कविता अगर आपके मानसपटल पर बज्रपात नहीं करती तो महज आपके विचारों का तहखाना बनकर रह जाती है ....पिछले दिनों ब्लॉग जगत के कुछ युवा रचनाकारों ने सर्जना के प्रांगण में नए धरातलों को छूने का प्रयास किया है .... मुद्दत बाद पिछले दिनों चेतना - मंथन वाली कुछ ऐसी ही कवितायें ब्लॉग जगत में पढने को मिलीं ....उन्हीं में से इक कविता थी सागर (लेखनी जब फुर्सत पाती है ) की ....मुझे लगा इस लम्बी कविता को नोटिश में लिया जाना चाहिए ....कविता थी... " कवि कह गया है -7" कविता समाज के ह्रास होते विवेक पर गोली-बारी करती हुई मानों शोकगीत लिख देती है ....व्यक्तिवाद की क्रूरता,दगाबाजी, स्वार्थलोलुपता के यह कविता कपड़े उतारती प्रतीत होती है .....हल्का सा प्रतिवाद भी हुआ इस पर शब्दों को लेकर ....पर कविता चेतना को कचोटती है इस लिए कवि बधाई का पात्र है .....
उसी कविता से उपजी है यह कविता ...." खूंटियों पर टंगी श्लीलता ...."
मद्धिम है रौशनी
पर जलते अंगारे
अभी बुझे नहीं हैं
तपती रेत से
उठते बगुल
गढ़ते हैं परिभाषा
कविता की .....
खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता ....
कुछ हवा में गाँठ
बाँधने की कोशिश में
नग्न हो जाती है
बार-बार .....
अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता .....
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....
शायद तभी
आज का कवि
अश्लीलता की हद तक
शब्दों से करता है वज्रपात
और कविता ........
मुंहतोड़ प्रतिवाद में
खड़ी हो जाती है ......!!
Saturday, May 1, 2010
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83 comments:
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....
बहुत ही गहरे भाव लिए हुए
आभार
बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है
आपकी चिँताएं वाज़िब हैँ।
ब्लाग पर लिखने की स्वतंत्रता से शब्द की छवि धूमिल हुई है।भाषा भी पीड़ित हुई है।नए साहित्यकारों का आगमन तो सुखद है परन्तु उनमेँ धैर्य एवम गम्भीरता का अभाव निराश करता है।फुहड़ता भी आज कविता का अंग बन गई है।फुहड़ता एवम निम्न भाषा परोस कर लोग ताल ठोक रहे हैँ कि 'हम भए साहित्यकार !' बहुत सी रचनाएं देखता हूं जिन मेँ वाक्यविन्यास भाषा व व्याकरण से कौसोँ दूर होता है।प्रिँट मीडिया मेँ तो इन्हे किसी सू स्थान न मिले।खैर!
आपकी चिँताओँ को साधुवाद!
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....
शायद तभी
आज का कवि
अश्लीलता की हद तक
शब्दों से करता है वज्रपात
और कविता ........
मुंहतोड़ प्रतिवाद में
खड़ी हो जाती है ......!!
कभी कभी अपनी भावना को व्यक्त करने में शब्दों का आभाव पड़ जाता है, सिर्फ एक शब्द दिमाग में आ रहा है........ बेहतरीन रचना !
आपके प्रोत्साहन और प्रेरणा से ही ब्लॉग जगत में आया हूँ, मार्गदर्शन कीजियेगा!
खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता ....
कुछ हवा में गाँठ
बाँधने की कोशिश में
नग्न हो जाती है
बार-बार .....
अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता .....
Bahut khoob !
बिलकुल सही कहा आपने . अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग तो कविता भी सहन नहीं करती !
कहीं ना कहीं विरोध मुखर हो ही जाता है
सुंदर कविता के लिए बधाई !
bahut sundar bhaav sanchayan.
खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता ....
कुछ हवा में गाँठ
बाँधने की कोशिश में
नग्न हो जाती है
बार-बार .....
behad shandar..talkh misre hain ye
शायद तभी
आज का कवि
अश्लीलता की हद तक
शब्दों से करता है वज्रपात
और कविता ........
