Sunday, May 10, 2009

हथेली पे उगा सच ......

थेलियों पर उगे कुछ ऐसे सच ......जो चाह कर भी एक सुकून भरा साँस नहीं लेने देते .......कई बार लगता सहर रात की खिड़की पर खड़ा उजाले का हाथ बढ़ा रहा है ......और मैं हिम शिखरों को फलांगती बहुत दूर ...आसमान छूने का प्रयत्न कर रही हूँ......तभी अचानक सच सामने आ ....गोली सी दाग देता है .....और मैं ....वहीं पत्थर सी जड़ हो जाती........!!



फ़िर एक गीला शब्द
हथेली पे
अकस्मात उग आया है
मुट्ठी में पिघलता यथार्थ
घुसपैठी लहरों से
सीपियों सा
टूटने लगा है
फरेबी बादल
उड़ेल देता है
ढेर सारी स्याही
आकाश में ......


मस्तिष्क
पिशाचनी के
पंजों में सा जकड़ा
कसमसा उठता है
समय की खोह में
कहीं गुम हुआ मन
दरारों भरे आईने से
कई - कई सूरतों में
बंटकर

उड़ाता है हंसीं ......


किसी
सूफियाना कलाम की
करुण आवाज़

गूंजती है कानों में
रात खिड़की पर खड़ी
बढ़ाती है हाथ
मैं चुपचाप शिकारे में
जा बैठती हूँ


बूढ़ा मल्लाह मुखातिब होता है
" कहाँ जाना है बीबी "
मैं हिम शिखरों की ओर
इशारा करती हूँ
शफ्फाफ़ हवाएं
चीड़ की गंध लिए

मुझे हैरानी से
देखती हैं .....


तभी ......
मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!


60 comments:

संध्या आर्य said...

सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!



bahut khuba .....unda abhiwyakti

प्रिया said...

bahut gahri abhivyakti

Yogesh Verma Swapn said...

sunder abhivyakti.badhaai

"अर्श" said...

hindi ke shabdon ke prayog se bahot hi khubsurat nazm kahi hai aapne.. bahot hi sundar abhibyakti... dhero badhaayee


arsh

Udan Tashtari said...

मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ ...

-अद्भुत!! बहुत सुन्दर!!

मातृ दिवस पर समस्त मातृ-शक्तियों को नमन एवं हार्दिक शुभकामनाऐं.

डिम्पल मल्होत्रा said...

पिघलता यथार्थ ,घुसपैठी लहरों ,फरेबी बादल ...kitne hi adbut or sunder dangh se kaha mano ek frebi baadal sach me samne khada ho....wonderful....

विजय तिवारी " किसलय " said...

दिल को छू जाने वाली अभिव्यक्ति .
विजय

Vinay said...

जैसे कर्कश ख़ाबों में कोई फूल खिला हो

दिगम्बर नासवा said...

मस्तिष्क
पिशाचनी के
पंजों में सा जकड़ा
कसमसा उठता है

बहुत ही भाव पूर्ण लेखन है.........अनोखे शब्द लिखे हैं..........सच में कभी कभी मष्तिष्क जकड के रह जाता है

रात खिड़की पर खड़ी
बढ़ाती है हाथ
मैं चुपचाप शिकारे में
जा बैठती हूँ
क्या मासूम अंदाज़ से लिखा है..........फिर कहाँ जाना है बीबी.........हवाए मुझे हैरानी से देखती हैं...........
कितनी लजवाब मासूम बहती हुयी सी रचना है.......

Arvind Mishra said...

अति यथार्थ के बिम्बों को समेटती आत्माभिव्यक्ति !

Kulwant Happy said...
This comment has been removed by the author.
Kulwant Happy said...

बूढ़ा मुल्लाह
मुखातिब होता है
" कहाँ जाना है बीबी "
मैं हिम शिखरों की ओर
इशारा करती हूँ
शफ्फाफ़ हवाएं
चीड़ की गंध लिए
मुझे हैरानी से
देखती हैं .....

सारी कविता बहुत बढ़िया है, मन की बात है..

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ ...

अति सुन्दर.....एक यथार्थपरक भावाभियक्ति.........

अमिताभ श्रीवास्तव said...

मस्तिष्क
पिशाचनी के
पंजों में सा जकड़ा
कसमसा उठता है
समय की खोह में
कहीं गुम हुआ मन
दरारों भरे आईने से
कई - कई सूरतों में
बंटकर
उड़ाता है हंसीं ......//

bahut sundar rachna he aapki//behtreen upmao se sazi shabd maalaa,arto ke saath dil me sidhe utarti hui///

नीरज गोस्वामी said...

