कल नई पोस्ट डालनी थी पर इन दिनों व्यस्तता के कारण नया कुछ लिख ही नहीं पाई ....कुछ पिछली पोस्ट में मेरी लेखनी को लेकर विरोधी टिप्पणियाँ भी आयीं ....मैं कुछ देर के लिए नाहक ही परेशां हो गई थी .....हो सकता है उन टिप्पणियों से मैं और बेहतर लिख पाऊँ ......तो इस बार एक पुरानी ही नज़्म पेश कर रही हूँ जो दिसम्बर की हंस में प्रकाशित हो चुकी है ........" वजूद तलाशती औरत ...."
शीशे की दीवारों में कैद
इक मछली
धीरे-धीरे तलाशती है
अपना वजूद
उसके वजूद के बुलबुले
ऊपर उठते हैं
और ऊपर उठकर
दम तोड़ देते हैं
जानी -पहचानी
ये मछली मुझे
हर औरत के चेहरे में
नजर आती
रेगिस्तान में
मृग -मरीचिका सी
भागती-फिरती
नंगी- गीलीं
परछाइयों के बीच
अपने वजूद को तलाशती
सुनहरी,रुपहली
सुंदर मछली ....
एक्वेरियम में
बिछाई गई बजरी
समुंदरी पेड़ - पौधे
लाल,भूरे रंग के
छोटे-बड़े पत्थरों के बीच
गीले सवालों में खड़ी
अपने अस्तित्व को तलाशती
जूते की गिरफ्त में कराहती
किसी तड़पती कोख में
दम तोड़ती
हवा के बंद टुकड़े सी
कमरे में सिसकती
बाज़ारों में अपना
जिस्म नुचवाती
हँसी की कब्र में
उतर जाती है
किसी बिलबिलाते
चेहरे का
निवाला बनने .....
वह नहीं बन पाती
सीता-सावित्री
वह बनती है
खजुराहो की मैथुन मूर्ति
शीशे की दीवारों में कैद
वह आज भी
कटघरे में खड़ी है
न्याय के लिए ...
आज के कवियों की
कविता की तरह
संभोग की पृष्ठभूमि पर टंगी
वह अपना वजूद तलाशती है
शिखर पर पहुँचने का वजूद
स्त्री होने का वजूद
जी भर .......
साँस ले पाने का वजूद.....!!! ।
Monday, June 15, 2009
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62 comments:
बहुत कुछ कह गयी आपकी यह रचना .. इसके गहरे भाव बहुत पसनद आये ..
Thought provocing poem,strong words with sharp emotions.Congratulation for creating a nice reading matter.
गहरे भाव दर्शाती रचना .... एक औरत की zindgi को dikhane की कोशिश
लाजबाब!!
साँस ले पाने का वजूद.....!!!
vazood ki talash me aapke swar mukhar hokar prabhavi dhang se dikh raha hai.
badhai
sundr bhavpurn rachna.
हरकीरत जी,
रचना तो अच्छी है ही मगर आप टिप्पणियों से परेशान क्यों हो रहीं हैं।
"हो सकता है उन टिप्पणियों से मैं और बेहतर लिख पाऊँ "..निश्चित तौर पर ऐसा ही होगा....
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका के रूप में।आप के सुझावों की आवश्यकता है,देंखे और बतायें.....
आप ने अपने मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।
कोई आपकी रचनाओं पर क्या प्रतिक्रिया करता है उससे कम से कम मैं प्रभावित नहीं होऊंगा,एक रचनाकार के नाते आपमें और हरेक में अपनी सृष्टि के प्रति एक किस्म की पजेसिवनेस होती है जिसे समझा जा सकता है. आपसे आग्रह करूँगा की आप इन्हें occupational hazards की श्रेणी में रखें.
कुछ अरसे बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ है और इस कविता को पढ़कर यही कहूँगा कि हिंदी साहित्य के समूचे स्त्री विमर्श में इसका विशिष्ट स्थान बनता है. इसके बिम्ब और भाषा इसे गहराई और पैनापन देते है.
हरकीरत जी सलाम है आपकी लेखनी को....लाजवाब रचना...