मुंहतोड़ प्रतिवाद में
खड़ी हो जाती है ......!!
haan ..aaj kal ka kavi zaroorat se jyada talkh ho gaya hai ...inhe ashleelta aur aur vivek par prahar karne wali rachnaon ke beech kle antar ko samjhna chahiye..
aap ki kaviuta achhi lagi .. :)
कब तक अश्लीलता परोसी जाती रहेगी ... शायद यह अपनी सभी हदें पार कर चुकी है और इससे जल्दी ही लोग ऊब जाएंगे ... लेकिन क्या लोग अपने विवेक से काम लेंगे या फिर किसी सिरफिरे के शब्दों के प्रतिवाद में कविता को खड़े होना पड़ेगा ...और वैचारिक जड़ता टूटेगी ताकि व्यक्ति का विवेक जिंदा रहे ...
एक सार्थक कविता ... मूल्यों का बोध कराती हुई ।
खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता ....
कुछ हवा में गाँठ
बाँधने की कोशिश में
नग्न हो जाती है
बार-बार .....
श्लीलता और अश्लीलता के दर्मियान और शायद सहगामी है थोथी और सस्ती लोकप्रियता की चाहत. पाले बदलने में माहिर होते जा रहे हैं शब्दों के वाहक.
किस हद तक आप खूबसूरत रचना कर लेती हैं
bahut sahi baat kahi....shabdo se chedchad bahut jyada badh gayi hai...aisa na ho ki ek din unse shabd hi rooth jaaye...
बहुत सुन्दर !
बहुत गहरे भाव !
बहुत प्रभावी शब्द चयन !
अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता .....
बहुत सही बात कह दी है...सच ही श्लीलता खूंटियों पर ही टंग कर रह गयी है....बहुत खूब .
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....
भई व्यावसायिकता अब साहित्य में भी तो घर कर गई है । इसलिए कवि बेचारे क्या करें।
अच्छा विश्लेषण किया है।
समय और काल से कौन बच पाया है
आपके विचारो से साहित्य के मीमांसको को प्रेरणा लेनी चाहिए । अच्छी रचनाए केवल नेट . पुस्तको . पत्र- पत्रिकाओ मे ही हैँ ऐसा कदापि नही है ।
मूर्खता और विवेक प्रत्येक आयुवर्ग मे उपलब्ध है अतः यह मूल्यांकन का निकष नही है ।
आपकी रचना अंतश्चेतना की प्रभावी अभिव्यक्ति है ।
"अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता ....."
sach mein श्लीलता खूंटियों पर tangi hai - aabhar
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता .....
बहुत बड़ी बात कह दी...जो एक निर्मम सत्य भी है
कविमन बहुत विचलित है ..जो कुछ चल रहा है ब्लॉग जगत में आपकी रचना उसी पीड़ा को व्यक्त करती है
कविता अगर आपके मानसपटल पर बज्रपात नहीं करती तो महज आपके विचारों का तहखाना बनकर रह जाती है ...सहमत.... बिलकुल सही कहा आपने....
बहुत गहराई लिए हुए.... दिल को छू गई यह पोस्ट....
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....
सत्य वचन
आपकी रचना के एक एक शब्द का आक्रोश महसूस कर सकते हैं....
हीरजी,
कविता गंभीर मनोमंथन का परिणाम लगती है ! शब्द-शब्द विचार-चिंतन को उत्प्रेरित करता है--हवा में लगी गांठें खोलता हुआ ! पंक्तियाँ उधृत करनी हों, तो आपकी पूरी कविता ही यहाँ रखनी होगी ! असाधारण भावाभिव्यक्ति ! अप्रतिम विचारणा !! अनूठी शब्द-रचना और शिल्प !! हर शब्द गहरे उतरता है और माथे में तूफ़ान मचा देता है ! साधुवाद !
साभिवादन--आ.
bahut asardaar panktiya hai .
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
bahut khoob.
अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र...
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके...
और कविता ........
मुंहतोड़ प्रतिवाद में
खड़ी हो जाती है ......!!
यथार्थ से आप्लावित कविता की सम्वेदना मन को छू रही है ...
खूंटियों पर टंगी है अश्लीलता...
एक फिल्म देखी थी...नाम नहीं याद आ रहा...उस फिल्म में एक डॉयलॉग था...रेड लाइट एरिया की एक बाई जी बोलती है...ये पुलिस वाले अपनी वर्दी का बड़ा रूआब झाड़ते हैं न,,,वर्दी को ही अपनी इज़्ज़त बताते हैं...रात को कोठों पर आकर देखो तो पता चलेगा कि खूटिंयों पर कितनी इज़्ज़तें टंगी रहती हैं...
