एक गुज़ारिश आप सब से भी .... कि इस तरह की चोरी को जहाँ भी देखें पुरजोर विरोध करें ....
और अब फिर रहट की टूटती रस्सी का अंतर्नाद है ...कैदी नज्में आँखों की नमी से सवाल करती हैं ....मिट्टी अपने हाथ खोलती है ....मेरे सामने बस में एक स्त्री ... इतने गर्म मौसम में भी हाथों में काले दस्ताने ... पैरों में काले मोज़े ... ज़िस्म को ऊपर से नीचे तक काले बुर्के से ढके बैठी ॥मुझे फिर वही सवाल पूछने पर मजबूर करती है .....

ख़ामोशी चीरते सवाल ......
पत्थरों के फफोले
विडम्बनाओं की ज़मीं
उठाकर चल पड़े हैं .....
बिलकुल वैसे ही जैसे
तुम बाँध देते हो हवाओं को
और एक जलती लकीर खीँच देते हो
उसके ज़िस्म पर ....
नामुराद......
सिल पर पड़ी
ये तिजारत की धूप भी ......
अपनी देह से साँस लेने की
अनुमति मांगती है .....
एक ज़िन्दगीहीन
कारखाने की ख्राशज़दा साँसें
जिसकी चिमनी में ज़ख्मों का
धुआँ अटका पड़ा है .....
हवा तड़प उठी है
तुम्हारे शब्दों की तीलियों से ...
हर एक फब्ती ज़श्न मनाती है
अपनी जीत पर .....
मेरे सामने की मेज से
कोई नज़्म फड़फड़ा कर गिरी है
तुम्हारे पैरों तले ...
अपने लफ़्ज़ों की पैरवी करने ..
सुनो.....
तुम्हारे पास कैंची हो तो
काट देना इसके पर
फिर ये फड़फड़ाएगी नहीं
ज़िन्दगी की तलाश में .....
न जाने क्यों...
फिजां में उठता ये धुआँ मुझे
तस्कीन दे रहा है .....
मौसम के बदलने की ...
ये तुम्हारे चेहरे पर
प्यास के निशान क्यों उभर आये हैं ....?
सकपकाए से तुम्हारे शब्द
इतने विचलित क्यों हैं ......?
मैं नहीं तोडूंगी तुम्हारे एक्वेरियम की दीवारें
तुम्हें खुद मुझे बुर्के से आज़ाद करना होगा ...
इन विडम्बनाओं के पुल के नीचे
थका हुआ पानी अब .....
ख़ामोशी चीरना चाहता है .......!!