कई बार हादसे एक के बाद एक यूँ घटित होते हैं कि संभलने का मौका ही नहीं मिलता......इस नज़्म को लिखते वक्त न जाने कितनी बार आँखें नम हुई होंगीं.....अभी कल ही की तो बात थी जब मैं उससे अंधेरों के बाद आने वाले सहर का ज़िक्र करती ......क्या पता था कि अब ये अंधेरे ही हमेशा के लिए उसे रास आने वाले हैं ........आह ! ...रब्बा ! यह कैसा इंसाफ है तेरा......?
रब्बा !
यह कैसा इंसाफ है तेरा
आज जब एक सतायी हुई औरत
मुर्दा आंखों में
अन्तिम सांसें ले रही थी
तब भी तुम वहीँ
खामोश खड़े थे
उसकी देह की निचुड़ी दीवारें
अपने अन्दर
दफ़्न कर ले गयीं थीं
वे सारे सवालात
जो अब मेरे सीने में
धधक रहे हैं
जानती हूँ ;
धीरे-धीरे कैसे टूटी थी वो
कई बार जब हम मिलते
मैं पूछती : "...कैसी हो तुम ? "
वह हंस देती "....जैसी तुम हो ! "
हम दोनों मुस्कुरा जातीं
मुखालिफ़* स्थितियों से लड़ना
परिस्थितियों से समझौता करना
जिसमें न जाने कितनी बार
धराशायी होकर गिरी थी वह
क्रूर झोंका जब भ्रम तोड़ता
उसकी किरचें
संभाले नहीं संभलती
हर क्षण उसके अन्दर
जैसे कुछ दरक जाता
ज़िन्दगी के
कितने ही पैने रूप
देखे थे उसने
नित छलनी कर देने वाली
भाषा के सलीबों पे चढ़ती
बड़ी बड़ी इमारतों सी
ढह जाती
रात भर
करवटें बदलती
पीड़ा से कराहती
आंखों में उगी वितृष्णा
रिक्तता , अकेलापन
उसे भीतर तक
खोखला कर जाता
एक गहरी अकूबत
सीने में भरभरा उठती
और इक दिन
हथियार डाल दिए थे उसने
उसने नहीं देह ने
कभी ज्वर
कभी थकावट
कभी सर दर्द
कभी उल्टी
कभी.......!
वह तिल- तिल कर
मिटने लगी
और फ़िर
एक दिन पता चला
उसे कैंसर है
ब्रेन कैंसर
वह भी अन्तिम स्टेज पर
वह खुश थी
बेहद खुश
उसकी उखड़ी सांसों में
इक सुकून सा घुल गया था
रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुंआ -धुंआ सी
ज़बह होती रहेगीं ......!!
१) मुखालिफ़ - विरोधी ,२) अकूबत -पीड़ा , ३) मग्लूब-पराजित , ४) ज़बह-वध
64 comments:
रब्बा !
यह कैसा इंसाफ है तेरा...
रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर..
...बेशक रब ने औरत को फौलाद सा दिल दिया है. तब ही तो वह हर गम हर जख्म सह लेती है.
ek ajib kasak ek ajib dard bayan karti sunder rachana,aisa dard ksi ko na naseeb ho.sach rabba aurat ko faulad ka dil bhi diya kar,ansoon ki boonde uske kuch kaam ki nahi.bahut badhai ho aapko ek sanjhe nazm ke liye.
सोचता हूँ आपसे कहूँ कि ये ठीक बात नहीं है मैम...यूं देर रात गये इस ब्लौग-जगत को रूलाना। फिर सोचता हूँ कुछ और....और ठिठक कर वापस नज़्म को पढ़ने लगता हूँ तो इन शब्दों से उभरता "जिंदगी का पैना रूप" अपने आस-पास जैसा ही दिखने लगता है....
तमाम अकूबतों को यूँ अक्षर-अक्षर उकेरने की कलाकारी को सलाम, मैम !!!
बेहद मार्मिक नज़्म...
'खुद को भूल गयी होगी वो..