वाह...वाह...वाह...जितने सुन्दर शब्द उतने ही गहरे भावः...अद्भुत रचना ...बधाई
नीरज

वर्षा said...

बहुत सुंदर शब्दों की टोलियां

के सी said...

सपनो की सी तरह आपकी नज़्मे कुछ ऐसे मोड़ लिए होती हैं जिनमे हर कदम पर एक नया रंग बिखरा हुआ सा दीख पड़ता है. खुद को कभी शिकारे की सैर में पाया तो कभी शिकार होते हुए. शिकार नियति का शिकार मजबूर दिल का. खूबसूरत ... बेहद खूबसूरत

ओम आर्य said...

main bhi hoon,hatheliyon pe uge sach ko bayan karne ki taakat ke aage naman karte hue!

neeta said...

हर दफा कौन शिकस्तों को
मेरे घर का पता देता है....

डॉ. मनोज मिश्र said...

और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ ......
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .

समय चक्र said...

खूबसूरत कविता

Anonymous said...

आपकी रचनाएँ पढ़कर आँखें नम हो उठती हैं. बहुत दर्द भरा होता है इनमें. लगता है आपने ज़िन्दगी में बहुत दर्द देखा है. ख़ैर रचनाएँ है वाकई उम्दा.....बहुत-बहुत बधाई!!!
हमसफ़र यादों का.......

रविकांत पाण्डेय said...

सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ

बहुत सुंदर! मार्मिक! जीवंत! लेखन की गहराई समेटे हुये!

रश्मि प्रभा... said...

किसी
सूफियाना कलाम की
करुण आवाज़
गूंजती है कानों में
रात खिड़की पर खड़ी
बढ़ाती है हाथ
मैं चुपचाप शिकारे में
जा बैठती हूँ
.....बहुत ही बढिया...दिनोंदिन आपकी रचना में हीरे सी चमक भारती जा रही है...तात्पर्य तराशती जा रही हैं आप शब्दों को

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

सुंदर अभिव्यक्ति

सुशील छौक्कर said...

आज आपने बहुत गहरे में उतरकर वो क्या कहते है प्रतीकों या उपमाओं का बेहतरीन प्रयोग कर एक गहरे सच को बयान कर दिया। बहुत ही उम्दा लिखा है आपने। सच हमेशा तकलीफ लिये क्यों होता है?

RAJNISH PARIHAR said...

दिल को छू जाने वाली अभिव्यक्ति....अच्छी रचना हेतु बधाई..

शोभना चौरे said...

फ़िर एक गीला शब्द
हथेली पे
अकस्मात उग आया है
shuruat hi man ko chu jata hai .
shabdo aur bhavnao ka sundar syojan.
sadhuwad

s

Harshvardhan said...

bahut sundar najm hai.... hame padvaane ke liye shukria...

Mumukshh Ki Rachanain said...

मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!


बहुत खूब हरकीरत जी, बहुत खूब.
हथेली पर उगा सच ही तो जान हथेली पर दिखाती है.

सुन्दर रचना पर बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त

ताऊ रामपुरिया said...

तभी ......
मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!

बहुत लाजवाब अिव्यक्ति...और गहन भाव.

रामराम.

Sajal Ehsaas said...

seedhe saadhe shabdo me maine aaj tak jitno ko bhi padha hai(aur list itni chhoti nahi) unme aap sabse behatreen logo me ek hai...itna shashakt lekhna...sach kahoo to pichhle ek-do post me ye jadoo zara kam pad rah atha par yahaan fir se vaapas hai

रंजू भाटिया said...

बहुत सुन्दर लगी आपकी यह रचना भावपूर्ण अभिव्यक्ति ,,शब्दों का चयन बहुत अच्छा लगा ..बहुत अच्छे ढंग से आपने इन्हें सुन्दर रचना में पिरोया है .

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

OH..colour scheme requires to be changed.

डॉ .अनुराग said...

बूढ़ा मुल्लाह
मुखातिब होता है
" कहाँ जाना है बीबी "
मैं हिम शिखरों की ओर
इशारा करती हूँ
शफ्फाफ़ हवाएं
चीड़ की गंध लिए
मुझे हैरानी से
देखती हैं .....


तभी ......
मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!







गोया यही वे शायरा थी जिन्हें हम बार बार ढूँढने इसी कम्पूटर पे आते है ..लफ्जों के बीच बैठी....वे बार बार जैसे कई दर्दो को नज़्म का लिबास पहनाकर फेंकती है......ओर हम इन दर्दो को अपने साथ लिए चले जाते है.....

हें प्रभु यह तेरापंथ said...

