खौफ़ ....ज़ंजीर....और पिंजरा ...अक्सर औरत और चिड़िया अपने नसीबों में मेहँदी के साथ इनका नाम भी लिखा लाती हैं .....और मौत ....जी भर दर्द पीने भी नहीं देती के हक़ जताने आ खड़ी होती है ....उजाला बेशक रास्ता भूल जाये ...पर कम्बखत ये नहीं भूलती ......औरत का दर्द नंगे पाँव चलकर आता है ....जब साँस उखड़ने लगती है तो वह पी लेना चाहती है एक ही बार में सारे गम ......पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है .....
रब्बा अपनी दुनियाँ में इक हँसी का जंगल उगाना ......जहाँ रूहें अपने पंख पसार खुले आसमां में बेखौफ उड़ सकें ......
(१)
झुलसे पंख
वह मासूम सी
इक दिन महानगर के
इक विशाल दरख़्त पे जा बैठी
अचानक पत्तों ने इक आग सी उगली
और उसके पंख झुलस गए
अब वह उड़ती नहीं .......!!
(२)
खौफ़
अचानक
इक खौफनाक
धमाके की आवाज़ हुई
वह जहाँ थी वहीँ सिकुड़ गई
खौफ़ ने उसे उड़ना भुला दिया .....!!
(३)
ज़ंजीर
उसने बड़ी उम्मीद से
आसमां की ओर देखा
पंख फड़फड़ाये .....
उडारी भरने की कोशिश में
औंधे मुँह जा गिरी
उसने झुककर नीचे देखा
इक ज़ंजीर पैरों से बंधी थी .......!!
(४)
पिंजरा
वह .....
बरसों से कैद थी
पिंजरे में
आज जब मैंने उसे
मुक्त करना चाहा
तो देखा .....
उसका ज़िस्म
पत्थर हो गया है .......!!
(५)
प्यास
वह प्यासी थी
पर प्यास उसे पानी की न थी
वह पी लेना चाहती थी
उसके होंठों से
अपने हिस्से के
तमाम दर्द .....!!
Wednesday, May 19, 2010
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79 comments:
उफ्फ्फ...हरकीरत जी ! " झुलसे पंख" ने दिल ले लिया....वैसे सभी बहुत अच्छी लगीं.
वह जहाँ थी वहीँ सिकुड़ गई
खौफ़ ने उसे उड़ना भुला दिया .
वाह हकीर जी वाह
सभी एक से बढ़कर एक लगें , सुन्दर प्रस्तुति ।
waah ek chidiya ke maadhyam se kitni saari baatein kah di...
हरकीरत ' हीर'जी
झुलसेपंख,खौफ़,ज़ंजीर,पिंजरा,प्यास
पांचों कविताओं ने झिंझोड़ कर रख दिया ।
एक बार तो आईना देखने से भी ख़ौफ़ हो आया । … क्या वाकई औरत के साथ ऐसा भी होता है ? क्या हर औरत के साथ यही होता है ? क्या पुरुष इतना स्वार्थी और निर्दयी होता है ? क्या हर पुरुष…?
श्रीमतीजी को सामने मुस्कुराते हुए देख रहा हूं तो अचानक मन की घाटी में उभर कर छा गया अपराधबोध का कुहासा छट गया … और राहत की सांस ली ।
बड़ी मेहरबानी , भले और शरीफ़ मर्दों को तो बख़्श दिया करें !
… कविताओं में उकेरी गई संवेदनशीलता का प्रभाव ? … भई क्या कहने !
पिंजरा कविता ने रूह भी सीली कर दी ।
वाह ! बहुत अच्छे ! शाबास ! क्या कहने ! इन शब्दों को प्रतिक्रिया के लिए काम लूंगा तो बेचारों का बौनापन ही सामने आएगा …
बेहतर होगा कि रूहें अपने एहसासात ख़ामोशी से बांटती रहें ।
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
बस ये कहना चाहूंगी.......
झुलसे पंख लिये
खौफजदा बैठ गई वो
जंजीरों में बन्ध कर
पिंजरे में
बन्द होठों में एक प्यास लिये
औरत का दर्द नंगे पाँव चलकर आता है ....जब साँस उखड़ने लगती है तो वह पी लेना चाहती है एक ही बार में सारे गम ......पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है .....
