कल जहाँ ....
लहर ठहर गई थी
और समुंदर फेंक गया था
उसपर रहम जैसे चंद अल्फाज़
जहाँ दर्द औरत होने का
मुआवज़ा मांगने लगे थे ...
वहीँ मेरी गिरी हुई आँख का पानी
और झुक गया था ....
मेरी छत पर बैठा परिंदा
फिर दर्द के गीत गाने लग पड़ा था
दूर पहाड़ी से दौड़ी चली आई थी उदासी
गले लग कर बोली .........
क्यूँ सस्ते में ही घोल देती हो ये आँसू
लो ओढ़ लो अपनी वही चादर
फटी है तो क्या .....?
है तो तुम्हारी अपनी न , बरसों से ....
कुछ और लगा लेना टाँके
कुछ और सी लेना पैबंद
कब्रें सवाल तो न करेंगी ..?
तोहमत तो न लगायेंगी ...?
अब क्या करोगी हँसी का लिबास ...?
मिट्टी डोल गई है
आसमां खींचने लगा है हाथ
इल्जाम कहाँ रखोगी....?
झोली में गिरे ये शब्द
तुम्हें चुभते रहेंगे ....
उफ्फ्फ.....
जाने क्यूँ ये लोग
बेतहाशा हँसने लगे हैं
चूडियाँ कटघरे में खड़ी
हैरानी से मुझे देखती हैं
किसी ने मेरी कब्र का चेहरा
नाखूनों से कुरेद लिया है
नज़्म फूल मसल रही है
कब्र पर दीया बुझा पड़ा है
मिट्टी खामोश है ....
मेरे दर्द की चादर
और फट गई है ....
मैं लौट आती हूँ वहाँ , जहाँ
लहर ठहरी हुई थी .....
देखती हूँ वह मुहब्बत तमाम के शब्द
मिटाए जा रही थी .....
रेत से ...पानी से ...दरख्तों से ...पत्तों से
मुस्कुराहटों से ..हँसी से ...पलकों से
वह आईने के सामने खड़ी होकर
दुपट्टा ओढ़ती है .....
और फिर उसके टुकड़े टुकड़े कर
फेंक़ देती है समुंदर में .....
उफ्फ्फ.....
मेरी छत पर बैठा
इश्क का परिंदा
दम तोड़ने लगा है ......
मैं उसे अश्कों का आखिरी घूँट
पिलाती हूँ और कहती हूँ .....
अलविदा मित्र ....
पीछे पलटती हूँ ...
तो सामने रात खड़ी है
स्याह रात .....
उदासी के साथ ....
हाथों में मेरी वही फटी
चादर लिए .....!!
Sunday, February 20, 2011
Sunday, February 13, 2011
मैं गीत हूँ तेरे इश्क़ का ......
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
11:14 PM
है इश्क़ खुदा , इश्क़ ही रब्ब है , इश्क़ ही शीरी-फरहाद बन जाता
कह दो जो दो लफ्ज़ इश्क़ के , हर ज़ख्म दर्द का खुद सिल जाता
१४ फ़रवरी इश्क़ का दिन है ...मोहब्बत का दिन है ...शीरी का दिन है ...फरहाद का दिन है ...हीर-रांझे का दिन है ...सोहणी - महिवाल का दिन है ......तो आइये इस दिन का जश्न मनाते हैं इस नज़्म के साथ ......
आज की नज़्म इस मोहब्बत के नाम .......
मैं गीत हूँ तेरे इश्क़ का ......
मैं बीज हूँ मोहब्बत का ....
तू इश्क़ की ज़मीं पे उगा जरा
मैं गीत हूँ तेरे इश्क़ का ......
