Saturday, May 16, 2009

कशमकश......

ई बार ज़िन्दगी.... ऐसे मोड़ पे लाकर खड़ा कर देती है .....जहां हम चाह कर भी .....सही निर्णय नहीं ले पाते.....दिल कुछ कहता है ......दिमाग कुछ ....जानते हुए भी कि इस रास्ते पर मंजिल नहीं ....हम चल पड़ते हैं ....और अचानक सामने रास्ता खत्म हो जाता है...........इन्हीं हालातों में उपजी है ये नज़्म ........." कशमकश "



इक अजीब सी
कशमकश है
अपने ही हाथों से
इक बुत बनाती हूँ

लम्हें दर लम्हें
उसे सजाती हूँ ,
संवारती हूँ ,
तराशती हूँ
और फ़िर ....
तोड़ देती हूँ ...



बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना....



चलते-चलते
ज़िन्दगी का
अकस्मात
ठहर जाना
और खेल का
इतिश्री
हो जाना ....!!

56 comments:

جسوندر سنگھ JASWINDER SINGH said...

haqeeqat

वीनस केसरी said...

अच्छे भाव, सुन्दर अभ्व्यक्ति

वीनस केसरी

शोभना चौरे said...

kam shbdo me bhut kuch diya

Akhileshwar Pandey said...

कुछ अधूरा-अधूरा सा लगा। क्‍यों और क्‍या पता नहीं। माफ कीजिएगा... शायद समझ नहीं पाया।

कडुवासच said...

... सुन्दर रचना !!!!

दिनेशराय द्विवेदी said...

किसी का पैदा होना
बढ़ना और मिट जाना
गति और समय का ही
दूसरा नाम है।

सुंदर रचना!

प्रिया said...

Harkirat Ji

jeevan chakra ko bahut hi sahaj tareke se vyakt kiya aapne

batkahi said...

kashamkash...yane..idhar bhi..udhar bhi..sambhavnaon ka naam hi jiwan hai...canvas par bikhri kaalikh der tak chhod di jaye sookh ke sthayee ho jaane ko...fir khatm ho jayega daur kashmkash ka...jiwan ki gati ko banaye rakhnewala aujaar hi to hai kavita,harkeerat ji

RAJNISH PARIHAR said...

जिंदगी में होता है ऐसे कई बार...चलते चलते जिंदगी ठहर सी जाती है..अपने ही हाथों से सब कुछ मिटने का सा जी करता है..

Yogesh Verma Swapn said...

bahut khoob, dard se paripurna kavitaon men aapka jawaab nahin.

डिम्पल मल्होत्रा said...

इक अजीब सी
कशमकश है
अपने ही हाथों से
इक बुत बनाती हूँ
लम्हें दर लम्हें
उसे सजाती हूँ ,
संवारती हूँ ,
तराशती हूँ
और फ़िर ....
तोड़ देती हूँ ...kahi pe apni kashmakash lagi....mind blowing...

डॉ .अनुराग said...

किसी उदास मोड़ से उठाये गए लम्हे मालूम पड़ते है ......बस आखिर की एक लाइन से न इत्तिफाकी है
"इतिश्री
हो जाना ....!!"

लगा अंत जैसे किसी ओर मोड़ पे मुड सकता था .....

Alpana Verma said...

चलते-चलते
ज़िन्दगी का
अकस्मात
ठहर जाना
और खेल का
इतिश्री
हो जाना ....!!
yahi to shuruaat hai Harkirat ji..isey ant samjhen ya nayi shuraat...

achchee rachna.

अलीम आज़मी said...

behtareen rachna....jitni bhi tareef ki jaaye kam hai aapki....aap alfaazo uski real jagah par lakar us rachna me jaan dal deti hai...bahut sunder

दिगम्बर नासवा said...

बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना....

सही कहा............जीवन में कई बार इंसान अनजाने रातों पर बिना सोचे समझे चलना पढता है...........और जब जागता है तब तक रास्ते ख़त्म हो जाते हैं...........बहुत ही प्रभावी तरीके से रक्खा है आपने अपनी बात को.........

रश्मि प्रभा... said...

बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना....
...
सत्य का स्वरुप यही होता है,बहुत सुन्दर

अमिताभ भूषण"अनहद" said...

चलते-चलते
ज़िन्दगी का
अकस्मात
ठहर जाना
और खेल का
इतिश्री
हो जाना ....!!
आप ने नियति और सत्य को बड़ी आसानी से समझा व समझाया है , बहुत खूब .

"अर्श" said...

BAHOT HI SAHI KAHAA HAI AAPNE KAFKIRAT JI AAPNE... KUCHH LAMHE AISE AATE HAI ZINDAGEE ME KE AAP US WAKHT EK AJIB SE KASHMAKASH ME RAHTE HAI AUR KI BHI PAHALU KO BEBAAKI SE FAISALAA NAHI LE PAATE ....
BAHOT HI KHUBSURAT NAZM HAI...

ARSH

pallavi trivedi said...

अच्छी कविता है लेकिन कृपया फोन्ट का रंग बदल दें......ग्रे कलर पर सफ़ेद फोन्ट दिखाई नहीं देता है!