झुलसी हुई, डरी हुई, जंजीरों में जकड़ी हुई, पिंजरे में कैद ...फिर भी किसी ओर के दर्द को पी लेने को आतुर...लेकिन आह!!!मौत जो दर्द की अंतिम परिणति है ...
रब्बा अपनी दुनियाँ में इक हँसी का जंगल उगाना ......जहाँ रूहें अपने पंख पसार खुले आसमां में बेखौफ उड़ सकें ......
हे रब्ब तूं हीर दी प्रार्थना सुन ...इस दुनिया दे विच हँसी दा जंगल उगा ...
ज़िंदगी तो बेवफ़ा है,
एक दिन ठुकराएगी,
मौत महबूबा है,
जो साथ लेकर जाएगी,
मरके जीने की कला,
जो दुनिया को सिखलाएगा,
वो मुकद्दर का सिकंदर,
जानेमन...कहलाएगा...
जय हिंद
उफ़, दर्द की इन्तेहा कर दी आपने, आपके शब्दों से दर्द टपकता है, क्या कहूँ आप की इन रचनाओं पर, आप सामने वाले को लाचार कर देती हैं, मैं आप की इन रचनाओं को पढ़ कर कोई प्रतिक्रिया देने में असमर्थ हूँ, मैं निशब्द हो गया हूँ, आप की अब तक जितनी रचनाएँ पढ़ी हैं सबसे बेहतरीन ये रचनाएँ लगी, आपके शब्दों में जो है वो मैं सिर्फ महसूस कर सकता हूँ, मैं शब्दों का इतना धनी नहीं हूँ की आपकी इन रचनाओं पर कुछ कहूँ, मैं तो आपसे सिर्फ प्रेरणा ले सकता हूँ! ये सब मैं दिल से लिख रहा हूँ, इसे सिर्फ टिप्पणी के तौर पर मत लीजियेगा! बहुत बहुत धन्यवाद्!
(३)
ज़ंजीर
उसने बड़ी उम्मीद से
आसमां की ओर देखा
पंख फड़फड़ाये .....
उडारी भरने की कोशिश में
औंधे मुँह जा गिरी
उसने झुककर नीचे देखा
इक ज़ंजीर पैरों से बंधी थी .......!!
(४)
पिंजरा
वह .....
बरसों से कैद थी
पिंजरे में
आज जब मैंने उसे
मुक्त करना चाहा
तो देखा .....
उसका ज़िस्म
पत्थर हो गया है .......!!
आपके इन पंक्तियों ने सच मुच मन को भाबुक कर दिया, मन फिर सोचने पर मजबूर हो गया है, कैसे नारी को मिलेगी इस खौफ, जंजीर और पिंजरे की ज़िन्दगी से मुक्ति, और कब वो खुल कर अपने पंखों को फडफडाएगी और खुले आशमान में उड़ पायेगी?
अमित~~
उसने बड़ी उम्मीद से
आसमां की ओर देखा
पंख फड़फड़ाये .....
उडारी भरने की कोशिश में
औंधे मुँह जा गिरी
उसने झुककर नीचे देखा
इक ज़ंजीर पैरों से बंधी थी .......!!
औरत का दर्द नंगे पाँव चलकर आता है'
बहुत ही गहराई से आपने बयान किया है औरत के दर्द को. जमाने ने दिया क्या है औरत को!! मेरी नज़र भी दौड़ गयी हालात पर :
तुम इस दर्द को
सच मत मानना
मुझे यकीन है
तुम्हें यह दर्द कदाचित
दर्द ही नहीं लगेगा
जब रूबरू हो जाओगी
इससे बड़े दर्दों से
जो कतार में खड़े हैं
(क्षमा याचना सहित)
सुन्दर प्रस्तुति...
उम्दा और भावपूर्ण क्षणिकाएँ..हरकिरत जी धन्यवाद कहना चाहूँगा ऐसे बेहतरीन भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए..
स्त्रियोँ पर सार्थक एवं
समर्थ टिप्पणी करती
हैँ आपकी ये क्षणिकाएँ
सराहनीय रचनाकर्म
आपकी रचनाएँ....
एक शब्द!! अद्भुत!! वाकई!