जय हिंद...
कविता मुंहतोड़ प्रतिवाद में खड़ी हो जाती है !! ऐसा पहले भी हुआ है ,क्षुद्र विचारों के साथ अश्लीलता आई है ! कविता उन्हें दरकिनार करके आगे बढ़ जाती है ! इस विचार मंथन को प्रणाम !
खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता ....
कुछ हवा में गाँठ
बाँधने की कोशिश में
नग्न हो जाती है
बार-बार .....
वाह क्या शब्द-चित्र खींचा है आपने हरकीरत जी। वाह।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
हरकीरतजी, एक शब्द तराशा हुआ और अनुभव के साथ पकाया हुआ। निर्णय की रसाई अंदर तक। मुतासिर हूं।।
खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता ....
कुछ हवा में गाँठ
बाँधने की कोशिश में
नग्न हो जाती है
बार-बार .....
अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता .....
हरकीरतजी, एक शब्द तराशा हुआ और अनुभव के साथ पकाया हुआ। निर्णय की रसाई अंदर तक। मुतासिर हूं।।
bahut khub
badhai is ke liye aap ko
behad prabhavi!
सोचने को बाध्य करती है आपकी रचना ......
@सागर @दर्शन .....@गौरव @महेन जैसे कवि मुझे अपील करते है क्यूंकि उनकी नैसर्गिकता ही इस कथित अश्लील होने में है....उनकी रचनात्मक अपने आस पास से उपजी है .जिसमे दोहराव कम है ......कल्पना के सहारे शब्दों के पैतरे बैठाने वाले कवियों से इतर वे हकीक़त की परत ओर बेरहमी से उधेड़ते है......उस संसार में जो अपरिचित नहीं नजर आता...कभी कभी अलबत्ता तीखा लगता है ..पर कवि के विजन के विस्तृत दायरे को दिखाता है ....
अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता .....
सच कहा ....क्यूंकि अब शब्द सम्मान से कही ज्यादा जरूरी उस चेतना पर प्रहार करना है ....जो जड़ हो चुकी है ....
वैसे हैरान नहीं हूँ के अधिकतर टिपण्णी कर्ता आपकी बात का मर्म नहीं समझ पाए है ....आभासी जगत में ये स्वाभाविक प्रतिक्रिया है ....जहाँ कुछ टिप्पणिया बस रस्म भर है ...
बहुत ही लाजवाब रचना लगी ।
सभी टिपण्णीकर्ताओं से क्षमा चाहते हुए .....
मैंने जिन मनोभावों को लेकर यह कविता लिखी थी उसे सिर्फ डॉ अनुराग जी की टिप्पणी
पूरा करती है .....मैंने अश्लीलता के विरोध में नहीं लिखा ....ऐसा कवि क्यों करने पर बाध्य होता है
यह कहना चाहा है .....
सुनदर रचना ह
बधाइ
dr. ved vyathit
शालिनता से भी जग जीत सकते हैं।
आपकी कलम को तहे दिल से सलाम
bahut hi khubsurat rachna....
aapki lekhni ki jitni tareef ki jaaye kam hai.....
bahut bahut dhanyawaad aur badhai.........
regards
http://i555.blogspot.com/
मद्धिम है रौशनी
पर जलते अंगारे
अभी बुझे नहीं हैं
तपती रेत से
उठते बगुल
गढ़ते हैं परिभाषा
कविता की .....
Bahut Badhiya....
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....
वाह क्या बात है ... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
हरकीरत हीर जी,आप की पीड़ा बहुत सार्थक है ,हर एक रचनाकार इस पीड़ा से आह़त है.सुन्दर और संवेदनशील कविता के लिए बधाई.
very nice
..
.
सागर मे एक बेहद जरूरी मगर दुर्लभ निर्भयता और बेबाकी के साथ ही अपनी जिम्मेदारी समझने का सामर्थ्य है..तभी वो मुझे ब्लॉगिंग के युवा पीढ़ी के कविता के सबसे संभावनाशील नामों मे लगता है..और उसकी कवि-कह-गया-है क्रम की अन्य कविताएं भी उतनी ही सशक्त और मारक लगती हैं..फिर आप जैसे मूर्धन्य और शानदार रचनाकार द्वारा उसकी चर्चा उसके प्रतिभा-विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है..
