मुहब्बत का लफ़्ज़ ……
कभी -कभी सोचती हूँ
रिश्तों के फूल काटें क्योँ बन जाते हैं
औरत को दान देते वक़्त
रब्ब क्यों क़त्ल कर देता है उसके ख़्वाब
कुछ उदास आवाजें
मुर्दा पेड़ों के पत्तों दम तोड़ देती हैँ
एक गुमनाम रात झूठ के ज़ुल्म पर
चुपचाप ख़ामोश बैठी है
और ज़ेहन में उठते सवाल
विधवा के लिबास में मौन खड़े हैँ …
मातमी परिंदे फड़फड़ा रहे हैं
सफ़ेद चादरों में क़हक़हा लगा रही है ज़िंदगी
कुछ आधा मुर्दा ख़्वाब
रस्सियाँ तोड़ते हैं
आंसू ज़मीन पर गिरकर
खोदने लगते हैं क़ब्र …
धीरे -धीरे दर्द मुस्कुराता है
अगर कुछ बदलना चाहती हो तो
अपनी इबादत का अंदाज बदल
तू रात की स्याही से चाँद नहीँ लिख सकती
अँधेरे की दास्तान सुब्ह की किरण लिखती है
तुम अपनी आँगन की मिटटी को बुहार कर
बो देना फिर कोई सुर्ख़ गुलाब
इन अक्षरों में मुहब्बत का लफ़्ज
अभी मरा नहीं है …
हरकीरत 'हीर '
कभी -कभी सोचती हूँ
रिश्तों के फूल काटें क्योँ बन जाते हैं
औरत को दान देते वक़्त
रब्ब क्यों क़त्ल कर देता है उसके ख़्वाब
कुछ उदास आवाजें
मुर्दा पेड़ों के पत्तों दम तोड़ देती हैँ
एक गुमनाम रात झूठ के ज़ुल्म पर
चुपचाप ख़ामोश बैठी है
और ज़ेहन में उठते सवाल
विधवा के लिबास में मौन खड़े हैँ …
मातमी परिंदे फड़फड़ा रहे हैं
सफ़ेद चादरों में क़हक़हा लगा रही है ज़िंदगी
कुछ आधा मुर्दा ख़्वाब
रस्सियाँ तोड़ते हैं
आंसू ज़मीन पर गिरकर
खोदने लगते हैं क़ब्र …
धीरे -धीरे दर्द मुस्कुराता है
अगर कुछ बदलना चाहती हो तो
अपनी इबादत का अंदाज बदल
तू रात की स्याही से चाँद नहीँ लिख सकती
अँधेरे की दास्तान सुब्ह की किरण लिखती है
तुम अपनी आँगन की मिटटी को बुहार कर
बो देना फिर कोई सुर्ख़ गुलाब
इन अक्षरों में मुहब्बत का लफ़्ज
अभी मरा नहीं है …
हरकीरत 'हीर '
19 comments:
तीखे तेवरों के साथ की हुई अभिव्यक्ति कुछ झिँझोड़ती हुई ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (08-05-2014) को आशा है { चर्चा - 1606 } पर भी है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हर लफ्ज़ मन की धरा पर गहराई से लकीर उकेरता हुआ ! बहुत ही बेहतरीन रचना ! आभार !
बहुत खूब, सुंदर रचना
कुछ रचनाएँ शाबाशी या तारीफ की हक़दार नहीं होतीं... उन्हें रूह से महसूस करने की ज़रूरत होती है!! यह उसी श्रेणी की रचना है!!
गहराई लिए सुन्दर रचना हुत खूब
बेहतरीन भावों को समेटे सुंदर प्रस्तुति।।।
तुम अपनी आँगन की मिटटी को बुहार कर
बो देना फिर कोई सुर्ख़ गुलाब
इन अक्षरों में मुहब्बत का लफ़्ज
अभी मरा नहीं है …
वाऽऽह…!
नमन !!
मुहब्बत ज़िंदा रहती है, मुहब्बत मर नहीं सकती...
अजी ! इंसान तो क्या... ये ख़ुदा से डर नहीं सकती...
बहुत ख़ूब नाम के अनुरूप...
बहुत सुंदर
मुहब्बत हर हाल में जिंदा रहती है. बेहद खूबसूरत और ऊंचे मेयार की नज़्म. इसमें तल्खी भी है, मुहब्बत भी.
दिल को छूनेवाली बेहतरीन रचना ....
सशक्त और सार्थक लेखन हमेशा की तरह. आपकी रचनाएँ सोचने को मज़बूर कर देती है. बहुत बहुत बधाई।
धीरे -धीरे दर्द मुस्कुराता है
अगर कुछ बदलना चाहती हो तो
अपनी इबादत का अंदाज बदल
तू रात की स्याही से चाँद नहीँ लिख सकती
अँधेरे की दास्तान सुब्ह की किरण लिखती है
बहुत सुन्दर
बहुत ही गहन रचना, शुभकामनाएं.
रामराम.
"इन अक्षरों में मुहब्बत का लफ़्ज
अभी मरा नहीं है"
बहुत सुन्दर..
जबरदस्त...
तू रात की स्याही से चाँद नहीँ लिख सकती
अँधेरे की दास्तान सुब्ह की किरण लिखती है
दिल को छूनेवाली बेहतरीन रचना :))
"तू रात की स्याही से चाँद नहीँ लिख सकती"
waah kya khayaal hai!!!
मातमी परिंदे फड़फड़ा रहे हैं
सफ़ेद चादरों में क़हक़हा लगा रही है ज़िंदगी
कुछ आधा मुर्दा ख़्वाब
रस्सियाँ तोड़ते हैं
आंसू ज़मीन पर गिरकर
खोदने लगते हैं क़ब्र …
............Wah......
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