न उड़ पाने की व्यथा को सहज व भिन्न कोणों से व्यक्त करने की बधाई ।
bahut-bahut shukriya..aap mere bete-yash tiwari ke blog par aayee..vah abhi chhota hai..aap sab ka aashirvad,pyar isi tarah mileta rahega ,umeed karati hoo.. aap ki kya tarif karoo.. aap to lazvab hai hi.. gazab likhti hai..
खौफ ---ज़ंजीर ---पिंजरा -- -प्यास --
वाह , एक से बढ़कर एक ।
कितनी आसानी से आपने इतनी गहरे दर्द की बातें कह दी ।
सुभानाल्लाह ।
कवितायें तो बहुत अच्छी हैं..
हमेशा की तरह...
किन्तु, इतना दर्द क्यों?
और इतनी निराशा क्यों??
जीवन तो जीवन ही है, इसमें अच्छा और बुरा दोनों हैं..
समय बदल रहा है, और दशा भी...
आशा और प्रयास से अंत अच्छा ही होगा!!
प्रणाम,
जयंत
ओफ्फ,मार्मिकता सभी छोर को छूती आपकी ये रचनाये!दर्द जैसे सारा यही सिमट आया हो!आप स्वयं भी रोती बहुत होंगी लिखने से पहले.........
कुंवर जी,
आपकी रचनाओं के साथ खास बात यह है कि उनमें जरा भी बनावटीपन नहीं है. इधर मैं लगातार दूसरों को भी पढ़ रहा हूं। कविता या गजल के नाम पर वे लोग तमाशा ही कर रहे हैं. किसी घटिया लघुकथा लिखने वाले ने कुछ लिख दिया तो वहां से एकाध लाइन चुराकर पूरी गजल बना ली.
आपकी कविता
पैरों में जंजीर बंधी थी.. जब आजाद हुई तो उड़ न सकी पत्थर बन चुका था.
एकदम से नए बिंब.
इसे कहते हैं कविता
आपके ब्लाग को भी मैंने पूरा देखा है उसमें एक भी रचना फालतू नहीं है.
बस मेरा एक निवेदन मानिएगा
इधर ब्लाग जगत में लोगों को नेता या नेत्री बनने का जो शौक चर्राया हुआ है उससे किनारा करके ही चलिएगा.
आपकी लेखनी ही आपकी विशिष्ठ पहचान है जो आपको भीड़तंत्र से अलग खड़ा करती है.
आप हमेशा अच्छा लिखे इन्ही शुभकामनाओं के साथ.
होट और प्यास के मिलन में कई किन्तु परंतू बह ते रहते हैं
सादर वन्दे !
जब से डाली कटी नीम की, आना जाना भूल गयी
सदमा खाकर एक बेचारी बुलबुल गाना भूल गयी
रत्नेश त्रिपाठी
"झुलसे पंख" aur "खौफ़" padhke achcha laga...ek vedana hai..lekin dono padh ke ek hi khayalman mein aata hai....ki shayad apni udaan pe itna vishwas na kiya ho....ek choti si peshkash isi daur mein:
"ye uske parwaaz ki zeenat thi-
jo har koi use kaid karna chahta tha.
ek baar galti se baith gayi wo ghadiyalon ke beech.....
har gaam pe ek sayyaad intezaar mein tha,
usne aankhein meench li-
ye jahan upaar se ek jhoot dikhta hai
aur pankh faylaa diye.....
sabne dekha us parwaaz ko kareeb se-
mehsoos kiya us ranaaeeyat ko.
aaj bhi sab uska khwaab dekhte hain-farishte ka
aur ek parwaaz ki khwaish hai..."
"ज़ंजीर" aur "पिंजरा" ke baare mein ek baat kahunga....
ye majboori insaan ki insaan ki kamzori hai ya uske astitva ka ek satya....
नमस्कार जी...
शब्द मेरे खो गए हैं ...
पढके तेरे शब्द ये...
मौन ही रहना है बेहतर...
हम कहें तो क्या कहें...
हर कविता में दर्द की इन्तहा...
दीपक शुक्ल...
पंजरे में भी
रखा था
बंधा कर
जंजीर से ,
पत्तों की
आग से
जब
झुलस गए
पंख तो
प्यासी वेदना लिए
वो
पत्थर हो गयी...