कैसे न जाने हालातों से लड़ी होगी वो...
-भीतर तक चुभे हैं कई शब्द इस नज़्म के..हरकीरत जी..
और आँखों में इस नज़्म की तस्वीर जब बनी,तब दिल भर आया.
[इसी तरह की स्थिति से मिलती जुलती ग़ज़ल इस बार पेश है..आप को जरुर पसंद आएगी.]
मर्मस्पर्शी!
dard hi dard, harkirat ji aap dardkahne men mahir hain , dard ka jaise khazana hai aapke pas. bahut marmsparshi rachna ke liye badhai sweekaren.
अच्छा है.. बहुत अच्छा है !!
हरकीरत जी,
कैसी हो तू,..? जैसी हो तुम...? ये दोनों वाक्य ही एक दुसरे के इस तरह से पूरक है के दोनों एक दुसरे के दुःख को भलीभांति जानते है और फिर से एक शुख का मुखौटा डाले पूछते है के कैसे हो तुम... बहोत ही मर्मिम दर्द की किस कदर करीने से आपने उकेरा है ... इस अंदाज को क्या कहूँ ये समझ नहीं आरहा है...
अर्श
ज़िन्दगी के
कितने ही पैने रूप
देखे थे उसने
नित छलनी कर देने वाली
भाषा के सलीबों पे चढ़ती
बड़ी बड़ी इमारतों सी
ढह जाती
आपके हर एक शब्द घर के दायरे मे होनेवाली सच को बयान करती है जिसमे औरत भी है, घर भी है,
दर्द भी है,हर एक छन न जाने कितनो की जिन्दगी मे घटित होनेवाले नंगा सच भी है!जहाँ सिर्फ दर्द का सैलाब होता है जिसमे सिर्फ घुटन होती है,इंसानियत थोडी कम नही पूरी तरह से गायब ही होती है कुछ स्तिथियो मे !
दर्द ही दर्द है ..........काबिले तारिफ है आपकी अभिव्यक्ति !
बहुत गहरी और मार्मिक रचना. शुभकामनाएं
रामराम.
पीड़ा से भर गया दिल आज.........और इसे अभिव्यक्त करने के लिए शब्द ही नहीं मेरे पास........!!
बहुत खूब .
सम्वेदनशील रचना।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
दर्द और पीड़ा से भरी इस रचना को पढकर सच रब का इंसाफ समझ नही आता है। कुछ इंसान विरले ही होते है जो
मैं पूछती : "...कैसी हो तुम ? "
वह हंस देती "....जैसी तुम हो ! "
समझ नही आता ये किस मिट्टी के बने होते है जो दर्द में हँस देते है।
वह तिल- तिल कर
मिटने लगी
और फ़िर
एक दिन पता चला
उसे कैंसर है
ब्रेन कैंसर
वह भी अन्तिम स्टेज पर
वह खुश थी
बेहद खुश
उसकी उखड़ी सांसों में
इक सुकून सा घुल गया था
क्या कहूँ जो कहना था आँखे कह गई।
दर्द हीं अर्ज किया कर
तू जरा तब अपना सा लगता है
कभी ज्वर
कभी थकावट
कभी सर दर्द
कभी उल्टी
कभी.......!
वह तिल- तिल कर
मिटने लगी ..ye sab deh tak seemit ho to phir bhi qaabiley bardasht..achhi nazm hai harkeerat
इस रचना में बहुत दर्द है ...जैसी औरत की जिंदगी में है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
bahut hi sansational subject hain... aur presentaion bhi accha hain... padne ke baad mein dimaag mein kuch chalta hain.
najm achchi lagi... thanks
कबूलनामा
सुनो ...! बन्दर से बने हुए 'डार्विन'...आपकी इस कविता और 'मुक्ति' की कविता ' सोचकर तो देखें'
से मिली
ऊर्जा इस रचना में उधार है
रब भी कई बार स्तब्ध रहता है......उसके आंसुओं पर कभी गौर किया है?
लिखते लिखते आंखें तो नम होनी ही थी, कविता के हर शब्द को दर्द से तो नहला दिया..
