Wednesday, August 13, 2014

आज़ादी से पहले कुछ सवाल ....

आज़ादी से पहले कुछ सवाल  ....

जब मैं यहाँ लिख रही थी
आज़ादी की कविता
तुम वहाँ बुन रहे थे साज़िशों जाल
किस तरह रचा जाये शब्दों का चक्रव्यूह
जिसमें कैद होकर
मेरी कविता ख़ुद -ब ख़ुद दम तोड़ दे
शायद तुम भाँप गए थे
कमजोर होती मेरी
शब्दों की जमीं …

सहसा गिर कर
टूटने लगे थे मेरे शब्द
काले लिबास में कसमसाती भावनाएं
आँखों से बह निकली थीं
एक गुलमोहर जिसे बरसों से पानी डाल -डाल
मैंने हरा किया था अपनी देह में
सहसा कट गयी थी उसकी शाखें
मैं रोकना चाहती थी उसे
आत्महत्या करने से
एक पूरी किताब लिख देना चाहती थी
उसकी देह पर
पर मौन हो चुके थे
उसके शब्द …

ऐ स्त्री !आज भी हैं
तुम्हारे पास ऐसे कई सवाल
जो अभी तक हरे हैं तुम्हारी देह में
अब से नहीं , तब से , जब से
आज़ादी का ज़श्न मनाया जाता रहा है
जो लिखे जाते रहे हैं ज़ख़्मों के साथ तुम्हारी रूह पर
कभी तुम गुलामी की अँधेरी सुरंगों में दफ़्न रही
कभी नैतिकता ,अनैतिकता के सारे शब्द
टिका दिए गए तुम्हारी देह पर
पता नहीं स्त्री तुम अपनी देह में
ऐसा क्या लेकर जन्म लेती हो
जो तुम्हारी देह के सामने
संवेदना और उसकी आत्मा से जुड़े
सारे सवाल बौने जाते हैं ....

बदल दिए जाते हैं
तुम्हारे लिए आज़ादी के अर्थ
सज़ायाफ़्ता क़ैदी की तरह
स्वछंदता और स्वतंत्रता में कर दिया जाता है फ़र्क
सामाजिक बंधनों, मान्यताओं और सोच पर
लगा दी जाती हैं बंदिशें
तुम आज भी कभी अपने गर्भ में लिए जगह ढूंढती हो
तो कभी अपने अस्तित्व के लिए
साहित्य के बाज़ार में स्त्री विमर्श का
एक झुनझुना बजा दिया जाता है हर वर्ष
जिसपर स्त्री यौनिकता के नाम पर
एक निरंकुश देहवादी विमर्श चलता है
पुरुष मानसिकता में रचा बसा
एक दूसरे दर्जे का स्त्री विमर्श …

आज न जाने क्यों
अट्हास कर उठी है मेरी कविता
डरी, सहमी हुई वह कातर नज़रों से
खींचती है तिरंगे की डोर
और पूछती है उससे
आज़ादी के सही मायने …!!

16 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

हमेशा की तरह लाजवाब ।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

ज्वलंत प्रश्न... यह कैसा आज़ादी का जश्न!!

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 15/अगस्त/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सामयिक प्रश्न...उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति... आप को स्वतंत्रता दिवस की बहुत-बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ

कविता रावत said...

सदियों से स्त्री पर सवाल ही तो उठे हैं ..कभी उसे पूज भी लिया गया, कभी उसे देवी भी कहा गया.....लेकिन सवाल उसी पर उठाये गए ....वास्तव में आज भी आजादी के लिए उसकी छटपटाहट जगह-जगह देखी जाती है जिसे अनदेखा कर लेने में ज्यादा समय नहीं लगता ...
आजादी के इस जश्न के मौके पर सार्थक चिन्तन के हेतु धन्यवाद
राष्ट्रीय पर्व की हार्दिक शुभकामनायें!

Onkar said...

सशक्त रचना

Vaanbhatt said...

शानदार सार्थक प्रस्तुति...

Himkar Shyam said...

बहुत ही वाजिब सवाल... सार्थक चिंतन, उम्दा अभिव्यक्ति...जश्ने आज़ादी के बीच ऐसे सवाल मन को सालते रहे हैं...
तड़प रही आबादी,क्या जश्ने आज़ादी!!

Himkar Shyam said...

बहुत ही वाजिब सवाल... सार्थक चिंतन, उम्दा अभिव्यक्ति...जश्ने आज़ादी के बीच ऐसे सवाल मन को सालते रहे हैं...
तड़प रही आबादी,क्या जश्ने आज़ादी!!

Asha Joglekar said...

देश की पचास प्रतिशत आबादी के लिये आजादी आज भी छलावा है। कभी किसी आड तो कभी किसी ये उससे हमेशा छिनती रही है।

Asha Joglekar said...

देश के पचास प्रतिशत आबादी की आजादी पर ये जलता सवाल है।

Himkar Shyam said...

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ...

hem pandey(शकुनाखर) said...

इस आजादी की लम्बी लड़ाई अभी बाकी है ।

Asha Joglekar said...

हीर जी क्या नाराज हैं जो ब्लॉग पर नही लिक रहीं?

Sonali said...

आपने काफी सुन्दर लिखा है...
इसी विषय Muslim women in India से सम्बंधित मिथिलेश२०२०.कॉम पर लिखा गया लेख अवश्य देखिये!

Unknown said...

बेहतरीन पेशकश .... आगे भी जारी रखिएगा