एक एक खनिक घज़ब की...ना जाने कितने मंज़र आ गए आँखों के सामने ...
पंख, खौफ, पिंजरा, प्यास उफ़ ...क्या क्या कह दिया अपने तो दर्द का हर पर्याय तो कह दिया अब बाकी ही क्या रहा, मार्मिक पोस्ट
खौफ़ ....ज़ंजीर....और पिंजरा ...अक्सर औरत और चिड़िया अपने नसीबों में मेहँदी के साथ इनका नाम भी लिखा लाती हैं .....और मौत ....जी भर दर्द पीने भी नहीं देती के हक़ जताने आ खड़ी होती है ....उजाला बेशक रास्ता भूल जाये ...पर कम्बखत ये नहीं भूलती ......औरत का दर्द नंगे पाँव चलकर आता है ..
Gahari samvedna se paripurn aapki rachna man udelit kar gahare utar kar dardbhari tadaf ka abhash karati hai....
Sarthak bhavpurn prasuti ke liya dhanyavaad
'औरत और चिड़िया'
बहुत खूब तुलना की है!
'हंसी का जंगल'..क्या बात है!
ज़रूर बनेगा एक दिन.
मन को भीतर तक झकझोर देती हैं ये क्षणिकाएं..
'पिंजरा' तो एक्सट्रीम है !
कितनी वेदना है इन क्षणिकाओं में!
अचानक
इक खौफनाक
धमाके की आवाज़ हुई
वह जहाँ थी वहीँ सिकुड़ गई
खौफ़ ने उसे उड़ना भुला दिया .....!!सुन्दर प्रस्तुति ।
वह .....
बरसों से कैद थी
पिंजरे में
आज जब मैंने उसे
मुक्त करना चाहा
तो देखा .....
उसका ज़िस्म
पत्थर हो गया है .....
बहुत ही कमाल कि रचना है...जब आत्मा ही मर गयी तो जिस्म पत्थर होना ही था
पिंजरा
वह .....
बरसों से कैद थी
पिंजरे में
आज जब मैंने उसे
मुक्त करना चाहा
तो देखा .....
उसका ज़िस्म
पत्थर हो गया है .......!!
(५)
प्यास
वह प्यासी थी
पर प्यास उसे पानी की न थी
वह पी लेना चाहती थी
उसके होंठों से
अपने हिस्से के
तमाम दर्द .....!!
very nice poetry
पंख उड़ना भूल चुके जब उसने पिंजरा खोला ...
मगर फिर भी मैं तो यही कहती हूँ ...
छितराए चाहे पंख बहुत बेख़ौफ़ मगर परवाज़ हो ...!!
"उडारी भरने की कोशिश में
औंधे मुँह जा गिरी
उसने झुककर नीचे देखा
इक ज़ंजीर पैरों से बंधी थी .......!!"
अथाह दर्दों की बानिगी पेश करती आपकी रचनाएँ पढ़कर विश्वास नहीं होता कि मेरी पिछली २-३ रचनाओं पर की गई टिप्पणी आप द्वारा ही लिखी गई हैं विशेषतः लिस्ट वाली?
सभी मुक्तक बहुत सुन्दर-सटीक.
वह .....
बरसों से कैद थी
पिंजरे में
आज जब मैंने उसे
मुक्त करना चाहा
तो देखा .....
उसका ज़िस्म
पत्थर हो गया है
कमाल है ये.
स्त्री के शाश्वत सत्य तो लक्षित करती रचनाएँ.
बेहतरीन अभिव्यक्ति और बिम्ब-विधान.
बधाई स्वीकारें.
harkirat ji...kya kehoon...kalam hai ya jadoo! :)
सभी रचना एक से बढ कर एक सुंदर. धन्यवाद
मन भावुक हो बह चला....
स्त्री जीवन का यथार्थ ऐसे बयां कर दिया आपने कि ...उफ्फ्फ...
मार्मिक मनमोहक अतिसुन्दर क्षणिकाएं...
kya kahun........nishabd hun.....dard ko bahut karine se shabdon mein bandha hai.
वह .....
बरसों से कैद थी
पिंजरे में
आज जब मैंने उसे
मुक्त करना चाहा
तो देखा .....
उसका ज़िस्म
पत्थर हो गया है ...
