Monday, June 22, 2009

इस दर्द को कैसे अलग करूँ ....!!

मन आहत है और कुछ बेचैन भी .....मुझे याद है पिछली किसी पोस्ट में डा। अनुराग ने कहा था , 'कवि मन बहुत ही संवेदनशील होता है ' ....पिछली कुछ टिप्पणियों ने मुझे कई बार ब्लॉग बंद करने के ख्याल की ओर कितनी कितनी कितनी अग्रसर किया .....' दर्द का ब्रांड ', ' शब्दों का हूनर ' , संस्कार' जैसे लफ्ज़ कहीं भीतर तक चोट कर गए .....संस्कार......? हुंह ये संस्कार तो बरसों से मेरे घर की दहलीज़ पर बैठे गुनगुना रहे हैं ....न जाने रोज़ कितनी इन संस्कारों की बलि चढ़ जाती होंगी ........ये संस्कार, ये मर्यादाएं ,ये लक्ष्मन रेखाएं क्या पुरुषों के लिए नहीं होती .....सोचती हूँ और सोचते - सोचते ज़िन्दगी के कई सफर तय कर जाती हूँ .....


नहीं ......
इस बार मैं अपने चेहरे का दर्द
नहीं पिरोऊंगी शब्दों में
मैं आईने के पास आ खड़ी होती हूँ
और फिर जोर से हंस पड़ती हूँ
तुझे तो लोगों से सिर्फ सहानुभूति चाहिए
चेहरा पूछता है .....
क्या यही सच्चाई है ...?
तभी आईने में बचपन का एक
डरा , सहमा चेहरा उभर आता है
वह मासूम सी भयभीत खड़ी है
शायद तब वह बलात्कार जैसे शब्द से
परिचित नहीं थी .......
तभी वह शख्स पास आता है ....
देखो .... तुम किसी से कुछ नहीं कहोगी
नहीं कहोगी न....?

हाँ ...!
मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगी
मुझे किसी से सहानुभूति नहीं चाहिए
मष्तिष्क में घटनाएँ तेजी से बदलने लगतीं हैं ....
आतिशबाजी ,शोर,धुआं ,चीख जैसे
एक साथ हजारों मिसाइलें सी चलने लगीं हों ....
आँखें खौफ से फ़ैल जाती हैं
एक कंपकंपी पूरे वजूद में सरसरा जाती है
अन्दर का सच नंगा होकर बाहर आना चाहता है
पर यह सब तो संस्कारों के खिलाफ हो जायेगा
ओह .....! ये संस्कार .....! !

सुनो.....
कमजोर और ज़ज्बाती मत बनो
अपने हक के लिए लड़ना सीखो
पर वह खुद जुल्म सहते - सहते
मौत से न लड़ पाई....
वह ब्रेन कैंसर मर गई ...

तभी वह जोर से चिल्लाई .....
हाँ ...मैं डायन हूँ ....
मैं सब को मार डालूंगी ....
खून पी जाउंगी सब का...
लोग उसे डायन कह कर पीट रहे थे
पर वह डायन नहीं थी
वह सदमें से पागल हो गई थी
उसका पति ...
रोज शराब पीकर उसी के सामने
एक नई औरत के साथ सोता था
विरोध किया तो डायन हो गई

मष्तिष्क में फिर अंधाधुंध
गोलियाँ सी चलने लगीं थीं
आँखों में दर्द नाच उठा
पुतलियाँ फ्रिज सी हो गयीं ....
धुआं-धुआं से दृश्य गुम होने लगे
सामने कुछ शब्द बिखरे पड़े थे
हजारों जालों में लिपटे
मैं साफ करने लगती हूँ ....
दीदी है ....
आग में जलती हुई ....
मैं चीखती हूँ, चिल्लाती हूँ , पूछती हूँ ...
' दीदी ऐसा क्यों किया...? '
पर वह मौन है , कुछ नहीं कहती
बिलकुल मौन ,पथराई आँखों में
मेरे सारे सवालों के जवाब बंद हैं

" शब्दों का हूनर " ,
" दर्द का ब्रांड "," संस्कार "
मुझे वो सारी टिप्पणियाँ
स्मरण हो आती हैं ......
सोचती हूँ ....
इस दर्द को ख़ुद से कैसे अलग करूँ
कैसे अलग करूँ ....!!