Rajat Narula said...

its a very simple and sensitive interpretation of life cycle.. simply awesome..

hem pandey said...

नियति के चक्र का सुन्दर चित्रण. साधुवाद..

नीरज गोस्वामी said...

आपको पढना हमेशा ही जेहनी सूकून देता है...इतने अच्छे शब्द और ज़ज्बात पिरोती हैं आप अपनी रचना में की पाठक उसके साथ बह जाता है और बरबस मुहं से वाह निकल पढ़ती है...ये ही लेखन की सार्थकता है...बहुत बहुत बधाई आपको...
नीरज

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत गहन भाव हैं. वैसे हर अंत के साथ ही नई शुरुआत होती है. शुभकामनाएं.

रामराम.

नवनीत नीरव said...

aapki is kavita ko padh kar mujhe khamosh dhadkane ki do pantiyan yaad aa rahi hai-
Jindagi kuchh is traha, khamoshion se bhar gayi,
dhoondhta phirta hoon dil ka chain par paata nahi.
Kavita pasan aayi.
Navnit Nirav

Vinay said...

आपको पढ़ना नये अनुभव-सा लगता है

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

बहुत गंभीर भाव के साथ रचना प्रस्तुत की है आपने....
कुछ विशेष समय की दास्ताँ मालूम होती.....
अच्छी अभिव्यक्ति है............

Anonymous said...

ज़िन्दगी के उलझे हुए हालातों की दास्ताँ बयाँ करती एक सुलझी हुई नज़्म. लफ्ज़ों का जादू बरकरार!!!

साभार
हमसफ़र यादों का.......

मोना परसाई said...

चलते-चलते
ज़िन्दगी का
अकस्मात
ठहर जाना
और खेल का
इतिश्री
हो जाना ....!!
jingi ke ansoche phluon ko kahi gahre pkdati hui rachna.bahut sundar.

Sajal Ehsaas said...

baad ke do paras shashakt hai,par aapke standard se pehla para kaafi plain thaa...

गौतम राजऋषि said...

पढ़ता हूँ, तो लगता है जैसे मन आपका कहीं और भी कुछ कहना चाह रहा है है...कहीं और खोयी-खोयी सी निगाहें और एकदम से जैसे नज़्म का अधूरापन अखरता है...
मेरे ख्याल से शायद पूरी नज़्म आपने जान-बूझ कर नहीं पढ़वा रहीं हमें..!!!

हरकीरत ' हीर' said...

हरकीरत जी
नमस्कार, आपके ब्लोग कमेंट जा नही रहा पता नही क्यों।

जिदंग़ी के उतार चढाव को बेहतरीन शब्दों से बयान कर दिया। पर आखिर मे निराशा झलकती है। खैर एक जिदंग़ी के हालातों को सही उकेरा है आपने।
इक अजीब सी
कशमकश है
अपने ही हाथों से
इक बुत बनाती हूँ
लम्हें दर लम्हें
उसे सजाती हूँ ,
संवारती हूँ ,
तराशती हूँ
और फ़िर ....
तोड़ देती हूँ

वाह क्या लय बनी है। ऐसी लय मैं नही बना पाता। कोई टिप्स दीजिए।

--
Sushil Kumar Chhoker
www.meri-talash.blogspot.com
साह रह गये बेलिया थोडे,चंगा तू कोई कम्म कर लै
इक्क दिन मिट्टी दी मुटठ होणा, भला तू कोई कम्म कर लै।

Kulwant Happy said...

कशमकश कभी खत्म नहीं होती...ये निरंतर चलती रहती है..

Unknown said...

vah vah vah vah
achhi kavita
umda kavita
DILI BADHAI

अमिताभ श्रीवास्तव said...

चलते-चलते
ज़िन्दगी का
अकस्मात
ठहर जाना
और खेल का
इतिश्री
हो जाना ....!!
bahut sundar rachna he/ mujhe thoda saa ant khatka,,,,,
itishree/////mujhe lagta he..ynha kuchh aour likhkar is rachna ko aour adhik behtar kiya jaa saktaa tha////////

kintu
bahut achhi lagi aapki kavita...

Anonymous said...

कई बार ज़िन्दगी.... ऐसे मोड़ पे लाकर खड़ा कर देती है .....जहां हम चाह कर भी .....सही निर्णय नहीं ले पाते.....दिल कुछ कहता है ......दिमाग कुछ ...


नाइत्तेफाकी की गुंजाईश ही नहीं....


... बहुत खूबसूरत नज़्म..

daanish said...

बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना....

वाह !!

शब्दों का वही बोलता हुआ-सा जादू ..
भावनाओं का वही करिश्माई प्रभाव ...
कलात्मकता का वही अदभुत सम्मोहन ..
सशक्त प्रस्तुतीकरण . . . .
हमेशा की तरह . . . . . . .

---मुफलिस---

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना.

हरकीरत जी ,
बहुत खूबसूरती से अIपने मानसिक ऊहापोह को अभिव्यक्ति दी है ...
हेमंत

manu said...