कितना गहरा .. कितना दर्द है इन सब रचनाओं में .... देखने में कुछ ही शब्द पर बहुत लंबी और मार्मिक दास्तान लिए हर रचना ... कमाल का लिखा है आपने ...
bahut khubb likha hai aapne...
waah waah karne ko dil kiya....
yun hi likhte rahein...
-----------------------------------
mere blog par meri nayi kavita,
हाँ मुसलमान हूँ मैं.....
jaroor aayein...
aapki pratikriya ka intzaar rahega...
regards..
http://i555.blogspot.com/
Wonderful!!
Like always :)
"अपने हिस्से के
तमाम दर्द .....!!"
Andar tak chooh gayaa harr lafz...
Aap harr baar mann mooh lete ho :) apne shabdo se aur bhaawo ko prakat karne ki iss adaa se!!
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
अच्छी लगी सभी क्षणिकाएँ।
वाह जी हरकीरत जी! तुस्सी ते काळजा ई कड्ड लया। पंजेँ कवितावां बो'तियां ई चंगियां।छोटियां छोटियां पर वल्लियां!
लक्ख लक्ख वधाईयां। तुस्सी मेरे ब्लाग ते वी गेड़ा मारदे रैया करो!
वह ..बरसों से कैद थी..पिंजरे में
आज जब मैंने उसे..मुक्त करना चाहा..तो देखा .
उसका ज़िस्म...पत्थर हो गया है ...
सब कुछ इतना खास के आम शब्दों में वाह.वाह करना बेमानी है.
राजगोपाल सिंह जी का बेटियों के हवाले से कहा गया एक दोहा याद आ रहा है-
तेरे जैसी हो गई मैं शादी के बाद
आती तो होगे तुझे मिट्ठू मेरी याद
Bas "Adbhut" se zyada kuchh nahi kah sakta.....shabd hi nahi hain mere paas aur kuchh kahne ke liye.
स्तब्ध रह गया मैं इस तड़प को पढ़कर...
aapki har shairi kabile tareef hoti hai ... aap behtareen shaira hai jiske tareef ke liye hamare pass alfaaz nahi
yeh mishre to bahut hi khoobsurat hai
वह प्यासी थी
पर प्यास उसे पानी की न थी
वह पी लेना चाहती थी
उसके होंठों से
अपने हिस्से के
तमाम दर्द .....!!
हरकीरत जी, ऐसा कई बार होता है... मैं टिप्पणी नहीं करना चाहता (या नहीं कर पाता).
"खौफ़ ....ज़ंजीर....और पिंजरा ...अक्सर औरत और चिड़िया अपने नसीबों में मेहँदी के साथ इनका नाम भी लिखा लाती हैं .....और मौत ....जी भर दर्द पीने भी नहीं देती के हक़ जताने आ खड़ी होती है ...."
ये सब क्या है... आप तो दर्द बेच लेती है किसी भी भाव में.
आगे की सभी रचनाओं पर मैं यही कहूंगा... इसे पुस्तक रूप में कब ला रहीं है आप. कोई सहयोग चाहिए तो खुलकर कहना न भूलियेगा.
hrkirt ji ye shashvt sty hai ki dukh batne se hlka hota hai .
aapka to pta nhi mgr aapki kvitaon pr aaye comments pd ke mai jrur pnkh si hlki ho rhi hun.chliye udte hai .
vo subha kbhi to aayegi .
झुलसे पंख का कोई जबाब नही , लाजबाब ।
पूरी पोस्ट अद्भुत कथ्य व शिल्प से युक्त ।
ek aurat ke dard ko bakhubi chitrith kiya hain.
padhkar ek tees ubhar aati hain.
ऐसी रचनाएँ जो बोलती बंद कर दें.
ऐसी रचनाएँ जो पथरा दें.
ऐसे प्रतीक और बिम्ब जो सीधे मस्तिष्क झिंझोड़ दें.
सच, स्त्री ने ऐसे नर्क झेले हैं लेकिन अब सूरते-हाल में काफी तब्दीली है.
कभी हम पुरुषों की व्यथा भी नज़्म करें.
