Sunday, December 7, 2008

क्षणिकाएँ

क्षणिकाएँ.......

मित्रो मेरी ये क्षणिकाएँ हिन्‍द-युग्‍म की नवंबर माह की यूनी कवि प्रतियोगिता में प्रथम दस में स्‍थान बनाने में कामयाब हुई हैं वहीं से
संग्रहित हैं ये क्षणिकाएँ....

मेरे आंगन के फूल बडे़ संवेदनशील हैं .......
यूनिकवि प्रतियोगिता की अगली रचना की ओर बढ़ते हैं। युवा कवयित्री हरकीरत कलसी 'हक़ीर' असाम में रहती हैं। और हिन्दी के लिए ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों तरह से सक्रिय हैं। सितम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में इनकी कविता प्रकाशित हुई थी। नवम्बर माह की प्रतियोगिता के लिए इन्होंने कुछ क्षणिकाएँ भेजी थी, जिन्हें निर्णायकों ने खूब पसंद किया। क्षणिकाओं ने छठवाँ स्थान बनाया। इस महीने की हंस (राजेन्द्र यादव द्वारा प्रकाशित) पत्रिका में भी इनकी एक कविता 'वज़ूद तलाशती औरत' प्रकाशित हुई है।

पुरस्कृत कविता- क्षणिकायें


(१) जख्म
रात आसमां ने आंगन में अर्थी सजाई
तारे रात भर खोदते रहे कब्र
हवाओं ने भी छाती पीटी
पर मेरे जख्मों की
मौत न हुई...

(२) दर्द
चाँद काँटों की फुलकारी ओढे़
रोता रहा रातभर
सहर फूलों के आगोश में
अंगडा़ई लेता रहा...

(३) टीस
फिर सिसक उठी है टीस
तेरे झुलसे शब्द
जख्मो को
जाने और कितना
रुलायेंगे...

(४) शोक
रात भर आसमां के आंगन में
रही मरघट सी खामोश
चिता के धुएँ से
तारे शोकाकुल रहे
कल फिर इक हँसी की
मौत हुई।

(५) सन्नाटा
सीढ़ियों पर
बैठा था सन्नाटा
दो पल साथ क्या चला
हमें अपनी जागीर समझ बैठा...

(६) वज़ह
कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्जों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...

(७) गिला
गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं...

(८) दूरियाँ
फिर कहीं दूर हैं वो लफ्ज़
जिसकी आगोश में
चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
जख्म...

(९) तलाश
एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...

(१०) तुम ही कह दो...
तुम ही कह दो
अपने आंगन की हवाओं से
बदल लें रास्ता
मेरे आंगन के फूल
बडे़ संवेदनशील हैं
कहीं टूटकर बिखर न जायें...

(११) किस उम्मीद में...
किस उम्मीद में जिये जा रही है शमां...?
अब तो रौशनी भी बुझने लगी है तेरी
दस्तक दे रहे हैं अंधेरे किवाड़ों पर
और तू है के हँस-हँस के जले जा रही है...

(१२) सुनहरा कफ़न
ऐ मौत !
आ मुझे चीरती हुई निकल जा
देख! मैंने सी लिया है
सितारों जडा़
सुनहरा कफ़न



प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५॰५, ७॰७५
औसत अंक- ६॰६२५
स्थान- तीसरा



द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ७, ३॰५, ६॰६२५ (पिछले चरण का औसत
औसत अंक- ५॰७०८३३३
स्थान- तीसरा



पुरस्कार- कवि गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' के काव्य-संग्रह 'पत्थरों का शहर’ की एक प्रति

20 comments:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

acchhi lagin.....sach....!!

डॉ .अनुराग said...

मेरी नजर में तो ये काफ़ी ऊँचा स्थान रखती है.....खास तौर से ये दोनों
फिर कहीं दूर हैं वो लफ्ज़
जिसकी आगोश में
चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
जख्म...

तलाश

एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...

vijay kumar sappatti said...

i am speechless .....

H , i need better words to express my comments [ does they need any comment by the way ? .. ] they are out of world ..

v

manu said...

aakhiri comentt mera hi hai .haqeer ji..
dikkat ye aati hai aap ko likhne se pahle ........mujhe....apne bahut se khyaalat........matlab meri bahut si baaten kaheen peechhe chhoot jaati hain.........
aap ne shaayad padhaa naheen....
isliye pahli baar mail kar rahaa hoon...
sorrrwy

"अर्श" said...

umda lekhan ,bahot hi khub rachana padhane ko mili... behad umda aapko dhero badhai harkirat ji....

vandana gupta said...

zakhm aur sunahra kafan...........ati sundar.......kabhi kabhi padhne ko milti hain aisi rachnayein

सुशील छौक्कर said...

बहुत ही सुन्दर, दिल को छूती हुई क्षणिकाएँ ।

एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...
वाह।

गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं...
बहुत खूब।

आज ही इसका लिंक मिला तो आकर अच्छा लगा। इतनी अच्छी रचनाएं पढकर।

makrand said...