45 comments:

अजय कुमार झा said...

......................................................................................................................................सुना है जब शब्द नहीं मिलते तो मौन सब कुछ कह देता है....ऐसा ही समझें...

डिम्पल मल्होत्रा said...

इस दर्द को ख़ुद से कैसे अलग करूँ
कैसे अलग करूँ ....!!dard kabhi alag nahi hote....dil dhadkan dard....sath sath chalte hai...

Anonymous said...

निशब्द.......


..........इस दर्द को पढ़ कर किसका मन आहत और बेचैन नहीं होगा ?

ज्योति सिंह said...

padhte samaya ek ke baad ek tasvir is tarah samne nazar aai jaise parde ke samne baithi hoon . bahut khoob marmik rachana .

राज भाटिय़ा said...

लेकिन सारा समाज तो नही ऎसा,ओर हम सिर्फ़ बुराई ही देखेगे तो हमे सिर्फ़ बुराई ही दिखेगी, झटओ इन ख्यालो को , देखो इस खुब सुरत दुनिया को बहुत सुंदर है, चलो लेकिन कीचड से बच कर, गंदगी से समभल कर, ओर बटोर लो जो चाहो....
आप की रचना बहुत कुछ कहती है, लेकिन सारी दुनिया आप की रचना जेसी भी नही.
धन्यवाद.

मुझे शिकायत है
पराया देश
छोटी छोटी बातें
नन्हे मुन्हे

Unknown said...

dard kahne se nahin sahne se khatm hota hai
isliye dard ko geet bana lijiye
man ka meet bana lijiye................

badhaai aapko is umda rachna k liye !

Asha Joglekar said...

दुख ही ऐसी संवेदना है जो हमे झकझोर कर रख देती है । और उस वक्त जो शब्द बह निकलते हैं वे आंसुओं से कम नही होते । पर जैसे कि भाटिया साहब ने कहा इस दुनिया में सुंदर चीजें भी हैं । हम दुनिया को पूरा बदल तो नही सकते पर सम्हल कर चल सकते हैं ।

परमजीत सिहँ बाली said...

अपने मनोभावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।

Anil Pusadkar said...

दर्द कभी भी अलग नही हो सकता।

Udan Tashtari said...

इतना संवेदनशील होना ठीक नहीं...लिखते रहें और इन सब पर ध्यान देना कम करें.

neera said...

दर्द से
bharpoor

इस दर्द को अलग कर
अनुरोध है
एक ख़ुशी और सुख की कविता का!

रानी पात्रिक said...

दर्द व्यक्ति को कमज़ोर भी बनाता है और दर्द ही व्यक्ता को मज़बूत भी बनाता है। लड़ाई तो जीवन भर चलती है पर किससे लड़े और कैसे इस की समझ अवश्य हो।

M VERMA said...

इस दर्द को ख़ुद से कैसे अलग करूँ
कैसे अलग करूँ ....!!
भावनाओ को उद्वेलित करती रचना मन को भिगो गयी

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

एक जिज्ञासा है- क्या ये कविता थी?

आपकी अभिव्यक्ति हमेशा ही बहुर ज़ोरदार रहती है, अंदर तक छूने वाली। मगर, इसे कविता का रूप क्यों देना? अन्यथा न लें, मगर इस कविता को गद्य के रूप में पढ़ कर देखें। मन के भावों को पंक्तियों में सजा कर, टुकड़े-टुकड़े कर देने से क्या कविता होगी? आप गद्य लिखने का भी प्रयास कर के देखें, सफल होंगी।

टिप्पणी में ज़्यादा लिखना नहीं चाहती मगर इसे देखें-

उस काली रात ने मेरे घर के आंगन में चुपचाप आकर जैसे मुझे अपनी गोद में ले लिया था । चाँद चुपचाप एक बादल के टुकड़े के पीछे छुप गया थी और वो रात रोती रही थी मेरे संग, चुपके चुपके।

ये किसी कहानी की शुरुआत हो सकती है या किसी गद्य का अंश।

इसी को मैं यहाँ-वहाँ काट कर क्या इसे कविता कह देना ठीक है?