Harkirat Haqeerji
हमेशा कि तरह आज भी आपने भावनाओ मे लोगो को मजबुर कर दिया कि आपको वाहा वाही मिले

सुन्द भावो से ओतप्रोत आप द्वारा रचित कविता ने मुझे प्रशसा कि लिऐ मजबुर कर दिया।

हे प्रभु यह तेरापन्थ और मुम्बई टाईगर कि और से मगल भावना।
::)

laveena rastoggi said...

itni khoobsoorat rachna..ki lafz hi nahi...beautiful....

admin said...

जीवन के सत्य को कलात्मक ढंग से बयान करने का सलीका बहुत कम लोगों में होता है। इस सफल एवं सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary- TSALIIM / SBAI }

manu said...

मुल्लाह को मल्लाह कीजिये हरकीरत जी,,,

नज़्म पढ़ते पढ़ते,,,,
आँखों के सामने पाकीजा फिल्म की मीनाकुमारी का ज़र्द चेहरा घूम गया,,,,,
उसकी बेकसी जाने क्यूं नजर आयी इस नज्म में,,,,,

Girish Kumar Billore said...

Bahut khoob

प्रकाश गोविंद said...

itna sab log kah hi chuke hain aur kya taareeh karun ?

behtareen kavita

L.Goswami said...

सुन्दर कविता ..उत्तम अभिव्यक्ति.

Anonymous said...

बूढ़ा मल्लाह मुखातिब होता है
" कहाँ जाना है बीबी "
मैं हिम शिखरों की ओर
इशारा करती हूँ
शफ्फाफ़ हवाएं
चीड़ की गंध लिए
मुझे हैरानी से
देखती हैं .....

दिल को छू जाने वाली अभिव्यक्ति.

गर्दूं-गाफिल said...

फ़िर एक गीला शब्द
हथेली पे
अकस्मात उग आया है


हरकीरत जी
कमाल बेमिसाल
यही शब्द निकले मेरी जुबान से जब बस मैंने इतना ही पढ़ा
और फिर हम पढ़ते चले गए अल्फाज़ दर अल्फाज़ गहराइयों में उतरते चले गए


किसी
सूफियाना कलाम की
करुण आवाज़
गूंजती है कानों में
रात खिड़की पर खड़ी
बढ़ाती है हाथ
मैं चुपचाप शिकारे में
जा बैठती हूँ


ख्वावो से हकीकत का ये सफर एक बैचेनी पैदा कर देता है
और यही कामयाब होता है हरकीरत का फन



तभी ......
मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!




बहुत सुंदर सचमुच

गौतम राजऋषि said...

देर से आया हूँ। सच पूछिये तो जानबूझ कर...एक नज़्म के जादू से उबरू, तब तो हिम्मत करूँ दूजे पर नजर डालने के।
जी, अभी विगत दो दिनों से डूबा हुआ हूँ "जब तुम लौट जाओगे..." में। अभिनव प्रयास के नये अंक में छपी आपकी ये अद्‍भुत कविता...

और इस नज़्म में तो आप इधर चली आयी हैं हमारे आपरेशनल एरिया के आस-पास ही कहीं..चीड़ की गंध लिये शफ़्फ़ाक हवायें....

"तुम भी पूछना चाँद से/ताबूतों में बंद हवाओं ने/कफ़न ओढ़ा या नहीं..."

उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़!

kumar Dheeraj said...

तभी ......
मेरे भीतर का भंवर
छाती पर नली रख
गोली दाग देता है
सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!
कहना यही चाहूंगा कि आपने बेहतरीन खिदमत पेश किया है आभार

vijay kumar sappatti said...

harkirat

aapki pichali poem bahut acchi thi ..aur main bahut dil se kaha bhi tha ki that is one of your best writings ....

is kavita me sirf ek para mujhe accha laga aur wo hai :

बूढ़ा मुल्लाह
मुखातिब होता है
" कहाँ जाना है बीबी "
मैं हिम शिखरों की ओर
इशारा करती हूँ
शफ्फाफ़ हवाएं
चीड़ की गंध लिए
मुझे हैरानी से
देखती हैं .....

is para me aapki kalam ka wo jaadu hai jo mujhe aapke lekhan ko padhne ke liye baar baar kahta hai .. aur ye pushti karta hai ki aap ek behatar lekhika ho... lekin maaf kijiyenga , kavita ke dusare paragraphs mujhe prabhavit nahi kar sake.. mujhe ye laga ki repitation hai ,thoughts ka aur words ka , mujhe ye bhi laga ki bahut jyada over amplification ho gaya hai " shabd chitr " banaane ki koshish men...

ho sakta hai ki meri rai galat ho .. main wo baat nahi dekh paa raha hoon , jo aapne likhi ho ... aur agar aisa hai to maafi chahunga ...

waise us para ke liye bahut badhai .....