नीरज
नज़्म उम्दा है
कई फीलिंग्स को आपने एक सूत्र में पिरोया है
कविता की समझ होना बड़ा टेढा काम है खारिज करने वालों को अभी एक उम्र और जीना पड़ेगा कविता होती क्या है ये जानने के लिए
bahoot gahri बात कह दी है आपने इस rachna के maadhyam से..... aurat की traasdi, उसके मन की vednaa को nayaa aakaar diyaa है इस रचना में........... सच कहा हर कोई आज के dour मैं seeta और saavitri की tahar अपना vajood dhoondhti नज़र आती है .......... machli को maadhyam banaa कर sundar shabdon को piroyaa है
machli aur aourt steek tulna .
machli ki jindgi bhut thodi hoti hai
apne mnornjan ke liye kanch ki deevaro me kaid kar utna bhi jeevan ham cheen lete hai theek us aourt ki tarh jo apne khushi ke thode se jeevan me apna vjud tlashti hai aapki najm ki tarh .
bahut sundar abhivykti
कविता में बैचनी और छटपटाहट की गूँज है !
अनुभूति के स्तर पर कुछ पंक्तियों की
मारक क्षमता गजब की है !
मन में उमड़ते "कुछ को" एकदम उकेर पाना इस तरह इतना आसान नहीं होता .....
लेकिन आपने यह कमाल किया है !
गहराईयों को समेटे हुए
सार्थक ओर सारगर्भित रचना
नारी अपने आत्मविश्वास को संचित कर अपनी कर्म रेखाओं में रंग भरने के लिए देहरी लांघती है तो हमेशा उसे हतोत्साहित किया जाता है !
यह कोई नयी बात नहीं है ! आपको आलोचनाओं से तनिक भी विचलित नहीं होना चाहिए !
आपने तो आलोचनाओं को प्रतिक्रियाओं में सम्मिलित करके सबसे कठिन पड़ाव तय कर ही लिया है ! मैं आगे भी आशा करता हूँ कि प्रशंसा को भले ही स्थान न दें किन्तु आलोचनाओं को हमेशा सर-माथे लगाएं !
बौद्धिक ठेकेदारी के अर्न्तगत कुछ बुद्धिजीवी तय कर रहे हैं कि स्त्री को क्या सोचना-बोलना है, क्या लिखना है, कब चुप रहना है, कितना विद्रोह करना है, किसका समर्थन करना है .... अर्थात कमान फिर पुरुष के हाथ ! स्त्री की सारी वैचारिक, बौद्धिक सम्पदा का ठेका पुरुष लेना चाहता है !
आज की आवाज
विश्व की सर्वोतम रचना. बधाई !!!
हरकीरत जी आप के पास ऐसे ऐसे खयालात और शब्द कहाँ से आते है .. मैं तो ताजुब में पद जाता हूँ ... कमाल की बात कह देती है आप... बुलबुले ऊपर उठाते है और दम तोड़ देते है ... अभी कुछ दीन पहले ही मैं एक्वारियम लेके आया हूँ पर ऐसा सोच भी नहीं पाया क्या कमाल किया आपने... ढेरो बधाई आपको...
अर्श
waaqai mein naari ke wajood ke baare mein kuchbhi kahna mushkil hai........ shabdon aur vichaaron mein gahrai ka ehsaas hai.....
ek baaat aur boloon to ..is duniya mein sabse aasaan kaaam hai kisi aurat zaat ke wajood ki beizzati karna...... yeh duniya ka sabse asaan kaam hai,..........
bahut umdaa creation hai........
Thanx for sharing......
Regards.......
harkirat ji dil ko chhoo gayee apki kavita vese bhi jeevan ke sagar manthan me naaree ne vish hi paayaa hai bahut hi bhavmay adbhut lajavaab kavita aabhaar
स्त्री की वेदना को गहरे भावों में व्यक्त किया है आपने... लाजवाब...
कविताओं की समझ नहीं है मुझे पर आपको हर बार पढना अलग सी अनुभूति देता है.
धन्यवाद
sabse pehle to main ye kehna chahoonga ki is tarah ki tippani ko positive criticism ke roop me liya jaana chahiye aur ye humara bala hi karti hai agar sahi taur pe dekhi jaaye...
baaki mujhe personally aapke over he top intense emotions se koi parhez nahee huyee kabhi...kyonki is tarah se rachna bahut hard hitting aur strong banke ubhar jaati hai,is baar bhi aisa hua hai...par kahin na kahin e kavita aapki aur zyaada subtle aur intelligent lag rahi hai... :)
kavita kya hai
kavita kaisi honi chahiye
aur kavita kaise likhi jati hai
in sab prashnon ka ek hi uttar hai
aapki kavita
waah waah waah waah
dhnya kar diya aapne
badhaai !
