प्रकाशन से छपी हैं
मैं दिल्ली में आपकी पुस्तकें कहाँ से प्राप्त कर सकता हूँ???
एक स्त्री के दर्द को मार्मिक ढंग से उकेरा है आपने.
लघु आकार की पृथक-पृथक रचनाओं में विषयगत एक्य का अद्भुत साम्य नज़र आता है.
बधाई स्वीकार करें.
हीरजी,
'सुलगते सवाल' बहुत सारे प्रश्नों का ईंधन बनकर अन्दर धधकने लगे हैं. चारों कड़ियाँ चार बरछे की तरह कलेजे में पैबस्त हुई हैं और उनसे भी रिसने लगे हैं ज़िंदा जलते सवाल !... उफ़ बेमिसाल !!
साभिवादन--आ.
aapki saari rachnayen bahut hi umda hoti hai........aur dil ko padhne se ek alag si tasalli milti hai........:)
aapki soch ko salam!!
hamara blog aapka wt kar raha hai:P
सादर !
क्या कहें! हम तो बस आप से सीखते हैं! टिप्पणी करना अभी मेरे बस का नहीं हैं !
रत्नेश त्रिपाठी
जीवन क्या है ...?
उलझनों का द्वन्द
एक चक्रवात घूमता है
तुम्हारे लफ़्ज़ों की थरथराती ज़मीं पर..
बहुत सटीक और सुन्दर अभिव्यक्ति....इंसान इसी चक्रवात में फंसा रहता है..
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
मुक्ति देने के लिए विसर्जन ....नया प्रयोग...
सभी क्षणिकाएं दिल को छूती हैं
ek ek kavita lajawaab...jalti lekhni se likhi lagti hain....bahut hi vicharottejak
दूसरी और तीसरी नोट कर ली गयी है. शुक्रिया
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
बहुत सुन्दर क्षणिकाएं हैं,,,मोहतरमा....आधी दुनिया की भावनाओं को प्रस्तुत करने का शुक्रिया...!
भावो का अथाह सागर उमड आया है...........स्त्री मनोदशा का बहुत ही सुन्दर चित्रण.
कदम दर कदम एहसास , पर यह एहसास हाथ पकड़ गया -
तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!!
बदकिस्मती से
अगर मैं मरने से बच गया
तो क्या तुम मुझे इंसान कहोगे? ....Exallent, laajabaab......
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
humesha ki tareh behatreen tevar mein likhi gayee rachna~
Hi..
Dard hi dikhta hamesha..
Nazm main teri sada..
Jindgi main dard ki..
Lagta rahi hai inteha..
Mera manna hai ki mahitayen eske liye swayam jimmedar hain..kyon nahi ve swalambi bantin? Kyon ve pati par aashrit rahti hain?
Purana samay chala gaya, ab yadi mahilayen chahen to apni jameen khud talash kar sakti hain.., jab tak ve purushon par ashrit rahengi tab tak ye dard nasoor bane rahenge..
DEEPAK..
baar baar ye kehna ki lajawab hai aapki nazmen..kam hi lagta hai..aur yahan aana bhi yun hi nahi hota :)
प्रेम ने मेरे सामने........
मुक्ति ।
बहुत दार्शनिक दृष्टि प्रदान की आपने प्रेम को . उसे प्रचलित अर्थ से बाहर निकाला ।
प्रेम और मुक्ति वास्तव मे मणिकाञ्चन ।
आपकी रचनाएँ एक से बढ़कर एक है !
तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!!
बहुत गहरी बात से सीधे दिल पर दस्तक दी है!
जिंदगी के सवालों को कविता में खूबसूरती से पिरो दिया है आपने, बधाई।
--------
क्या आप जवान रहना चाहते हैं?
ढ़ाक कहो टेसू कहो या फिर कहो पलाश...
तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!!
राजकुमार सोनी जी की ही बात कहने का आज मेरा भी मन है।
संवेदनाओं से भरी हुयी अभिव्यक्ति
आभार
हरकीरत जी आपकी रचना की प्रशंशा के लिए मेरे पास हमेशा शब्द कम पड़ जाते हैं...इस बार भी वो ही हाल हुआ है...कमाल का लिखती हैं आप...रचनाओं से पहले भूमिका में लिखे शब्द कटु सच्चाई को पर्त दर पर्त उधेड़ते हैं...
नीरज
जीवन क्या है ...?
उलझनों का द्वन्द
एक चक्रवात घूमता है
तुम्हारे लफ़्ज़ों की थरथराती ज़मीं पर
जब भी मैं पैर रखती हूँ ....
तुम कहीं भीतर बहुत गहरे में
गर्त हो जाते हो .....
झूठ के भी पैर हुए हैं भला ....?
बस कुछ जिद्दी धुने बजने लगती हैं
बेवजह .........!!
Waah !
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
sabhi bahut achchhi
Aur ye to sukoon de gain...bahut khaas...bahut shaandaar
kya baat hai.........
shaandaar !
bahut dinon baad kuchh achha padha..
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
वाह, बेहतरीन सोच..
bahut umda
जीवन क्या है ...?