१२) सुनहरा कफ़न
ऐ मौत !
आ मुझे चीरती हुई निकल जा
देख! मैंने सी लिया है
सितारों जडा़
सुनहरा कफ़न

accha laaga padaker
regards

vijay kumar sappatti said...

H

mujhe kuch kahna hai

पर मेरे जख्मों की
मौत न हुई...

jakhomo ki kabhi maut thodi hi hoti hai , wo to sada hi apni jagah banakar rahte hai dil mein ..

तेरे झुलसे शब्द
जख्मो को
जाने और कितना
रुलायेंगे...


jab jab hamen beete dino ki koi baat yaad aa jayen , jakhmo se khoon bahata hai ..

कल फिर इक हँसी की
मौत हुई।

har lamha , har pal hamare ahsaaso ki maut hoti hai ..

सीढ़ियों पर
बैठा था सन्नाटा
दो पल साथ क्या चला
हमें अपनी जागीर समझ बैठा...

this is the best , umr bhar aakir hamara sannata hi to saath chalta hai ..

दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...

insaano ke darmiyan dooriyan ki wajah bhi to yahi hai ..

गिला इस बात का न था
कि शमां ताउम्र तन्हा जलती रही
गिला इस बात का रहा के
पतिंगा कोई जलने आया ही नहीं...

intjaar....

एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...

intjaar ...


तुम ही कह दो...
तुम ही कह दो
अपने आंगन की हवाओं से
बदल लें रास्ता
मेरे आंगन के फूल
बडे़ संवेदनशील हैं
कहीं टूटकर बिखर न जायें...

agar hawaon ko tumahre hi ghar ka pata malum ho to ?

सुनहरा कफ़न
ऐ मौत !
आ मुझे चीरती हुई निकल जा
देख! मैंने सी लिया है
सितारों जडा़
सुनहरा कफ़न

The very best ... in fact ham sab ko maut ka hi to intjaar hai ...

maine tumhari saari ye क्षणिकाएँ baar baar padi , aur padi aur padunga ..
sab kuch apna sa lagta hai ..

shayaad dard ki koi jaati/bhed nahi hoti/hote , wo sabke liye samaan hai , ek sa hai ..apna sa hai ...

vijay

Vinay said...

पहली बार पढ़ रहा हूँ आपको, बहुत अच्छा लगा आपके मनोदगार जानकार! मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं!

नीरज गोस्वामी said...

आप की ये क्षणिकाएं छोटे छोटे शब्दों में पूरा जहाँ समेटे हुए हैं...ये लेखनी का कमाल है जिस से आप ने कितनी आसानी से बिना बड़े शब्दों का सहारा लिए इतनी सारी बातें कह डाली हैं...जज चाहे आप को तीसरे स्थान पर रखें पर पाठक आप को पहला स्थान देते हैं...लिखती रहें....
नीरज

BrijmohanShrivastava said...

हंस का नवम्बर का अंक अभी तक उपलब्ध नहीं हो पाया क्योंकि में ग्राहक न होकर बुक स्टाल से खरीद लिया करता हूँ /आपने रचनाये उनकी पढ़वाई आभार

तरूश्री शर्मा said...

कुछ खामोशी को था स्वाभिमान
कुछ लफ्जों को अपना गरूर
दोनों का परस्पर ये मौन
दूरियों की वज़ह
बनता रहा...
दूरियों की सही वजह बताई आपने। आपकी क्षणिकाएं बेहद उम्दा हैं। साधुवाद स्वीकारें।

manu said...

ग़ज़ल पे बिखरी आपकी हलकी सी खिलखिलाहट आज देख के आ रहा हूँ,
कभी टाइम मिले तो फ़िर मुस्कुराना
बहुत अच्छा लगा

Udan Tashtari said...

एक सूनी सी पगडंडी
तुम्हारे सीने तक
तलाशती है रास्ता
एक गुमशुदा व्यक्ति की तरह...


-बहुत खूब!!! पसंद आई.

manu said...

very sorry mam,.........
par aksar aapki kalam ko pareeshn payaa hai...........
pahli baar esa dekha to likha

ishq sultanpuri said...

aaj pahalee bar padha ........
.......jabardast likhatee hain aap.........mera saubhagya hai ki aapne mera blog dekha.....thanx

Prakash Badal said...

चंद रोज हँस पडे़ थे
खिलखिलाकर
जख्म

किस किस पंकित की प्रशंसा करूं। आप अच्छा लिखतीं हैं वो भी आसाम में रहकर। मेरी शुभकामनाएं

neera said...

क्या कहूँ? शब्द साथ नही दे रहे!

प्रशांत मलिक said...

sari क्षणिकाएँ bahut he achhi hain..
'वज़ह' kafi pasand aayi..
thanks.