बहुत ही साधारण एक्वेरियम को बिम्ब रूप में प्रयोग कर आपने स्त्री का दर्द जिस अंदाज में पेश किया है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है.......दरअसल रचना और उसकी भूमिका हमारे आस-पास ही होती है, बस उन्हें पहचानने वाली आँखें चाहिए....एक साधारण से व्यक्ति को जहां एक्वेरियम में मछलियाँ अठखेलियाँ करती हुई बहुत अच्छी लगती हैं, वहीँ एक रचनाकार अपनी आँखों से जब उन्हें देखता है तो एक क़ैद, एक तड़प, एक छटपटाहट ही नज़र आती है.......चूँकि ये सब परिस्थितियाँ, हमारे समाज की मेहरबानी से, औरत की जानी-पहचानी हैं....एक असल तस्वीर उभरकर सामने आती है जहां मछली औरत का प्रतिनिधित्व करती हुई कविता गढ़ने का माध्यम बनती है....
और हाँ, चलते-चलते एक बात और...आलोचनात्मक टिप्पणियाँ आपका मनोबल गिराने ना पाएं क्योंकि.....
बाँध रहे थे जब सभी तारीफों के पुल मिलकर,
वो एक सच्चा निकला जो दरारें दिखा गया....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
समाज में नारी का एक ये स्थान भी है- कठोर सच।
मगर हाँ, सिर्फ़ यही है ऐसा भी नहीं।
बहुत गहन भाव लिए एक बेहतरीन रचना!!
कविता के लिए सबसे जरूरी चीज़ है अभिव्यक्ति. इस के साथ अगर कविता प्रतीकों के माध्यम से, एक एक आवरण रखते हुए भी सम्प्रेषित हो रही है तो रचना और रचनाकार दोनों सफल हैं. आप की कविता इन मानकों पर खरी उतरती है. नारी जो कुछ, जितना भी कुछ झेल-भोग रही है, उसका अंदाजा सिर्फ सम्वेदनशील मन ही लगा सकता है. आप लेखन और सिर्फ लेखन पर ध्यान केन्द्रित करें. व्यर्थ की बातों, आक्षेपों, आरोपों की ओर से आँखें बंद कर लें.
गहरायी में जा पीडा और दर्द पिरोई , कितने सवालों से रूबरू करती ,निरुत्तर कराती , अनुभूति .
कोई कुछ क्या कहे , कहे तो जब की जब कुछ हो कहने को ! हिम्मत भी .
बहुत सच्ची कविता...
हरकीरतजी,
आपकी साफगोई प्रभावित करती है. कविता पढ़ी. शानदार है.मन पर इस रचना की गहरी और तीव्र प्रतिक्रिया हुई है. साधुवाद देने को जी करता है. प्रकाश गोविन्दजी की बातों से सहमत हूँ. ऐसा ही धारदार लिखती रहें.
सबसे पहले आपकी रचना की बात। तो मैं यह कहूँगा कि आपने जायज आवाज को अपने शब्द दिये है, वो भी गहरे भाव के साथ। जब कोई रचना मुझे बहुत ही अच्छी लगती है तो मुझे बस अद्बुत के अलावा दूसरा शब्द नही मिलता है। इसलिए अद्बुत ही कहूँगा। और रही दूसरी बात जो आपने शुरु में कही है। तो उसका जवाब कुछ यूँ है। अभी दो तीन पहले ही कही पढा था।
पहले वो आप पर ध्यान नही देंगे
फिर वो आप पर हँसेगे
फिर वो आपसे लड़ॆगे
और तब आप जीत जाऐंगे।
गाँधी
इसलिए अपने पथ पर चलते जाओ।
आपकी रचनाएँ किसी को विचलित करती हैं तो ये आपकी लेखनी की सफलता है. इस कविता से तो यही कह सकता हूँ !
meri poori koshish rahegi ki vajood talashti hui aurat ko uska vajood mile.
Harkirat ji,
aapne to bejhijhak shabdon ka istmaal karke mardon ke muh par tamacha jad diya hai.