हरकीरत ' हीर' said...

विजय जी,

आपके विचारों के लिए आभार !
आपने रचना की उत्कृष्टता पर सवाल उठाये हैं ....वैसे मैं कोई इतनी बड़ी रचनाकार नहीं कि हर बार आपकी पारखी नज़रों में खरी उतरु....पर यहाँ जवाब देना जरुरी हो गया क्योंकि इससे पहले भी किसी ने रचना पर असहमति जताई थी .....जहां तक मेरा नजरिया है ये नज़्म मुझे बहुत ज्यादा अच्छी लगी ....ये एक स्वप्निल भाषा शैली में लिखी गयी नज़्म है ....कवि कल्पना करता है कि उसे सारे दुखों से निजात मिल गया है ...और सुख बाहें पसारे उसका आलिंगन कर रहे हैं ...वह स्वप्न में आसमान में उड़ने लगता है .....हिम शिखरों को छूने लगता है ......पर तभी सच सामने आ अपने उन्ही कड़वे शब्दों से गोली की सी धमक पैदा करता है ....और कवि अपने उसी धरातल पर लौट आता है ....देखता है कि सब कुछ वही है ....वही दर्द ,बेबसी ,लाचारी,अकेलापन.....और वह पत्थर सा जड़ हो जाता है ...और मन दरारों भरे आईने में से कई सूरतों में बंट कर ...उसकी हंसी उड़ा बैठता है .....उसे लगता है कि उसका मस्तिष्क किसी पिशाचनी के पंजे में कैद है जो छटपटाता तो है पर आजाद नहीं हो पाता ....!!

ये भाषा- शैली हमें अधिकतर मुक्तिबोध की कविताओं में देखने को मिलती है ..इसे फैंटेसी भाषा-शैली भी कहते हैं .....!!

उम्मीद है आपका संशय दूर हो गया होगा .....!!

manu said...

शायद इसी लिए ,,,
पाकीजा की मीना कुमारी,,,
इसलिए घूम रही है अब तक जेहन में,,

Alpana Verma said...

सामने .....
सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ .......!!

WAAH! ! BAHUT KHUUB!kya kahun??

Science Bloggers Association said...

जीवन की अन्तर्दशाओं को बखूबी उकेरती हैं आपकी रचनाएँ।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Asha Joglekar said...

काश्मीर का यथार्थ बहुत ही खूबसूरती से किया है आपने । गहरी पैठ ।

vijay kumar sappatti said...

हरकीरत जी ;

मैंने आपकी लिखी हुई रचना पर या उसकी उत्कृष्टता पर कभी भी कोई सवाल नहीं उठाया है .. आप बहुत अच्छा , बहुत बेहतर लिखती है ...मुझे वो दो para समझ नहीं आये क्योंकि मेरी भाषा का ज्ञान बहुत limited है ; इसलिए वो comment लिखा था .. अब आपने समझा दिया है की ये एक fantacy भाषा है ,,तो फिर से पढ़ा , अब और अच्छा लग रहा है ... अब तो ऐसा लगता है की ,मैं भी कुछ ऐसी कवितायेँ लिखूं. पर आप जितना बेहतरीन तो मैं नहीं लिख पाउँगा ... इतनी अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकार करें.... इसी तरह से और बेहतर लिखे ... मेरी शुभकामनाये आपके साथ है ..नमस्कार !!

विजय

संजय तिवारी said...

सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ

और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ ......
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति . सुंदर रचना है शब्दो का चयन कहा से किया है हमे भी बता दे

RAJ said...

Nice Poem...touched the heart....

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ ...
सुन्दर अभिव्यक्ति...

मेरा नया ब्लाग जो बनारस के रचनाकारों पर आधारित है,जरूर देंखे...
www.kaviaurkavita.blogspot.com

ashok andrey said...

priya harkirat jee aapki kavita hatelion men ugaa sach padii ek behtariin kavita ke liye aapko badhai deta hoon aapne bhavon ko badii gehrai se chhua hai ummeed karta hoon ki bhavishya mai bhii aapki kuchh ore kavitayen pdne ko milengii

ashok andrey

Anonymous said...

andaje bayaan kuchh aisa
likha gahraai me ho jaisa

lal salam said...

ka

neera said...

सच खड़ा है
मुंह चिढ़ता हुआ
और मैं राख़ हुई
पत्थर सी
जड़ हो जाती हूँ

behatreen!