बहुत ही भावुक कर देने वाली रचना है ..
रात भर
करवटें बदलती
पीड़ा से कराहती
आंखों में उगी वितृष्णा
रिक्तता , अकेलापन
उसे भीतर तक
खोखला कर जाता......
very nice.....kya dard parosha hai aapne ..sochne par majbur kar diya...
रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
कितनी गहरी असर कर गयी ये रचना...........उफ़ बहुत ही दर्द.............बहुत ही सोज़ है इसमें............सचमुच ओरत के दर्द का एहसास..........उसकी पीडा का एहसास पूरी इमानदारी से उतारा है आपने
याद आया......... वो जो मुझे पुरस्कार मिला था उसका आधा हिस्सा भिजवा दूं क्या....?
यह कविता पहले पढ़ चुका हूं शायद आपके संग्रह में achhi hai.....
मौदगिल जी ,
आपको शायद ग़लतफ़हमी हुई है ....ये नज़्म तो रात ही लिखी है मैंने ....ये घटना भी दो दिन पहले की ही है......!!
naari jeevan par aap bemisaal likhti hai...strong point hai aapka nissandeh
मर्म को गहरे तक चीरती हुई मर्मस्पर्शी रचना
आपकी तवील नज़्म में भी उतना ही असर है जितना कि अब तक आपके लफ्ज़ जगाते रहे हैं, ज़िन्दगी छोटे छोटे किस्सों से ही बुनी जाती है और इन्हें नज़रंदाज़ करना खुद से फरेब करने जैसा ही है. बधाई
मैंने poochha ,,,,kaisee हो तुम,,..???
उसने hans कर कहा,,,jaisee तुम हो,,,,
kamaal की दो line हैं ये
झकझोर देने वाली,,,,
बहुत मार्मिक,,, भीतर तक चोट करती हुई,,,
एक दम छू लेने वालीं ,,
दर्द और पीड़ा से भरी इस रचना को पढकर तो सहसा लगता है की रब का इंसाफ सही नही है।
पर जब संजीदगी से सोचता हूँ तो लगता है कि नहीं यह हमारी समझ की भूल है , अरे औरत ने बच्ची, बहन, माँ बन फौलाद सा दिल ही तो रब से पाया है तभी तो वह हर गम हर जख्म सह लेती है फिर भी हार नहीं मानती.
आदमियों को तो हार कर आत्महत्या करते सुना होगा पर औरतों को प्रायः नहीं.
यही काफी है रब का इंसाफ समझने के लिए.
मर्म स्पर्शी नज़्म पेश करने का आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
औरत का सच उकेरा है आपने इस रचना में और क्या खूब उकेरा है...वाह...शब्द हीन हूँ...क्या कहूँ?
नीरज
हरकीरत जी,
आप की टिप्पणी का शुक्रिया कहने चल आया ...आप की पोस्ट्स अच्छी लगीं.ऐसा डूब गया कि कई पोस्ट पढ़ डाली.
"आपकी अदालत में " पोस्ट पर टिप्पणियों को पढ़ कर दिल बैठ गया..आगे एक विस्तृत टिप्पणी उस पोस्ट पर लिख डाली..आप पढ़ लें....पाखी
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुंआ -धुंआ सी
ज़बह होती रहेगीं ......!!
bhut sashkt abhivykti
रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुंआ -धुंआ सी
ज़बह होती रहेगीं ......!!
हरकीरत जी ,
औरत का दर्द एक औरत ही बेहतर बयां कर सकती है ..आपने इस कविता में औरत की पीडा को बहुत बेहतर शब्दों में संजोया है
हेमंत कुमार
हरकीरत जी अपने ब्लाग पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रया प्राप्त हुई. आपका आभार. आपकी कवितायें पढ़ने का भी सौभाग्य मिला. आपकी संवेदनाऐं लाजवाब हैं और उनकी अभिव्क्ति भी. बधाई
रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुंआ -धुंआ सी
ज़बह होती रहेगीं ......!!