खजुराहो की मैथुन मूर्ति
शीशे की दीवारों में कैद
संभोग की पृष्ठभूमि पर टंगी
वह अपना वजूद तलाशती है
amrata preetam ne bhi ek baar kaha tha ki auraton ke saath shahron mein hi rape nahin hote gaav ke kheton khalihano mein hote jinka koi jikr nahin hota. sach poonchon aurat ki durdasa mardon ne kar rakhi hai.mardon ka bhi rape hona chahiye. tabhi inki akal thikaane aayegi.auraton ke dard ki aawaaj uthane ke liye shukriya.
जितनी सरल है आपकी रचना शब्दों में उतनी ही ऊँची भी आपकी सोच में.....
क्या बोलूं....
आपने जो लिखा है वो इतना गहेरा है.. जहाँ तक मेरी सोच नहीं जाती........
आपको मैं नमन करता हूं.........
बेवाक और यथार्थ लेखन....बधाई.
...वो
जिसके रौंदे जाने
पे कोई नहीं रोता
उसका नाम औरत है......
लाजबाब रचना.
dil ki gaherai se itne acche bhaav ke saath sundar rachna likhi hain aapne...
vazood//
talaash hi maano uskaa vazood ho/////////
par afsos...aourat ne hi khud apne aap ko itna sankuchit kar liyaa he ki vo koopmanduk vichaardhaaraa ko tyaagnaa nahi chahti////
rachna me dard aour neeraashaa...chahe marm ko chhu le kintu ujjval paksh ko nazarandaaz karnaa bhi is tathakathit vichaarsheel sanskrati ke liye me ghaatak samjhtaa hoo/
vajood talashti aurat ki, aapki chinta men mai v shamil hoon...
harkirat ji mere ek dost ke anurodh par aapke blog pe aai aur uski baate sahi thi ki aap achchha likhti hai .naari hi naari ke man ko behatar samajhti hai aur shayad sabse adhik chhalati bhi hai .'wazood talaashti aurat 'aapka shirshak hi chintan aur dard ka bhar uthaye huye nazar aa raha hai .baaki ka kya kahana ?aap se kai bhav sajha karne ki chah rakhte huye aage milti rahoongi .aachchha laga aur sabhi pahale ki bhi rachana padhi umda .
मन जीत लेने वाली सुन्दर अभिव्यक्ति
---
गुलाबी कोंपलें
आपकी कविता बहुत गहराई में ले जाती है और सवालों के झंझावातों में अकेला छोड कर बाहर आ जाती है। और यही एक अच्छी रचना की सार्थकता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
thoughtful thinking.....very nice...jindagi aaker yahi to thahar jaati hai.....
आपकी इस नज़्म के तो हम पुराने मुरीद हैं,मै!
और इन टिप्पणियों से विचलित होने वाली बात...क्यों? उसे भी तारीफ़ के रूप में लें।
हरकीरत जी,
शब्दों की जादूगरी कमाल की पाई है। भावनाओं को जस की तस बयां करना या शब्दों में ढालना कमाल की बात है।
रहा सवाल टिप्पणियों का तो हौसला-अफ्जाई का एक तरीका ही माने और निर्विकार हो अपना कार्य करती रहे।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
bahut hi waajib farmaaya hai aapane........
वह अपना वजूद तलाशती है
शिखर पर पहुँचने का वजूद
स्त्री होने का वजूद
जी भर .......
साँस ले पाने का वजूद.....!!!
कितना गहरा उतरतीं हैं आप विषय में कि एक्वेरियम की मछली, बंद कमरे की हवा, पिजरे की मैना, पानी का बुलबुला ,सबमें आपको अपना वजूद ढूढती स्त्री नजर आती है और आती ही नही आप हमें भी वही ले जातीं हैं ।
आपकी पीड़ा, बेचैनी, छटपटाहट समझ में आती है। इस पीर को आपने बखूबी नज्म में ढाला है।
behtaree kavita aapki
सुन्दर शब्दों की सार्थक रचना ,बहुत ही बढ़िया ,बधाई आप को .
बहुत खूबसूरत नज्म,
मैं इसे पाच बार पढ़ चुका हूँ.हर बार फिर से पढने की इच्छा होती है.शीशे की दीवारों में कैद मछली से औरत की तुलना कर आपने वर्तमान समाज में नारी की सीमाओं को सटीकता से व्यक्त किया है.फिर औरत के वजूद को पानी के बुलबुले सा कहकर तो आपने समाज के सत्य को मानों नंगा करके रख दिया हो.और एक्वेरियम में गीले सवालों में के बीच में अस्तित्व की तलाश तो सब कुछ कह जाती है.
