दर्द के टुकड़े
फेंके हुए लफ़्ज
धूप की चुन्नी ओढे़
अपने हिस्से का
जाम पीते रहे
सूरज खींचता रहा
लकीरें देह पर
मन की गीली मिट्टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए...
(प्रकाशित- 'पर्वत-राग' अक्टू.-दिसं.०८)
सं:गुरमीत बेदी
(२)
पत्थर होता जिस्म़
तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथौडो़ की चोट से
जिस्म़ मेरा
पत्थर होता रहा...
(प्रकाशित- 'सरिता' जुलाई-द्वितीय -०८ )
Sunday, December 21, 2008
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34 comments:
उफ़! यह दर्द! शायद बाँट कर कुछ कम हो जाए!
बेहतरीन अल्फाज़ और अंदाज़ दर्द बयाँ करने का!
बेहद सुंदर रचना है प्रतीत होता है कि हर शब्द को दर्द में डुबोकर चस्पा किया है बहुत ही अच्छी
lafz.dr.lafz dard ka mukammal izhaar... phir bhi...
aapka azm (sankalp),
aapka pukhtaa lehjaa,
aapki prabhaavshali rachna.shaili hamesha ki tarah...
waqt ke sitam, halaat ki mnmaani, aur dard ki shiddat pr haavi hi rehte haiN.
khoobsurat rachna pr badhaaee svikaareiN.
---MUFLIS---
बेहतरीन
लाजवाब
मन की गीली मिट्टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए...
क्या खूब रचना मैम.
और ये कहना कि "हथौडो़ की चोट से जिस्म़ मेरा
पत्थर होता रहा" नत-मस्तक कर गया हमें
कुछ कह नहीं रहा. बस पढ़ रहा हूँ ....
आपको पढता हूँ तो जैसे कही ओर चला जाता हूँ....ऐसा लगता है जैसे उन सफ्हो से गुजर रहा हूँ....आहिस्ता आहिस्ता सब समेटने का मन करता है......सच में बेमिसाल लिखती है आप.....ओर इसे महज़ यूँ ही तारीफ न समझिये ....तहे दिल से
मन की गीली मिट्टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए...
सच में बेमिसाल लिखती है आप.....बेहतरीन अल्फाज़
अनुराग जी , पता नही म कैसा लिखती हूँ पर जब लिख लेती हूँ तो मन को कहीं सुकून सा मिलता है. ये रचनाएँ मेरा इश्क मेरा मज़हब मेरा इमान सब है और आप सब की तारीफ मुझे बहुत सुकून देती है. शुक्रिया....बहुत बहुत......
harkirat ji ,
bahu sundar , bahut achi nazm , hamesha ki tarah , shabdo mein zindagi dhadkati hui.. aur shbdon mein zindagi ki ek alag dard bhari tasveer bayan karti hui...
सूरज खींचता रहा
लकीरें देह पर
मन की गीली मिट्टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए...
kya koi aur shabd ho sakte hai , apne man ko abhivyakt karne ke liye ...
dusari rachna out of world hai , main us kaabilo nahiki , uski tareef kar sakun..
yun hi likhe ...
vijay
poemsofvijay.blogspot.com
संवेदनशीलता आपके अपने घर की चीज मालूम पड़ती है। लिखने का अन्दाज एकदम जुदा है। बहुत सूक्ष्म पकड़ है आपकी। एक विशेष बात आपकी इन क्षणिकाओं में है वह है कि आप जो लिख रही हैं आपकी खुद की आपबीती का दस्तावेज है, कोई कलमकारी या भाषणबाजी नही है। हां एकबात है कि आपके लिखने में गुलजार की अदा दिखाई पड़ती है। मैं एक बड़ा पोर्टल गुलजारनामा डॉट कॉम के नाम से शुरू करने जा रहा हूं। अगर आप गुलजार के मुताल्लिक कोई लेख या अनुभव बताना चाहें तो मैं शुक्रगुजार रहूंगा।
aapko pahle bhi samjhaayaa hai ke aap likhaa na karein...
aapko naheen maaloom..
kitni takleef hoti hai yahaan...
aur lihkein to dikhaa zaroor diyaa lrein.......
kyunke is takleef ki puraani aadat hai....badhyi hai to lutf hi aata hai...
" MILA JO DARD TERA,
AUR LAJAWAAB HUI,
MERI TADAP THI JO KHINCHKAR,
GHAM-E-SHARAAB HUI "
ye sirf tippani naheen hai...
तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथौडो़ की चोट से
जिस्म़ मेरा
पत्थर होता रहा...
हरकीरत जी, एह की लिख दिता तुसी, ऐना दुंगा. क्या बात है. इतना दरद आया कहाँ से. बहुत ही गहरा. इस रचना के लिए शुक्रिया.
सूरज खींचता रहा
लकीरें देह पर
मन की गीली मिट्टी में
कहीं चूडि़याँ सी टूटीं
और दर्द के टुकडे़
बर्फ हो गए...
बहुत गहराई है आपकी रचना में...बहुत-बहुत बधाई...
बहुत सशक्त अभिव्यक्ति ! दोनो रचनाएं बहुत गहराई से भेदती हैं ! बहुत शुक्रिया आपका !
रामराम !
बहुत ही सुन्दर हैं दोनों रचनाएँ
क्या कहूं ये कल्पना है जो बाँध जाती है सांसों के तार को जिंदगी की डोर से फिर चाहें जिस्म पत्थर बन जाए या हथोडों की मार से दर्द के टुकड़े हो जायें कोई फर्क नही पड़ता उस डोर उस तार से बंधा ये जिस्म कभी नही टूटता कभी नही टूटता बस थक जरुर जाता है...
मर्म हैं ...
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति........
अक्षय-मन
जिस्म़ मेरा
पत्थर होता रहा...
***FANTASTIC
PLEASE VISIT MY BLOG...........
तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथौडो़ की चोट से
जिस्म़ मेरा
पत्थर होता रहा...
bade hi sashakt ehsaaon ko shabd diya hai,likhne ki shaily me amrita preetam ki chhawi hai-bahut sundar
'फेंके हुए लफ्ज', 'धूप की चुन्नी', 'दर्द के टुकड़े' - गजब की उपमाएं हैं. साधुवाद.
दोनों ही रचनाएं अच्छी और सशक्त .
दर्द को जैसे शब्दों में अभिव्यक्त कर दिया हो .
हरकीरत जी,
बिल्कुल नई उपमांए, कल्पना का अद्भुत संसार मिला आपके ब्लॉग पर आके.
मुकेश कुमार तिवारी
आपका "कवितायन" पर पधारने और टिप्प्णी का धन्यवाद.
दर्द उपमाओं में ढलकर कैसे कविता हो जाता है,यहाँ सीखा जा सकता है.
सुन्दर अभिव्यक्ति.
bahu khub bahut sundar laga !or ye jaan kar achcha laga ki aap assam me rahti hai! kyonki maine apna bachpan wahi par bitaya hun!
taarrif m kya likha jaye kuch samjh nahi aa rha...bahut hi badhiya likha hai aapne
आपके ब्लॉग पर बड़ी खूबसूरती से विचार व्यक्त किये गए हैं, पढ़कर आनंद का अनुभव हुआ. कभी मेरे शब्द-सृजन (www.kkyadav.blogspot.com)पर भी झाँकें !!
... दोनों रचनाएँ प्रसंशनीय हैं, प्रसंशा के लिये शब्द नही हैं ।
bahot hi dard bhara likha he aapne...ek kashish najar aati he aur padhte huye dil me ek tiss ithati he....khubsurat
लाजवाब!
उम्मीदों-उमंगों के दीप जलते रहें
सपनों के थाल सजते रहें
नव वर्ष की नव ताल पर
खुशियों के कदम थिरकते रहें।
नव वर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएं।
बहुत ही अद्भुत लिखते हो आप....सच्ची....!!
afsos ho raha haiki aapke blog pe itni derse nazar kyon padee....itni behatreen lekhani se blogspot ki duniya mein roobaroo hone ka mauk abahut kam mila tha :)
likhte rahiye...hum seekhte rahenge aapse...aur haan blog template bada kamaal ka hai
This is how we spoil even the possible solutions to our life problems.
Very well described, Harkirat!
Harkirat Haqeerji
तुम गढ़ते रहे
देह की मिट्टी पर
अपने नाम के अक्षर
हथौडो़ की चोट से
जिस्म़ मेरा
पत्थर होता रहा...
Agar yun kahen to kaisa lagega
Chheni hathoude ki mar se patthar ban jate hain deviyon ke roop,
Koi mujhpe bhi chalaaye chheni hathoude taaki main bhi devata ban jaaoon.
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