उलझनों का द्वन्द
एक चक्रवात घूमता है
तुम्हारे लफ़्ज़ों की थरथराती ज़मीं पर
जब भी मैं पैर रखती हूँ ....
तुम कहीं भीतर बहुत गहरे में
गर्त हो जाते हो .....
झूठ के भी पैर हुए हैं भला ....?
बस कुछ जिद्दी धुने बजने लगती हैं
बेवजह .........!!
आपको पढ़कर हमेशा सोचती हूँ...आपके मन में क्या चल रहा है? कहाँ से आती हैं ये लाजवाब नज्मे
हरकीरत जी काफी दिनों बाद आपके ब्लाग पर आना हुआ लेकिन यहां वही ताजगी बरकरार पा रहा हूं...आपकी हर रचना दिल को सुकून से भर देती है...एक बार फिर इसी सुकून के साथ टिप्पणी कर रहा हूं...हर रचना लाजवाब...
तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!!
kamal ka lekhan hai aapka..........
बड़ी सशक्त अभिव्यक्ति ।
prem ka srijan kiya ja sakta hai kya?
yadi nahi to fir visarjan kaise ho payega.
sawal kavita par nahi hai harkirat jee. meri soch par hai ..
haan magar yah siukhad samyog hi hai ki meri bhi nayi kavita ka bhav kuch kuch aisa hi hai jaisa apne varnit kiya hai
satya
कभी कभी हैरान होता हूँ के लोग पढ़ते वक़्त अपने ज़ेहन में क्या रखते है ....क्यों कनेक्ट नहीं हो पाते .पिछले साल सितम्बर के महीने में जब गौतम को गोली लगी थी .मैंने एक पोस्ट लिखी थी कुछ यूँ थी .....
जिसमे दो तारे गुफ्तगू करते है ......"लगता है मेरे वाले को आज गोली लगी है "!
आर्मी के खुले ट्रक जब फौजियों से लदे फदे गुजरते है ...सड़क किनारे खड़े तकरीबन पांच छह साल के तीन चार बच्चे उन्हें सेल्यूट करते है ....मन में पता नहीं क्यों ख्याल आता है ..अस्पताल के बिस्तर पर पड़ा गौतम जाने क्या सोचता होगा
..
उस पर एक साहब ने फरमाया के अच्छा आपकी पोस्ट पढ़ के जरा भी पता नहीं लगा के गौतम को गोली लगी है ....वे कोई आम पाठक नहीं थे ....वे हिंदी की कई कहानिया लिखने वाले मह्शय थे ......जिनसे आप अपेक्षाक्रत अधिक समझदारी की उम्मीद रखते है .......दूसरा वाकया कुछ यूँ हुआ के हमने अपने अंदाज़ में लिखा .मंटो.वो अश्लील लेखक.....तो एक साहब ने कहा आप मंटो को अश्लील कहते है .मैंने कहा जनाब मंटो का मुरीद मुझसे बड़ा कोई नहीं पोस्ट तो पढ़ लीजिये.........
औरतो को यूटीलाइज करने के लिए कंडीशंड करने वाले समाज के फोर्मेट हर तबके हर क्लास के अलग है ..जाहिर है वे अपना रंग आकर बदल लेते है .पिछली पोस्ट पर .....आपकी नज्म पढ़कर एक पुरानी किरदार याद आई थी जिससे रूबरू मिला था ....ओर उसे .....
"शोर्टकट टू हेपीनेस "
उसमे मैंने लिखा था .......
कोई टेंशन ?मै पूछता हूँ...
टेंशन काहे की ....अम्मा कहती है ..सहूलियतों से .भरा पूरा घर है ..जी लगाने को दो बच्चे .....तंदरुस्त शौहर ..सगी बहन घर में .बतायो ओर क्या चाहिए औरत को.....?
वो जिंदगी से गायब सी है .बेहिस ...जैसे खामोशी ओड ली है ...
फिर कई साल पहले लिखी एक ओर नज़्म को याद किया जिसमे हर औरत के पास एक ज़ंजीर की बात की थी .......ये कहते हुए के ..किसी के पास सोने की है .किसी के पास चाँदी की.....उसे पढ़कर कंचना ने कहा था ये फिलोसफी तो मेरी बहन की है डॉ साहब....सो वो टुकड़े औरत को संबोधित करते डाल दिए .....
खैर
एक इंटरव्यू याद करता हूँ केतन मेहता वरिष्ट फिल्म निर्देशक है...उन्होंने बरसो पहले एक फिल्म बनायीं थी" मिर्च मसाला "जिसमे एक गाँव के जरिये पुरुषवादी सोच और परम्परायो के नाम पर स्त्री के शोषण को दिखाया गया था .आखिरी सीन में पुरे परदे पर सिर्फ मिर्च मिर्च उडती दिखाई दी थी .....इंटरव्यू करने वाली पूछती है ."उस फिल्म का अंत क्या था ".केतन मेहता हैरान हुए थे ...कमाल है . .यानि सब कुछ स्पष्ट करके बताने की जरुरत है.......उन्होंने पूछा था
'तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!!'
- और इन सवालों के कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाते.