पूरी की पूरी कविता प्रंशसा की हकदार है...
आपने पुनः प्रकाशित कर हम जैसे वंचित पाठकों को तोहफा दिया है.
आभार.
प्रकाश सिंह 'पाखी'
संभोग की पृष्ठभूमि पर टंगी
वह अपना वजूद तलाशती है
शिखर पर पहुँचने का वजूद
स्त्री होने का वजूद
... एक और अच्छी रचना पढने मिली !!!
कविता की आलोचना से आहत मत होईये. मैंने ब्लॉग लिखना शुरू करने के दिनों में अपना ई मेल पता सार्वजनिक कर दिया था फिर कैसे कैसे प्रस्ताव मिले बताया नहीं जा सकता, रचनाओं से जोड़ कर लेखकों देखा जाता है अगर आपने कोई उदास कविता लिख दी सब आप से सहानुभूति जताने लग जायेंगे .... अफसोस
आप की कवितायेँ मुझे बहुत पसंद है , लिखती रहिये हमें सीखने को मिलता रहेगा . शुभ कामनाएं
हरकीरत जी,
रचना की तारीफ में कहीं कोई कमी न दिखी, हर एक की टिप्पणी एक से बढ़ कर एक.
मैं भी करीब एक माह बाद ही किन्हीं व्यस्तताओं के कारण ही ब्लॉग जगत पर पुनः लौट पाया हूँ, जिन्दगी के संघर्ष से दो चार करने में इतना व्यस्त रहा कि इन दिनों न किसी का ब्लॉग देख सका न ही कहीं टिप्पणी कर सका, आपके ब्लॉग पर भी न आ सका इसके लिए क्षमा-याचना.
यदि मैं भी तारीफ करुँ, तो शायद अन्याय होगा उस मासूम के लिए जिसे विरासत में ऐसी सच्चाई बिखेरती रचना समय के साथ आगे पढने को मिलेगी. कुछ प्राकृतिक सच समय के साथ ही प्राकृतिक रूप से खुले तो ही ज्यादा अच्छा होता है. मैं ज्यादा कुछ लिख कर सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा कि जो बात एक मां-बाप अपनी बेटी से कहने में या एक बेटी अपने मां बाप से कहने में बचे, उसे इस तरह सार्वजानिक या रचना का माध्यम न बनाना ही उचित है................
मेरी टिप्पणी को अन्यथा कदापि न लें, एक स्वस्थ संस्कारिकता की कुछ ऐसी ही प्रतिबद्धता होती है.
यदि टिप्पणी आपको उचित न लगे तो कृपया इसे प्रकाशित न करें और मुझे निम्न इ-मेल एड्रेस पर अपने विचारों से अवगत कराएं....
cm.guptad68@gmail.com
चन्द्र मोहन गुप्त
हवा के बंद टुकड़े सी
कमरे में सिसकती
बाज़ारों में अपना
जिस्म नुचवाती
हँसी की कब्र में
उतर जाती है
किसी बिलबिलाते
चेहरे का
निवाला बनने .....
...haan ladki ek machli hi to hai...
saara sansaar aqurium !!
kandhe mila ke chalne ki bhi soche to purush "sparsh sukh" se abhi bhoot ho jaiyenge !!
ek vibatasya satya !!
achchi post lagi......
बहुत काव्यात्मक ढंग से आपने जननी के दर्द को अपनी रचना में समेटा है...मैं आज पहली बार आपके ब्लॉग पे आया बहुत अच्छा लगा..मेरे ब्लॉग पे आपका स्वागत है......
Aapne stree ka ek roop darshaya hai ....doosra bhi darshane ka prayaas kare ....sakaratmak soch ke saath....
Aapki rachna behad achchi hai ....kuch kaduvi sachchi se bharee hui....
Regards
औरत का दिल और जीवन आईने में दिखा देती हो ..
पढ़ने वालों के दिल में दर्द का अहसास जगा देती हो ...
आप ने अपने मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए हैं..
aapki rachnayon per comments dena bilkul suraj ko charag dikhaney ke baraber hai...bebaak rachna atma ko jinjhod gayi!
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