Friday, December 27, 2013

मुहब्बत का दरवाजा  …(इक नज़्म )

हर किसी को यही लगा था
 कि  कहानी खत्म हो गई
और किस्सा खत्म हो गया ……
पर कहानी खत्म नहीं हुई थी
शिखर पर पहुँच कर ढलान की ओर
चल पड़ी थी  …
जैसे कोई तरल पदार्थ चल पड़ता है
उस बहाव को न वह रोक पाई थी
 न कोई और  ....
हाँ ! पर मुहब्बत उस कहानी के साथ -साथ
चलती रही थी  …
कहानी थी इक दरवाजे की
जो मुहब्बत का दरवाजा भी था
और दर्द का भी  ....
जब मुहब्बत ने सांकल खटखटाई थी
वह हथेली की राख़ में गुलाब उगाने लगी थी
वह अँधेरी रातों में नज़में लिखती
इन नज़मों में  …
तारों की छाव थी
बादलों की हँसी
सपनों की खिलखिलाहट
खतों के सुनहरे अक्षर
अनलिखे गीतों के सुर
ख्यालों की मुस्कुराहटें
और सफ़हों पर बिखरे थे
तमाम खूबसूरत हर्फ़  ....
पर उस दरवाजे के बीच
एक और दरवाजा था
जिसकी ज़ंज़ीर से उसका एक पैर बंधा था
वह मुहब्बत के सारे अक्षर सफ़हे पर लिख
दरवाजे के नीचे से सरका देती
पर कागजों पर कभी फूल नहीं खिलते
इक दिन हवा का एक बुल्ला
अलविदा का पत्ता उठा लाया
दर्द में धुंध के पहाड़ सिसकने लगे
उस दिन खूब जमकर बारिश हुई
वह तड़प कर पूछती यह किस मौसम की बारिश है
हादसे काँप उठते  ....
बेशक मुहब्बत ने दरवाजा बंद कर लिया था
पर उसके पास अभी भी वो नज़में ज़िंदा हैं
वह उन्हें सीने से लगा पढ़ती भी है
गुनगुनाती भी है  ……

हीर   …

Monday, December 9, 2013

मुहब्बत कब मरी है …

मुहब्बत कब मरी है …

चलो आज लिख देते हैं
सिलसिलेवार दास्तान
तमाम उम्र के मुर्दा शब्दों की
जहां मुहब्बतों के कितने ही फूल
ख़ुदकुशी कर सोये पड़े हैं
कब्रों में …

तुम बताना स्याह लफ्ज़
पागल क्यों होना चाहते थे
टूटे चाँद की जुबान खामोश क्यों थी
कोई कैद कर लेता है बामशक्कत
मुहब्बतों के पेड़ों की छाँव
दो टुकड़ों में काटकर
फेंक देता है चनाब में ....

सुनो ....
मुहब्बत कब मरी है
वह तो ज़िंदा है कब्र में भी
कभी मेरी आँखों से झाँक कर देखना
उस संगमरमरी बुत में भी
वह मुस्कुराएगी …

यकीनन ....
वह फिर लिखेगी इतिहास
'कुबूल - कुबूल' की जगह वह नकार देगी
तुम्हारी हैवानियत की तल्ख़ आवाज़
बिस्तर पर चिने जाने से बेहतर है
वह खरोंच ले अपने ज़ख्म
और बुझे हुए अक्षरों से
फिर मुहब्बत लिख दे …!!

हीर …