उस काली रात ने
मेरे घर के आंगन में
चुपचाप आकर
जैसे मुझे
अपनी गोद में ले लिया था

चाँद चुपचाप
एक बादल के टुकड़े के पीछे
छुप गया था
और वो रात
रोती रही थी मेरे संग,
चुपके चुपके।

Arvind Mishra said...

निश्चय ही रचनाये मन की सहज अभिव्यक्ति होती हैं -जैसे आपकी यह रचना भी सीधे मन को छूती है ! बल्कि आहात कर जाती है -यह दुनिया इतनी बुरी क्यों है ? पर क्या वह इतनी ही बुरी है ?क्या कुछ भी अच्छा नहीं रहा यहाँ ! मुझे तो लगता है कि विरला वह है और जन्म तो उसी का सार्थक है जो समाज की सारी बुराईयों और संत्रास को आकंठ पीकर भी इस विगलित कोधी होती मानवता की सेवा कर सके !
आपकी अभिव्यक्ति बहुत प्रभावी है आप सोचिये आप और कौन सा रचनात्मक कार्य का संकल्प ले सकती हैं -यहाँ तो आप है हीं !

Yogesh Verma Swapn said...

dard , dard , dard . dard hi to hai kavita ka ahsaas.

डॉ. मनोज मिश्र said...

बेहतरीन .

ओम आर्य said...

मैं मौन हो गया हूँ पढ़ के
और अभी वहीँ रहना चाहता हूँ.

प्रवीण त्रिवेदी said...

बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं।

बधाई!!!!!

ताऊ रामपुरिया said...

अक्सर इतने गहरे मनोभाव परिस्थिति विशेष मे व्यक्त हो ही जाते हैं. बहुत संवेदनशील रचना.

रामराम.

मुकेश कुमार तिवारी said...

हरकीरत जी,

संवेदनायें शून्य नही होती
लौटती हैं मौन में
आँखों से बहती हुई

पीड़ा को बखूबी शब्दों में ढाला है।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

admin said...

इस दर्द के लिए बस दुआ ही हो सकती है।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

डॉ .अनुराग said...

इत्तिफकान आजकल एक किताब पढ़ रहा हूँ..'.कथा जगत की बागी मुस्लिम औरते "सह संपादक मुशर्रफ़ आलम जौकी है .इस्मत चुगताई का '.लिहाफ 'पढ़कर लगा .कितनी हिम्मत होगी उनमे ...उस समय में लिखने की ....यहाँ वैसा सा कुछ कोई ब्लॉग में लिख दे तो ब्लॉग जगत में हल्ला मच जाए .....भले ही लोग कंप्यूटर लेके .मोर्डन हिंदी टूल इस्तेमाल कर रहे है .पर दिमाग में .... वही सोच है...ओर कई कहानिया है...यहाँ उसका जिक्र इसलिए कर रहा हूँ...के आप् को कुछ भी नहीं कहा लोगो ने ...सुधा अरोडा से लेकर पाकिस्तान की परवीन तक जाने क्या क्या सह चुकी है...बस जो मन में आये लिखिए...हाँ सकारात्मक आलोचना भी उसी मन से लीजिये....

Sajal Ehsaas said...

ek baat to aap maanengi ki kai log aapki rachnaao ko ek achhee rachna ke roop me padhte hai,aapke bhaavnaao ke roop me...jaisa hai,par sach yehi hai...isliye aapki rachna pe ki gayee kisi prakaar ki tippani aapki bhaavnao ko thes pahunchaati ho,ye baat kehna mahaz ke "galtee" hoti hai,ye logo ke beech apni compositions share karne waale har insaan ko samajhna zaroori hai...itna strong hona hi hota hai...

par yehi wo jazbaat hai,jo aapko itna behatareen likhwa rahe hai..mujhe aapke ek daayre me kaid rehne ya sirf dard pe likhne jaisi kisi baat se koi shikaayat nahi rahee,isme aapko ek ashcharyjanak mahaarath haasil hai,aise topics pe honestly aaj tak hindi blogs me kisi ko itna achha likhte nahi paaya maine....par haan koi aalochna ho to use dil se na lagaye


note: vaise agar koi criticise karne ke naam pe personal baat kehta hai to wahaan feelings hurt ho sakti hai...aisi baaton ko nazar andaaz hi kar dijiye

नीरज गोस्वामी said...