स्त्री पुरुष से हर हालात में अधिक फौलादी होती है मगर अभिव्यक्त नहीं कर पाती. वरना सहन शक्ति से अन्दाज़ा लगाइये.
ज़बह होने वाली बात बडी दिल को छू गयी.
हरकीरत जी,
लगता है, दर्द का समंदर है आप की कलम की स्याही , और नोंक इतनी पैनी कि दिल चीर के निकल जाती है आपकी नज़्में. यूं कि जीवन में अंधियारे है, इससे कोई गिला शिकवा नही, मगर आपको वो रास आते हैं तो खुशियों को भी एक मौका दें...
आपके कलम में दर्द की स्याही की जगह कुदरत की हसीन वादियों से चुने हुए फ़ूलों की मेहक डाल दें, प्यार के मीठे एहसासात की ओस की बूंदों को छिटका दिजिये, तमस की झीनी चादर को ऒढने की जगह किसी दुखियारे की आंखों के आंसू पोंछने में इस्तेमाल करें तो ये हसीन ख्वाब हकीकर में बदल जाये.
मगर काश ख्वाब पूरे होते.
सुन्दर रचना है मैम. बहुत-बहुत सुन्दर लिखा. एक औरत के दर्द को एक औरत ही ठीक से समझ सकती है और उसे इस तरह से बयां भी कर सकती है.
"और इक दिन
हथियार डाल दिए थे उसने
उसने नहीं देह ने"
हरकीरत जी,
आपके स्तर को पाना बहुत टेढी खीर है.
आपका अन्दाजें बयान और ही है..
ये "उसने नहीं, देह ने"... में इतनी गहाराई है,
कि मैं नाप भी नहीं सकता...
बहुत ही सुन्दर..
~जयंत
बेहतरीन नज्म। कहते हैं कि हरकीरत का है अंदाजे बयां और..
रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुंआ -धुंआ सी
ज़बह होती रहेगीं
बहुत ही मार्मिक पंक्तियां हैं। दिल में गहरे असर करने वाली।
aapke anmol wicharon ki mein tahe dil se kadr karti hu...aur apne aap ko sobhagyashaaali manti hu ki mujhe aapka blog padne ko mila...aapne mere blog par apne wichaar pragat karein....sach maaniye mere liye bahut badi baat hai...mein aapki abhaari rahungi...
shukriya...
किसी को चाँदी किसी को सोना
जीवन, कुछ पाना ,कुछ खोना
संग संग तदबीर -ओ -मुक़द्दर
जीवन कुछ हँसना कुछ रोना
लम्हा लम्हा रूप बदलता
जीवन कटना उगना बोना
नाव सवारी के सर पर है
जीवन है जीवन को ढोना
"गर्दूं" ने जीवन भर ढूँढा
जीवन है अँधियारा कोना
किसी को चाँदी किसी को सोना
जीवन, कुछ पाना ,कुछ खोना
संग संग तदबीर -ओ -मुक़द्दर
जीवन कुछ हँसना कुछ रोना
लम्हा लम्हा रूप बदलता
जीवन कटना उगना बोना
नाव सवारी के सर पर है
जीवन है जीवन को ढोना
"गर्दूं" ने जीवन भर ढूँढा
जीवन है अँधियारा कोना
हरेक दर्द को तू अपना बना लेता है.
बान्टता यून है कि हर दर्द सहल जाता है.
तेरे इन्सान के साये मे है मरहम कोयी
घाव कैसा भी हो कुछ देर बहल जाता है .
हरकीरत जी ! हमेशा की तरह ........
दर्द मेरा हो कि तेरा याकि हो जमाने का
आग लगती हो कहीन तुझमे धुवान उठता तो है
... बेहद प्रसंशनीय रचना है, बधाईयाँ ।
प्रसंशनीय रचना
dilip ji ki baat par gaur farmaayiye
rote rote aaye hain ,aur rote rote hi
jaaya jaay yah jaroori to nahi ,aas paas jo ho raha hai ,use sawaara bhi to jaa sakta hai ,prayaas bhi hum aur aap ko hi karna hai ,iske liye wo upar se alagse bande nahi bhejta .
itna dukh kaise sahan kati hain aap
kuch muskaan se bhari taajatarin rachna bhi prastut kariye
Truthful and touching words:
'..रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
नहीं तो वह यूँ ही मग्लूब* हो
समिधा बन महाकुंड में
धुंआ -धुंआ सी
ज़बह होती रहेगीं ......!!..'