अक्सर मेरे साथ ऐसा होता है कि किसी कविता की भूमिका पढ़ने के बाद ही दबे पांव लौट जाता हूँ..उसके स्वाद को जिह्वा पर देर तक महसूसने के लिये..यहाँ पहली ही पंक्ति
’कविता अगर आपके मानसपटल पर बज्रपात नहीं करती तो महज आपके विचारों का तहखाना बनकर रह जाती है
..ऐसी है कि किसी भी कविता लिखने के इच्छुक व्यक्ति को अपनी मेज पर टाँक लेनी चाहिये..वर्ना अक्सर वाहवाही चाहने के चक्कर मे हम कविता के मूल उद्देश्यों को खो देते हैं..और कविता वो नही रह जाती जो उसे होना चाहिये था..
...आपकी यह कविता कवि-कर्म की इसी सार्थकता की याद दिलाती हुई महसूस होती है..और बिल्कुल सच है कि वास्तविक कविता की परिभाषा वातानुकूलित कमरों मे रखे ऊबे हुए शरीर या स्क्रीन के ऊपर गड़ी कामातुर स्वार्थी आँखे नहीं वरन् जिंदगी की तपती रेत से उठते संधर्ष के बगूले गढ़ते हैं..मुझे इसी लिये पाश या धूमिल या नेरुदा या माया एंजलोउ पसंद हैं क्योंकि उन्होने कविता कभी लिखी नही वरन जी है....यहाँ कविता हमे जीना ही नही बल्कि उस जिंदगी की शिद्दत को महसूस करना सिखाती है....और श्लीलता, संस्कृति, साहित्य आदि की जो परिभाषाएं समाज गढ़ता है..कविता उनकी सीमाओं की विडम्बना का आख्यान होती है..वो जिंदगी की उन धड़कती रगों पर हाथ रखती है जो समाज की इन परिभाषाओं की संकीर्णता के कसाव से सबसे ज्यादा घुटती गयी होती हैं..तभी मुझे लगता है कि कवि होना कहीं न कही बागी होना होता है..क्योंकि खरा सच बोलना भी बागी होना ही होता है..और परिभाषाओं पर प्रश्नचिह्न लगाना खलनायक शब्दों के कटघरे मे खड़ा होना होता है..इसीलिये कवि/साहित्यकार के लिये रोटी कमाना मुश्किल मगर बदनाम होना आसान काम होता है..तभी शायद असली कविता वह होती होगी जो उन अजन्मे शब्दों को लौ दे जो अनगिन गलों मे चुपचाप घुट जाने को अभिशप्त रहते हैं..
आज का कवि
अश्लीलता की हद तक
शब्दों से करता है वज्रपात
और कविता ........
मुंहतोड़ प्रतिवाद में
खड़ी हो जाती है ......!!
खैर भावुकता मे लिखता गया हूँ..
Dear HEER JI i have reached to u through a link and i felt that you are a ocean of feelings and worry concern to human psychology. all your work is great as well as your poems and you...
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....
bahut hi gahree abhivyakti
खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता ....
कुछ हवा में गाँठ
बाँधने की कोशिश में
नग्न हो जाती है
बार-बार .....
...wah bahut sundar.
अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता .....
वाह !!!!!!!!! क्या बात है..... बहुत जबरदस्त अभिव्यक्ति, सोचने को बाध्य करती है आपकी रचना
सागर की कविता पर आपने आवश्यक चर्चा कर अपने काव्य चिन्तक की भूमिका निभायी...
सभी पंक्तियाँ यहाँ सही चोट कर रही है.
सटीक रचना , उम्दा सोच !
दिल बस यही कहता है .............. यह कहाँ आ गए हम ???
सुन्दर रचना हीर जी .....
शब्दोँ श्लीलता और अश्लीलता पर मतैक्य नहीँ होना स्वाभाविक है,. यह निजी विषय हो सकता है.
और जो लोग सागर हसन मंटो (मैँ उन्हे इसि नाम से बुलाता हूँ ) की लेखनी से परिचित है. उन्हे शब्द से अधिक उसके कुठाराघात का प्रभाव देखना चाहिये.