बड़ा ही
अजीब पहलू है
कैनवस पर खिले
रंगीन चित्रों पर
अचानक
स्याह रंगों का
बिखर जाना....

पता नहीं क्यूं लग रहा है के इस के बाद कुछ और कहना था,,,,
कोई दूसरा मोड़ लेना था,,,,,
पर जाने क्यूं,,,,शायद जानकर या यूं ही,,,,

कुछ अधूरापन लिए ये नज़्म आपने छोड़ दी ,,,,,
पर अच्छी लग रही है,,,,,
शायद ये ही इसकी खासियत हो,,,,,,,,

के सी said...

नज़्म उम्दा है हिन्दुस्तानी में पढ़ने का आनंद विरला होता है
एक बार और बधाई

दर्पण साह said...

harkarit ji poorn viram aur comma mai kuch to antar hoga? agar ye moorti todi hai to beshq kisi naye shahkar ki shuruaat hogi !!

संध्या आर्य said...

एक खुबसूरत रचना

Mumukshh Ki Rachanain said...

सुन्दर प्रस्तुति, एक अजीब से भाव बोध में ले जा रही है...............

इक अजीब सी
कशमकश है...............

पढ़ कर सोचने लगा कि आखिर ऐसा होता क्यों है.
शायद मन का अंहकार,
इससे बेहतर करने की क्षमता का अटूट विश्वास,

शायद इससे भी बड़ा

बड़ा ही
अजीब पहलू है

खुद का अंहकार तोडे तो कोई बात नहीं पर किसी भी कारण से कोई और बिगाडे तो ऐसा ही लगता है .....

जब हम खुद की कशमकश से नहीं उबर पाते तो आपस के भाईचारे को कैसे बनाय रख सकेगें .......

सोचना पड़ेगा......

चन्द्र मोहन गुप्त

अनुपम अग्रवाल said...

इतिश्री से नया खेल शुरू हो जाता है.

और यही जीवन के खेल का क्रम है
बाकी जो हम जाने अंजाने करते हैं

जिन्दगी ठहरती नहीं,सिर्फ भ्रम है

आदर सहित्

Prakash Badal said...

बहुत ही ख़ूब है हरकीरत जी, खिलौने बनाती हूँ और फिर तोड़ देती हूँ, वाह बहुत खूब कशमकश आपकी कविताओं में जो बिम्ब होते हैं वो मुझे बहुत प्रभावित करते हैं। अच्छी कविता के लिए एक बार फिर बधाई!

ओम आर्य said...

मैं, सदा की तरह, नतमस्तक.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

अपने ही हाथों से
"इक बुत बनाती हूँ
लम्हें दर लम्हें
उसे सजाती हूँ ,
संवारती हूँ ,
तराशती हूँ
और फ़िर ....
तोड़ देती हूँ"
waah.......

Dileepraaj Nagpal said...

Hamesha Ki Tarah Mere Paas Taarif K Liye Shabd Nahi Hain...

अनिल कुमार वर्मा said...

टिप्पणियों की इस भीड़ ने वो सब कुछ कह दिया जो एक सुंदर और भावपूर्ण रचना के लिए कहा जाना चाहिए...मुझे नहीं लगता कि तारीफ में कुछ कहने के लिए बचा है...दिल को छू गई ये रचना...मेरी तरफ से भी बधाई...

जयंत - समर शेष said...

हरकीरत जी..

क्या बात है...
कुछ ख़ास है..
यह अंदाज है..
जैसे गाज है..

आप तो ताज हैं..
शायरी में बेजोड़ मलिका हैं..

~जयंत

RAJ SINH said...

हमेशा की तरह !
मोहक रचना मारक शक्ति !

Anonymous said...

but banaake sajaayaa thaa
fir use mitaayaa thaa
kasmakash ye ajeeb thi
jise hansaayaa use rulaayaa tha

kahaa kisi ne ye adhuraa tha
sach jaane uparwalaa bhi to aisa hi tha

Anonymous said...

but banaake sajaayaa thaa
fir use mitaayaa thaa
kasmakash ye ajeeb thi
jise hansaayaa use rulaayaa tha

kahaa kisi ne ye adhuraa tha
sach jaane uparwalaa bhi to aisa hi tha

Dr. Tripat Mehta said...

bahit hi sunder wichaaaron ka sangrah karti hai aap..

डॉ. मनोज मिश्र said...

बहुत ही सुंदर रचना.

ज्योति सिंह said...

aapki is rachana me mere man ki baate hai jo dil ko chhoo gayi kai baar padhati rahi aur aage kya kahoon ?

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

कई बार ज़िन्दगी.... ऐसे मोड़ पे लाकर खड़ा कर देती है .....जहां हम चाह कर भी .....सही निर्णय नहीं ले पाते.....दिल कुछ कहता है ......दिमाग कुछ ....जानते हुए भी कि इस रास्ते पर मंजिल नहीं ....हम चल पड़ते हैं ....और अचानक सामने रास्ता खत्म हो जाता है.........


Kya kahun ab ispe........ baat to ek dum sahi hai......