Thanks for sharing. You have an excellent blog.
God bless.
नीलम जी ,
आप पहली बार मेरे ब्लॉग पे आयीं आपका स्वागत है ...!!
शायद हम पहले भी मिल चुके हैं ..."हिंद-युग्म" पर किसी कविता की टिप्पणी की बहस पर .....!!
नीलम जी आपने अपनी टिप्पणी में कहा है ......."dilip ji ki baat पर gaur farmaayiye rote rote aaye hain ,aur rote rote hijaaya jaay yah jaroori to nahi ,aas paas jo ho raha hai ,use sawaara bhi to jaa sakta hai ,prayaas bhi hum aur aap ko hi karna hai ,iske liye wo upar se alagse bande nahi bhejta ."
ये रोना नहीं है नीलम जी ,...ये भी एक तरह का विरोध ही है ...और ये स्त्री पर अत्याचार आज के नहीं सदियों पुराने हैं ...न जाने कितने लोगों का प्रयास रहा होगा इसके विरोध में......तो भी क्या स्त्री पर अत्याचार बंद हो गए....??
दुसरे वह कवि ही कैसा जो किसी के दर्द से द्रवित न हो , जो विचलित न हो ,जो संवेदनशील न हो...??
कविता क्या है....? जब कोई घटना मानव जीवन को इतना बेचैन कर दे कि वह अन्दर तक आहात हो जाये तब शब्द कविता रूप में जन्म लेते हैं यह सब आंतरिक शक्ति के बिना असंभव है ....!!
माना जाता है कि एक कवि की संवेदना की शक्ति साधारण मनुष्य से कई गुना ज्यादा होती है ...और एक कविता की उत्पति में उसे प्रसव पीडा सी वेदना से होकर गुजरना पड़ता है ..
पहले कवि के रूप में आदि कवि बाल्मीकि का नाम लिया जाता है , कहते हैं बाल्मीकि ने जब एक प्रेम में तल्लीन क्रोंच पक्षी को बहेलिये के तीर से मरते देखा तब संवेदना में उसके मन से पहली कविता उपजी .......
माँ निषाद प्रतिष्ठाम त्वं गमः शाश्वती समा
यत्क्रौंच मिथुनात एकमव्धी काममोहितम !!
( बधिक ! न पाए कभी प्रतिष्ठा और न पायेगा तू प्यार
प्रेमलीन क्रौंच के जोड़े में से दिया एक को मार !! )
संवेदना की इसी अनुभूति को सुमित्रानंदन पन्त जी ने भी अपनी एक कविता में व्यक्त किया है ....
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
उमड़कर आँखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान
ये स्त्रियों के लिए मेरी संवेदना महज़ रोना नहीं है ....ये एक तरह से उनका विरोध भी है .... अगर इस कविता में एक स्त्री मानसिक प्रताड़ना सहते हुए मरी है तो मेरी कविता उसका विरोध भी कर रही है...ये और बात है की कोई उसे किस अर्थ में लेता है ....!!
इसी बीच रुड़की से यादवेन्द्र जी का फोन भी आया ...उन्होंने जहाँ नज़्म की तारीफ की वहीँ अंत पर एतराज़ भी जताया ....यादवेन्द्र जी के विचार मुझे बहुत ही सुलझे हुए लगे ...मैं तहेदिल से उनकी शुक्रगुजार हूँ जो वे मेरी रचनाओं को इतने ध्यान से पढ़ते हैं ...आपसब का स्नेह सदा यूँ ही बना रहे .....!!
क्या कहूँ? जब भी दर्द से नजदीकियां बढ़ाने का मन होता है आपके ब्लॉग पर आ जाती हूँ और कभी निराश नहीं होती...