जाने कब कहाँ किसी अनजाने दरख़्त पे मन जा बैठता है
और अपनी उड़ान भूल जाता है
रह जाते हैं यादों में
खौफज़दा पल
sabhi ki sabhi lajawaab... kahne ki jarurat hi nahi..khaas kar ye to behad pasand aayin
पिंजरा
वह .....
बरसों से कैद थी
पिंजरे में
आज जब मैंने उसे
मुक्त करना चाहा
तो देखा .....
उसका ज़िस्म
पत्थर हो गया है .......!!
बेहद भावुक रचना। सीधे ह्रदय को छू गई।
सभी क्षणिकाएँ गुलामी के दंश को अभिव्यक्त करती हैं.
अंदाज अलग बात एक जैसी...
मौत को देखकर
चिड़िया उड़ना भूय गयी
और यही उसकी शर्मनाक मौत का कारण बना.
..कैद में रहने की आदत पंख को कमजोर कर देती है.
..सुंदर अभिव्यक्ति.
"apne hisse ka taman dard" ... har rishte mein apne apne hisse ka dard-au-sukh hota hai ...humesha ki tareh ek nayab rachna!
बेहतरीन भावपूर्ण अभिव्यक्ति को लिए बधाई।
ਬਿਲਕੁਲ ...
ਬੇ ਲਫਜ਼ ਹਾਂ ....
ਵਾਹ !!
Dard bhari........saari kavitayen!! ek se badh kar ek hain........:)
aapke ahsaas ko salam!! kaise inn dard ko samet kar shabdo me utar pati hain..........
god bless ma'm!!
aapke comment ka wait hai..........mere blog pe!! plz!!
dil udha le gai..aapke jhulse pankh...
abhari hu aapki
http://liberalflorence.blogspot.com/
कही सोने के पिंजरे है .....कही चांदी की जंजीरे .....कही एक मुट्ठी आसमान है .....कही गज भर की उड़ान......फिर भी एक सवाल .....क्यों खुश नहीं हो ? सब कुछ तो है तुम्हारे पास....ओर क्या चाहिए तुम्हे ?
Aurat ka doosra naam hai kurbani. Aurat har jagah apne aap ko kurban kartee chalee aaee hai, beti ban kar, phir patni ban aur phir maa ban kar.
Harkeerat ji bahut hee sunder rachnae hai aap kee.
Mubark!
Hardeep
http://shabdonkaujala.blogspot.com
सभी रचनाएं खूबसूरत हैं, मुख्यतः अंत वाली अधिक प्रिय लगी.
HARKIRAT JI ,
SATSHRI AKAL !
KI GAL WA ?AJKAL SADE BLOG TE NI AAUNDE ?
RAH TE WAH KADE NI CHHADDI DA.
वह प्यासी थी
पर प्यास उसे पानी की न थी
वह पी लेना चाहती थी
उसके होंठों से
अपने हिस्से के
तमाम दर्द .....!!
उफ्फ्फ क्या विम्ब इस्तेमाल किया है आपने ......आपको पढता हूँ पता नहीं क्यों अमृता प्रीतम की याद आने लगती है...वही एक अनकहा दर्द जो अलफ़ाज़ बन कर बह निकलता है.......!
दर्द की सुंदर बारिश ...आपकी अँगुलियों से...
mere blog par...
तुम आओ तो चिराग रौशन हों.......
regards
http://i555.blogspot.com/
वाह जी बल्ले बल्ले
पत्तो से भी आग ..हीर जी आप तो जाने कहां कहां से उपमा ले आती हैं गजब हैं आपकी चंद लाईनों मे मार करने की क्षमता....सही में आप जबरदस्त हैं.
Fir se aaya...jo ki aajkal roj hi aataa hun.. :)
fir se padha...fir se utna hi achchha laga
Kuchh nahi post kiya kaafee dino se..
अक्सर तो नहीं...
मगर हाँ,
ऐसा होता है एकाध बदनसीब के साथ...कि मेंहदी के साथ ही भाग में..खौफ..और पिंजरा लिखा जाता है...
आपने उनका दर्द बहुत शिद्दत से उकेरा है...
सभी एक से बढ़कर एक, आखिर में मुझे नि:शब्द कर गये, बधाई ।
bahut sundar
bahut umda
अंटी अंटी आप सुन्दर लिखती हो मुझे भी सिखा दो ।
umdaa...bahut umdaa!!!
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