हरकीरत जी आप जैसा संवेदन शील लिखने वाले बहुत कम हैं ब्लॉग जगत में...आप लोगों की टिपण्णीयों से आहत न हों बल्कि उन्हें अपनी ताकत बनायें...आपसे अनुरोध है की नकारात्मक टिपण्णी करने वालों से डर कर आप अपने सच्चे पाठकों से सम्बन्ध ना तोडें...ब्लॉग में ही क्या जीवन में ही देखें सच्चे और अच्छे लोगों का हाल क्या होता है लेकिन फिर भी सच्चाई और अच्छाई अभी तक जिंदा है...आप विलक्षण प्रतिभा वाली कवयेत्री हैं...लिखती रहें...
डाक्टर अनुराग जी ने जो कहा है वो गौर करने योग्य है...उनकी बात समझें और डटी रहें...
नीरज

दिगम्बर नासवा said...

सच है.....दर्द को खुद से अलग नहीं किया जा सकता ............... उसको tapa कर kundan banaaya जा सकता है ..... मन की भावनाओं से भी कभी कभी मन ahat हो जाता है............ उन्हें bhulaana padhta है......... dwand से ubarnaa भी तो एक kala है............ आपको padhnaa hameshaa ही achaa lagtaa है

Pramendra Pratap Singh said...

संवेदना और वर्तमान परिदृष्‍य से प्रेरित कविता

रंजना said...

जीवन को सही मायने में वही जीता है जो पर पीडा को शब्द दे उसे महत्वपूर्ण बना देता है.....आप सौभाग्यशालिनी हैं ...आपको ईश्वर ने उन असंख्य ह्रदय की पीडा को अभिव्यक्ति देने के लिए चुना है.....

अपने ऊपर मुस्कुरा देने वालों या कटाक्ष करने वालों की तनिक भी परवाह न करे... लेखन रोकने की तो कल्पना भी न करें.

आपने इस रचना में उन समस्त पीडितों के घुटते चीखों को मुखरित किया है...प्रशंशा से परे है यह अभिव्यक्ति...

सतत सुन्दर लेखन जारी रखें शुभकामनाये....

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

यह दुनिया जितनी बड़ी और विविधता से भरी हुई है उसमें सभी प्रकार के उदाहरण देखने को मिल जाएंगे। यहाँ अच्छाई और बुराई दोनो प्रचुर मात्रा में फैली हुई है। दोनो में अन्तर यह है कि बुराई अपने आप पैदा होती रहती है- खर-पतवार की तरह- और अच्छाई को सृजित करना पड़ता है माली द्वारा लगाये और सींचे गये पौधे की तरह। बुराई को मिटाने के लिए भी परिश्रम करना पड़ता है जब कि अच्छाई को बनाये रखने के लिए सजग रहना पड़ता है, यूँ ही छोड़ देने पर उसे बुराई ढक लेती है।

ऐसी दशा में हम मनुष्यों का कर्तव्य है इस संसार से बुराई को कम करने और अच्छाई को बढ़ाने के लिए श्रम करना। दोनो काम ऐसे हैं जो सकारात्मक प्रयास की मांग करते हैं। एक आशावादी दृ्ष्टिकोण के साथ कुछ अच्छा करने का संकल्प सबको लेना होगा। तभी अन्धेरा छँटेगा और नवप्रभात का प्रकाश फैलेगा।

आपकी कविताओं के माध्यम से बुराई को पहचानने मे मदद मिलती है जो इसे दूर करने की पहली शर्त है। आप एक अच्छा काम कर रही हैं। शुभकामनाएं।

अन्धकार को क्यों धिक्कारें, नन्हा सा एक दीप जलाएं।

ktheLeo (कुश शर्मा) said...
This comment has been removed by the author.
ktheLeo (कुश शर्मा) said...