रब्बा !
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर..
बेहद मार्मिक नज़्म,भावुक कर देने वाली रचना है |
बहुत बढ़िया,बहुत सुंदर!!!
हरकीरत जी नमस्कार
मैं संजीव गौतम हूँ आगरा से.............
हुआ ये कि अपने www.sanjivgautam.blogspot.com ब्लाग पर आपकी टिप्पणी पढ़कर मैं आपके ब्लाग पर पहुँचा. आपकी सुन्दर रचनाऐं पढ़कर टिप्पणी भी भेजी लेकिन वो मेरे अपने यू०आर० एल० से न जाकर जल्दी में मैं आगरा हूँ के नाम से चली गयी. मैं आगरा हूँ ब्लाग भी हम मित्रों के द्वारा आगरा के लिये बनाया गया हैं. इस गफ़लत के कारण आपको भी भ्रम हो गया इसके लिये मैं माफी चाहता हूँ.............संजीव गौतम
हरकीरत जी,
आपका नाम सार्थक है...
आप हर का ही कीरत हैं...
क्या ज्ञान ...
क्या बखान...
मैं निशब्द...
छोटा सा भक्त...
~जयंत
समिधा का सम्बन्ध यज्ञ या हवन से ही होता है यज्ञ कुण्ड या हवन कुण्ड की जगह बहुत उपयुक्त शब्द महाकुंड प्रयुक्त हुआ है धुंआ धुंआ सा जिबह होना ठीक है ,धुंआ धुंआ सी सुलगती रहती में फिर यह दिक्कत होगी कि धुंआ सुलगता नहीं /समिधा बन सुलगती रहती धुंआ धुंआ होती रहती /खैर /उत्तम रचना /
ANAAM (WITHOUT A NAME) said...
HATKIRAT JI
KUCHH LOG CHORI KO AAPNA JANAM SIDH ADHIKAAR SAMJAHTE HAIN , MAINE AAPKI NAZAM TO NAHI DEKHI PAR URDU MEIN ANUVADIT "RABBA" DEKHI HAI (URDU SEEKHNA AAJ KAAM AYA MERE ) KAMAAL KAR DIYA HAI AAPNE IS POEM MEIN , MAIN DHANVAAD KARTA HOON " MAHAAN MUNAVVAR SULTANA KA JIS KI VAJAH SE MAINE APKI NAZAM PADHI" KAASH AISE CHOR LEKHAK GALI GALI MEIN HON JIS KI HATHYELI PAR LIKHA HO " MAIN KAVITA CHOR HOON "
AAPKI NAZAR MEIN KOEE KAVITA CHOR HO JO PUNJABI POEMS KO ENGLISH MAIN AUVAAD KAR SAKTA HO TO MUJH KO BHEE BATAANA , MAIN AAPNI RACHNAYE ENGLISH MEIN ANUVAAD KARVAANI HAIN
May 7, 2009 9:38 AM
मार्मिक प्रस्तुति !!
आभार!!
प्राइमरी का मास्टरफतेहपुर
हरकीरत जी मैने अभी आपकी कविता नहीं पढ़ी! जो भूमिका आपने बांधी है उसे पढ़कर ही लौट आया हूँ। लेकिन आपकी भूमिका में भी एक कविता है। इसी भूमिका पर आपके लिए "द्विज" भाई का एक शेर आपकी नज़र करता हूँ "अंधेरे चंद लोगों का अगर मकसद नहीं होते,
लोग अपने आप में फिर सरहद नहीं होते।"
rabbaa itani sundar marmik abhivyakti ! itane ehsaas sanjoye baithhi hain ! behtreen rachna
मुखालिफ़ स्थितियों से लड़ना
परिस्थितियों से समझौता करना
औरत को दर्द देते वक्त
लोहे सी शक्ति
और फौलाद सा
दिल भी दिया कर
बहुत ही सुन्दर और मार्मिक प्रस्तुती की है आपने.......
इसके आगे कुछ कहने के लिए मै शब्दों की कमी पा रहा हूँ......
Post a Comment