सत्य
अच्छी प्रस्तुति हैँ....
sahi mudde par chinta zahir ki hai aapne...kayi baar aisa bhi dekha jata hai ki samsya jo uthayi jati hai vo bahut visheh hoti hai lekin shabdo ka chunaav bahut bahut nimn hota hai..aisi rachnao ko dekh kar dukh bhi hota hai lekin santushti b hoti hai ki aaj ka hamara yuvak jagruk hai.
foohad shabdo ka prayog na kiya jaye kyuki sab ko ye sochna chaahiye...ki aaj ka hamara likha kal sahitye ka itihas ka roop le sakta hai to sab ek baar man me vichar kare ki kya paros rahe hai ham apni aane wali peedhi k liye.
अत्यंत प्रभावशाली,
प्रेरणाप्रद रचना।
कचरे के ढेर मेँ आग
लगाते ज्वलंत अक्षर।
अत्यंत प्रभावशाली,
प्रेरणाप्रद रचना।
कचरे के ढेर मेँ आग
लगाते ज्वलंत अक्षर।
शायद तभी
आज का कवि
अश्लीलता की हद तक
शब्दों से करता है वज्रपात
और कविता ........
मुंहतोड़ प्रतिवाद में
खड़ी हो जाती है ......!!
.... Bhavpurn prathbhumi ke saath aapne ham mere man ke dard ko vykt kar diya... vastav mein kuch log अश्लीलता ko apni bapouti samjh baithe hain... aise lekhakon ke muhn par karara tamacha hai yah...
Sundar prastuti ke liye aabhar.
बिलकुल सही कहा आपने . अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग तो कविता भी सहन नहीं करती !बहुत बड़ी बात कह दी...जो एक निर्मम सत्य भी है
हीर जी !
शब्द कैसे हैं ? , इससे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या वे संवेदना के वाहक हैं ?
श्लील शब्द अगर संवेदना के वाहक नहीं हैं तो कविता नहीं बनेगी ..
सुलटवासी अगर संवेदना की वाहिका नहीं तो उससे कविता भी नहीं ..
अश्लील शब्द अगर संवेदना के वाहक है तो उनसे कविता बनेगी , बेशक !
उलटवासी अगर संवेदना की वाहिका है तो उससे भी कविता बनेगी , बेशक !
[ कबीर के यहाँ जाइए इसके लिए ]
...... अतः सागर भाई की कविता में यह विचारणीय होना चाहिए कि वे अश्लील
शब्द क्या संवेदना के वाहक हैं ? अगर कविता बन रही है तो यह काव्य-कर्म है ,
कोई गुनाह नहीं , फिर कवि और कविता काबिले-तारीफ़ है ! नहीं तो श्लील शब्दों
की संवेदनाहीन बेल-बूटाकारी को भी काव्य-कसौटी पर असफल ही कहूंगा ..
....... धूमिल कविता को '' भाषा में आदमी होने की तमीज '' कहते हैं पर ज़रा जाइए
और देखिये उनके यहाँ और निकालिये श्लील-अश्लील का अनुपात ! धूमिल
अकवि { तथाकथित } होकर भी संवेदनशील हैं , यह उनकी सार्थकता है , सफलता है !
....... इन बातों को ब्लॉग जगत न समझ पाए तो इसमें मुझे आश्चर्य नहीं !
कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....
wakai wajib se praashn uthaate hain ye shabd
अमरेन्द्र से सम्पूर्ण सहमती !! आपके अच्छी सोच के लिए शुभकामनायें हरकीरत जी !
अब नहीं है किसी को
शब्द सम्मान की फ़िक्र
अहंकार की ढूह पर
पड़ी है एक उदात्त
वैचारिक जड़ता .....
-जिन शब्दों से सशक्त भाव अभिव्यक्ति हो .वे शब्द किस सीमा में बांधे होने चाहिये?कौन तय करेगा?शायद कवि..
आज ,विषय के अनुसार कवि को अपनी कविता में शब्दों को अभिव्यक्ति हेतु स्वतंत्र रखना होगा ताकि कृत्रिमता से हट कर रूढ़िवादिता से आगे नए आयाम बन सकें.
कवि और कविता दोनो में कभी कभी शब्दों का आभाव आ जाता है ... पर कविता मूक खड़ी रहती है अश्लील शब्दों के प्रहार से ..... ऐसे में ... चाहो तो मूक प्रतिवाद कह लें उसे ...
aapke blog ka koi jabab nahin.beautifull
बेहद ही वधिया
'खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता '
-इस श्लीलता को खूंटी से टांग कर शब्दों, भावों और विचारों में लाने की आवश्यकता है.
मुक्त छन्द में यह रचना अच्छी लगी । बधाई ।
हा हा हा....