मैं ये टिपप्णी रचना पर नही बल्कि , Prologue पर कर रहा हूं.जब लगे के रुक जाओ या लौट चलो,तब मुझे अपना ही ये शेर याद आता है.

"रास्ते में संग भी थे खार थे,थीं मुश्किलें,
मै मगर आगे न बढता,लाचारियां इतनी न थी."

किसी भी रचनाकार की रचनाधर्मिता उसकी अपनी ही नही, बल्कि उसके पाठको के प्रति भी उसकी जिम्मेदारी का हिस्सा होती है, क्यों कि,

"है अन्धेरा भी घना,और तेज़ हवायें भी सर्द,
शमा चाहे के नहीं उसे हर हाल में जलना होगा."

Keep writing ,Happy Blogging!

हरकीरत ' हीर' said...

अनुराग जी , सजल जी , नीरज जी , रंजना जी और सिद्धार्थ जी आप सब की टिप्पणियों एक बार फिर मेरा हाथ पकड़ कर उठाया है ....और मुझे फिर से अपनी राह की ओर मोड़ा है ...... इस बिच मैंने कई बार ब्लॉग बंद करने की बात सोची पर मित्रों का बार बार यही अनुरोध था की मैं ऐसा सोचूं भी ना..... शायद मैं कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हूँ तभी मैं दर्द को अधिक महसूस करती हूँ ....आप सब से अनुरोध है कि अपना स्नेह भरा हाथ सर पर यूँ ही बनाये रखें ....कुछ मित्रों ने मोडरेशन लगाने की बात भी कही ....पर मैं बंदिशों के बीच अपना ब्लॉग नहीं चलाना चाहती ...आप सब का अनुरोध होगा कि इस कमेन्ट को हटा दो तो हटा दूंगी ...वर्ना अच्छी बुरी जैसी भी हूँ आपके सामने हूँ.....!

रंजना जी , आपकी टिप्पणी से मैं आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित हुई क्योंकि यहाँ देख रही हूँ महिलाएं ही महिलाओं को नीचा दिखने की कोशिश में हैं ....!

मानसी जी ,

भले ही मेरी कविता कविता न हो ....पर आपकी ये पंक्तिया कविता की ही हैं और लाजवाब लिखी गयीं हैं....अगर आपने लिखी हैं तो मेरा अनुरोध है कि आप काव्य भी लिखें क्योंकि काव्य जगत में इसी प्रकार के गद्यात्मक कविताओं का प्रचलन है ...शायद आप आज की पत्र- पत्रिकाएं नहीं देखतीं ...? आपकी पंक्तियाँ तो गुलजार जी की शैली की है जिन्हें बहुत पसंद किया जाता है ..!
खैर आपने लिखा है ...." मन के भावों को पंक्तियों में सजा कर, टुकड़े-टुकड़े कर देने से क्या कविता होगी? " ....मानसी जी , यह कविता मैंने अपनी शैली से हट के गद्यात्मक रूप में इसलिए लिखी थी कि मैं बता पाऊँ कि मेरे साथ " दर्द का ब्रांड " कैसे और क्यों जुडा ...अलग अलग टुकडों में मैंने अपनी ज़िन्दगी के कई अलग -अलग अनुभव बताये हैं ..!

रही आपकी गद्य लिखने की सलाह ....तो बता दूँ कि मै गद्य भी लिखती हूँ हाँ ब्लॉग पर इतना टाइप करने का समय नहीं निकाल पाती...कभी घर गृहस्ती से थोडा वक़्त निकाल पाई तो अपनी कहानियाँ भी पोस्ट करुँगी ...!

Mumukshh Ki Rachanain said...

हरकीरत जी,
"इस दर्द को कैसे अलग करूँ ....!!" बहुत ही तीखा प्रश्न किया है आपने अपनी रचना के माध्यम से. पर यहाँ पर मैं यह कहना चाहता हूँ जरा इस बात पर गौर करें कि....
"दर्द का हद से गुज़रना, दावा हो जाना है"

अपने महान देश में कई फक्कड साहित्यकार हुए पर उनकी दरियादिली के किस्से आज भी मशहूर हैं, उन्हों ने कभी अपने दुखों को अपनी रचना का माध्यम नहीं बनाया, वो हर हाल में खुश रहे और लिखते रहे, निखरते रहे.
पात्रों को जीना और उन्हें निरूपित करना एक कौशल है, और मैं यह जनता हूँ कि यह कौशल भी आप में कूट-कूट कर भरा है., पर शायद आपकी अति संवेदनशीलता इसे उभरने के मौका नहीं दे रही है.