अभी , बस … हाज़री देने के लिए ही हूं यहां ।
रचनाओं पर तो इतना कुछ कहा जा चुका है ।
वैसे आपकी कविताओं के शिल्प और भाव पक्ष पर कभी किंतु - परंतु की गुंजाइश ही नहीं रहती ।
ऐसा सधा हुआ लेखन !
…कथ्य के मा'मले में आम पाठक की अपेक्षाएं एकरूप नहीं हो सकती …अतः कुछ संतुष्ट होंगे कुछ असंतुष्ट ।
सिर्फ मेरा निजी दर्द नहीं है के ऐलान के बाद आपके उद्देश्यों के समक्ष नत , एवं आपकी लेखनी से सहमत न हो'कर सवालिया निशान उछालना कतई न्यायसंगत नहीं होगा ।
परमात्मा आपकी मानवीय गरिमा और लेखकीय ऊर्जा जाज्ज्वल्यमान बनाए रखे । अस्तु ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
लिख जाते हैं 'रशीदी टिकट' पर
त्रासदियों की दास्ताँ
स्त्री विमर्श की शशक्त सन्दर्भ पंक्तियाँ
हीर जी आप भी क्या खूब हैं !
बहुत अच्छा हार्दिक बधाई
nice
"शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!"
सभी रचनाएँ बेहद
प्रभावशाली
मंदिर वाली रचना
बहुत अच्छी लगी।
तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!
Jaise aag nikal rahi hai aapki lekhni se .. jaise pata nahi kitne kareeb se dekha hai jindagi ko ...
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
अद्भुत। इस पराकाष्ठा आैर वजूद की दृढ़ता को इतने आसान शब्दों में व्यक्त कर दिया है आपने। सचमुच यह बहुत जबरदस्त पंक्तियां हैं जिनमें स्त्री के प्रेम की प्रगाढ़ता से कहीं अधिक उसकी दृढ़ता परिलक्षित हो रही है आैर इस बात का आमंत्रण भी कि अब थोथे विचारों का बोझ ढोने की ज़रूरत नहीं।
प्रेम ......
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित .......!!
Yeh bahut sundar thi.
I am spell bound!!!
तुझे ....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
जमाने से .....!!
main ek mahine se bahar safar me rahi aur is karan aa nahi saki ,kya likhti hai padhkar sukoon milta hai .
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
विसर्जित
ye bhi bahut khoob hai ,shahid ji ke kahe shabd bhi laajwaab lage ,rochak ........
वाह आपा ! क्या बात है ! दर्द की अनुभूति असीम गहराई तक ! वाह !
बेहतरीन रचना है।
बहुत ही बढिया....संवेदनशील....
तुम्हारे लफ़्ज़ों की थरथराती ज़मीं पर
जब भी मैं पैर रखती हूँ ....
तुम कहीं भीतर बहुत गहरे में
गर्त हो जाते हो .....
अग्नि परीक्षा में खड़ी कर
सवालों ने लगा दी है आग तेरे ज़िस्म में
तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल
आपके बिंब बहुत प्रभावशाली हैं.
आपको जैसे शठदों की हजार सदी अता कर दी गई हैं
मुबारक!
Harkeerat jee. Kafee dinobad aaee aapke blog par. Padh kar hamesha kee tarah laga ki kitani aag chupaye huen hain aap jo is trah lawa sww ubal kar bahar nikalti hai. Sunder aaakrosh bhari rachnaen.
@मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ विसर्जित ...
प्रेम बंधन नहीं मानता ...स्वतंत्र कर देता है मगर यह विश्वास भी रखता है की लौट कर आएगा ...
@तभी तो तू सुलगते घेरे में खड़ी
करती है जलते हुए सवाल...
जो मिला वही तो दिया ...फिर भी लोग क्यों परेशान ...
हमेशा की तरह बहुत खूबसूरत ...!!
इन रचनाओं की तरह कोई सुलगता हुया कमेन्ट सूझ नही रहा। अभी सफर की थकावट नही उतरी शायद इस लिये। लाजवाब हमेशा की तरह।
Maikya ji,
Padhe-likho ke chitthe mein mera swaagat hai!
Jor lagake haayeesa!
Madhi-motti samajh mein aa gayee hain!
Mere varge fudduon ke liye kado likhna hai tussi, Heer ji!?
आईये जानें .... क्या हम मन के गुलाम हैं!
आपकी रचनाएं आपकी उत्तम सोच की परिचायक हैं।
Wah wa....
AApki kavitaon ka swagat hai. Prakashnarth bheje....
kalamdansh@gmail.com
चारों रचनाएं बहुत अच्छी लगीं....
शाम मंदिर से लौटते वक़्त
प्रेम ने फैला दी मेरे सामने कटोरी
मैंने कहा -'प्रेम तो मुक्ति मांगता है '
इसलिए मैं उसे कर आई हूँ
...........मुक्त !
सुन्दरम अति सुन्दरम...
प्रसंशनीय कविताएं।
(आईये एक आध्यात्मिक लेख पढें .... मैं कौन हूं।)
बहुत ही बढिया.....
Prem : Mind stopped, a vacuum created for a moment.
Post a Comment