इन युवा रचनाकारों का सरगना तो मैं ही हूँ! कृपया हम छिछले लोगों को भी कुछ स्थान दें.....
सच कहूं, मुझे ये कविता समझ में नहीं आयी!
सागर एक नायाब हीरा है और उसकी सबसे बडी खासियत है कि सच को सच बोलता है.. उसे चोले पहनाकर चिकने अन्दाज मे पेश नही करता..
"कुछ शब्द खलनायक से
लगाते है ठहाके
साहित्य और संस्कृति के
चिंताकुल प्रश्नों पर .....
शायद तभी
आज का कवि
अश्लीलता की हद तक
शब्दों से करता है वज्रपात
और कविता ........
मुंहतोड़ प्रतिवाद में
खड़ी हो जाती है ......!!"
बस यही है आज का कवि.. और मुझे ये कवि बडा पसन्द है..
सोचालय पर ज्यादा जाता हू.. सागर की ’कवि कह गया है’ श्रृंखला जबरद्स्त है.. मुझसे पुरानी कुछ छूट गयी है.. शुरुआत से पढनी है... बैठना है कभी..
बहुत ही खूबसूरत है भाव.........
हीर जी
यह कविता विचारोत्तेजक है........श्लीलता और अश्लीलता को केंद्र में रखकर लिखी रचना मन को आलोड़ित करती है.....बहुत बहुत धन्यवाद सार्थक लेखन के लिए.
Priya Harqeer,
Behad Prabhavi aur Khoobsurat!
Narendra
Priya Harqeer,
Behad Prabhavi aur Khoobsurat!
Narendra
kavita ke dwara aapne apne soch ko bahut kareene se rakha hai......Ma'm!!
waise sach kahun mere jaise tathakathit kavi bhi shabdo se waise hi khel kehlte hain, jis par hindi sahitya ko sayad glani ho.....lekin aap jaiso kee kavita ko dekh kar dhire dhire sayad kabhi hamare shabd bhi hans ka bole ........!!
dhanyawaad harkeerat jee, aisee uchh shrenni ki kavita ke liye......:)
लीलता शब्द इधर प्रचलन मे नही है . इसका अर्थ बताएँ तभी रचना पूरा आनन्द प्राप्त हो ।
अरुणेश मिश्र said...
लीलता शब्द इधर प्रचलन मे नही है . इसका अर्थ बताएँ तभी रचना पूरा आनन्द प्राप्त हो ।
आदरणीय अरुणेश जी ,
आपकी टिप्पणी पढ़ी और अपनी कविता पूरी छान मारी कहीं आपका कहा शब्द नहीं मिला .....
वैसे 'लीलता' शब्द भी प्रचलन में है यह 'लीलना' से बना है ....जिसका अर्थ है 'निगलना' .....!!
अरुणेश जी ,
आप इस कविता पर पहले भी कमेन्ट दे कर गए थे ........ऊपर देखें .....!!
आदरणीया बहन हीर जी ! मुझसे श्लीलता पढने मे अँधेरे के कारण अशुद्धि हो गयी . क्षमा करें ।
आपकी रचनाओँ का आस्वाद अमोल है ।
waah.....chinta ke saath kataaksh bhi. Ek saath do chot.
Harkeerat ji mera naam nagarjuna hai...Sandeep hamare mitra hain...
Bahumulya tippani ke liye dhanyawad..
आपकी कविता पर कुछ कह पाना मेरे बस की बात नहीं... बस बार-बार पढ़ने को जी चाहता है. सागर की कविताओं में निस्सन्देह बहुत संभावनायें हैं... जड़ हो गये समाज पर शब्दों से प्रहार करते हैं वो और फिर इस बात की चिन्ता नहीं कि शब्दों को किन सीमाओं में बाँधा जाये... और इन सीमाओं को तोड़ना ही होगा... अगर रूढ़ियाँ तोड़नी हैं तो.
खूंटियों पर
टंगी है श्लीलता ....
कुछ हवा में गाँठ
बाँधने की कोशिश में
नग्न हो जाती है
बार-बार .....
bahut khub likha hai aunty, is khubsurat rachna ke liye aapko badhaai ho aunty...
हमने आपकी सभी रचनाये पढ़ी और सुनी बहोत दर्द भी और अर्थ भी और कुछ नयेपन का अहेसास,
ब्लॉग्गिंग की दुनिया भले नया हु दर्द मेरा भी पुराना है. आभार
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