मैं सिर्फ यही कहना चाहूँगा कि जब अपना दर्द भरी लगने लगे तो दूसरों के दुःख में तन-मन से शामिल हो कर उसे दूर करने का प्रयास करें, इससे जो खुशी मिलेगी, शायद दर्द उससे छुप सकेगा.

यद् करे सचिन को पिता कि मृत्य की खबर मिलने के बाद भी देश के लिए उसी तन्मयता से खेला.

वैसे आप भी कोई कम समझदार नहीं, जिसे सुझाओं की ज्यादा आवश्यकता हो...................

गंदी दुनिया में भी यज्ञ बंद नहीं होने चाहिए, संस्कार की बुझती लौ को जलाये रखने की आज के दौर में विशेष जिम्मेदारी है.......

शेष शुभ...............

चन्द्र मोहन गुप्त

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

विद्वत मण्डली मत दे चुकी है। इस मूढ़ के कहने लायक कुछ बचा ही नहीं।

बस एक काम करिए श्वेत बैकग्राउण्ड पर काले अक्षरों में पोस्ट करिए न कि इसके उलट जैसा अभी है। विश्वास मानिए इससे फर्क पड़ता है।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

dard kabhi hamse alag nahin ho sakte...yeh hamari zindagi ka ek abhinn hissa hain..........

Kavita padh ke mann aahat hoga aur sochne ko majboor bhi ........

Ati sunder chitrann.......

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

हरकीरत जी,

आप की टिप्प्णी मेरे ब्लाग पर मिली। यकीन जानें ब्लाग मेरे लिये किसी कम्पीटिशन का मंच नहीं है, न ही तंज़ के आदान-प्रदान का। कंस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज़्म का स्वागत है, हमेशा ही।

यहाँ टिप्प्णी की मेरी इन पंक्तियों को सराहने का धन्यवाद, मगर, ये कविता नहीं, दो मिनट में टिप्पणी के लिये लिखी गई चंद पंक्तियाँ, अगर यही आजकल की कविता है तो कोई भी कविता कर सकता है।

एक बात और- अगर कंस्ट्रक्टिव क्रिटिसिज़्म से आपको आपत्ति है, तो आइंदा आप के पोस्ट पर टिप्पणी नहीं होगी। आप अच्छा लिखती हैं, अमृता प्रीतम की लेखनी से प्रेरित हैं, ये आपके लेखन से समझ आता है। लिखती रहें।

शुभकामनाओं सहित।

के सी said...

आप क्यों दिल पे लेती हैं कि कौन क्या कहता है
जिन्होंने दर्द का ब्रांड कहा उन्हें कौन समझाए कि हरकीरत क्या है, काश कभी दिल से और कुछ पुराने पन्ने भी पढ़े होते तो इश्क के ख़याल से ही छुई मुई हो जाते, संगदिल भी....

वक़्त पलकों की कश्ती पे हो के सवार
इश्क के रास्तों से गुजरता रहा
तारों ने झुक के जो छुआ लबों को
नज़्म शरमा के हुई छुई-मुई छुई-मुई......

cartoonist anurag said...

bahut hi achhi rachna hai........

संध्या आर्य said...

EK BAAR FIR SE ANOKHI RACHNA KE SATH OUR OURAT KI JINDAGI EK OUR DASTAN KO AAPNA SHABD DEKAR DARD KI GAHARAEE KO UKERA HAI .............DERO BADHAAEE.........DARD KO ALAG KARANE KI JARURAT HI NAHI HAI ........DIKHANE KI JARURAT HAI...........TAKI DUNIYA SAMAJH SAKE.......

सुशील छौक्कर said...

आपकी पोस्ट पढकर एक गाना याद आ रहा है।"कुछ तो लोग कहेगे लोगो का काम है कहना" ऐसे ही एक बार मैने भी दुखी होकर अपने सर से पूछा कि सर कविता क्या होती है? तो उन्होने कहा कि जब तेरे को पता चला जाए तो मुझे भी बताना मैं ऊपर जाकर शेक्सपीयर को बताऊँग़ा। खैर आप लिखिए खूब जमकर लिखिऐ ।

शोभना चौरे said...

जो हम समाज में देखते व्ही लिखते है और जो हमारे मन को छूता है व्ही शब्दों में उभरकर आता है .दर्द का रंग ज्यादा गहरा होता है आप लिखिए ।

हाँ ...!
मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगी
मुझे किसी से सहानुभूति नहीं चाहिए

manu said...

काफी दिन के बाद नेट सही हुआ है,,,और आप्कने इतना कुछ पोस्ट कर दिया,,,,
ये कमेंट से आहात होने की बात समझ में नहीं आयी हमारे,, आप जैसे लिखना चाहें ,,वैसे ही लिखें,,,
यदि कोई कुछ लेखन विरोधी कमेंट करता भी है तो करता रहे,,,,,
यदि आपको हर चीज में दर्द ही दर्द नजर आता है तो उससे क्या,,,,,
हर किसी का अपना तरीका होता है लिखने का , कोई हर तरह से दुनिया को देख कर लिखता है तो कोई एक ही तरह से,,,,
हमारे एक मित्र हैं,,,,, वो जहां पर जाए ,,उसी के अनुरूप कविता लिख डालते हैं तत्काल,,,
कभी गणेश जी पर ,,तो कभी ईसा पर,,कभी बूढे पर तो कभी बच्चे पर,,,
हमसे भी कहते हैं के आप भी ऐसे ही लिखा करो,,, पर हमसे नहीं लिखा जाता,,,
इसमें क्या टेंशन लेनी ,,,,,,,,?
ऐसी कमेंट्स से ब्लॉग बंद करने की सोचना तो बड़ी अजीब सी बात है मेरे लिए,,,

manu said...

काफी दिन के बाद नेट सही हुआ है,,,और आप्कने इतना कुछ पोस्ट कर दिया,,,,
ये कमेंट से आहात होने की बात समझ में नहीं आयी हमारे,, आप जैसे लिखना चाहें ,,वैसे ही लिखें,,,
यदि कोई कुछ लेखन विरोधी कमेंट करता भी है तो करता रहे,,,,,
यदि आपको हर चीज में दर्द ही दर्द नजर आता है तो उससे क्या,,,,,
हर किसी का अपना तरीका होता है लिखने का , कोई हर तरह से दुनिया को देख कर लिखता है तो कोई एक ही तरह से,,,,
हमारे एक मित्र हैं,,,,, वो जहां पर जाए ,,उसी के अनुरूप कविता लिख डालते हैं तत्काल,,,
कभी गणेश जी पर ,,तो कभी ईसा पर,,कभी बूढे पर तो कभी बच्चे पर,,,
हमसे भी कहते हैं के आप भी ऐसे ही लिखा करो,,, पर हमसे नहीं लिखा जाता,,,
इसमें क्या टेंशन लेनी ,,,,,,,,?
ऐसी कमेंट्स से ब्लॉग बंद करने की सोचना तो बड़ी अजीब सी बात है मेरे लिए,,,

manu said...

डबल क्लिक हो गया,,,
पर डिलीट नहीं करता,,,ये भी ठीक ही हुआ होगा,,,,
है न......?

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

pata nahin kya kahoon? jyada nahin janta hoon..Rudyard Kipling ki ek kavita hai - 'If' . Padhen, kaafi logon ke liye ye anthem hai..

Aapki Nazmein bhi kaafi logon ke liye anthem hain :) Likhti rahiye aur logon se ooper uthiye..Ek hindi gaane hai - Kuch to log kahanege :) uska ek para hai..

"kuchh reet jagat kee ayesee hai,
har yek subah kee shaam huyee,
too kaun hai, teraa naam hain kyaa,
sita bhee yahaa badanaam huyee,
fir kyo sansaar kee baaton se
bheeg gaye tere nainaa.."

Likhti rahiye :)