तू गुनगुना के मुझे देख जरा
मैं सारी हयात तेरे साथ चलूं
तू महबूब मेरा बन तो जरा
मैं ख़त हूँ इक प्यार भरा,मेरी
इक-इक सतर तू पढ़ तो जरा
मैंने गुंध लिया है इसे आटे में
तू कोई रोटी इश्क़ की उतार जरा
आ बुरकी इश्क़ की मिलकर तोडें
कर अना दिल से हम दूर जरा
मैं चिराग़ हूँ हीर की मज़ार का
परवाना बन तू जल तो जरा
मैं आग हूँ , इक शरमाई हुई ........
तू इस बुत से नकाब उतार जरा ..
मत पढ़ इश्क़ का फतवा जालिम
ये जात खुदा की मान जरा ...
इश्क़ नहीं बसता जिस दिल में
वो हैवान का घर ये मान जरा
मैं चनाब हूँ , मैं रबाब हूँ ...
मैं हुस्नो - इल्म का शबाब हूँ
मैं मुहब्बत का सुर्ख गुलाब हूँ
तू खुश्बुएं लुटा के देख जरा .....
इक ज़ख्म हूँ मैं दर्द भरा ...
तू इश्क़ के धागे से सी जरा
हर दर्द रिस कर बह जायेगा
तू इश्क़ की दवा लगा तो जरा
इक रात हूँ मैं इश्क़ भरी
तू द्वार पे दस्तक दे तो जरा
इस स्याह रात की हथेली पर
कोई रंग हिना का उतार जरा
मैं सोहणी का कच्चा घडा भी हूँ
तू इश्क़ के दरिया में डूब जरा
इस इश्क़ की इबादत को कभी
तू बन के राँझा पढ़ तो जरा
मैं महक भी हूँ ,मैं आब भी हूँ
मैं नींद तेरी का ख्वाब भी हूँ
मेरे लब पे रख के लब कभी
तू जाम इश्क़ का उतार जरा
मैं बीज हूँ इक मोहब्बत का
तू इश्क़ की ज़मीं पे उगा जरा
मैं गीत हूँ , तेरे इश्क़ का ......
तू गुनगुना के मुझे देख जरा .....
कह दो जो दो लफ्ज़ इश्क़ के , हर ज़ख्म दर्द का खुद सिल जाता
१४ फ़रवरी इश्क़ का दिन है ...मोहब्बत का दिन है ...शीरी का दिन है ...फरहाद का दिन है ...हीर-रांझे का दिन है ...सोहणी - महिवाल का दिन है ......तो आइये इस दिन का जश्न मनाते हैं इस नज़्म के साथ ......
आज की नज़्म इस मोहब्बत के नाम .......
मैं गीत हूँ तेरे इश्क़ का ......
मैं बीज हूँ मोहब्बत का ....
तू इश्क़ की ज़मीं पे उगा जरा
मैं गीत हूँ तेरे इश्क़ का ......
तू गुनगुना के मुझे देख जरा
मैं सारी हयात तेरे साथ चलूं
तू महबूब मेरा बन तो जरा
मैं ख़त हूँ इक प्यार भरा,मेरी
इक-इक सतर तू पढ़ तो जरा
मैंने गुंध लिया है इसे आटे में
तू कोई रोटी इश्क़ की उतार जरा
आ बुरकी इश्क़ की मिलकर तोडें
कर अना दिल से हम दूर जरा
मैं चिराग़ हूँ हीर की मज़ार का
परवाना बन तू जल तो जरा
मैं आग हूँ , इक शरमाई हुई ........
तू इस बुत से नकाब उतार जरा ..
मत पढ़ इश्क़ का फतवा जालिम
ये जात खुदा की मान जरा ...
इश्क़ नहीं बसता जिस दिल में
वो हैवान का घर ये मान जरा
मैं चनाब हूँ , मैं रबाब हूँ ...
मैं हुस्नो - इल्म का शबाब हूँ
मैं मुहब्बत का सुर्ख गुलाब हूँ
तू खुश्बुएं लुटा के देख जरा .....
इक ज़ख्म हूँ मैं दर्द भरा ...
तू इश्क़ के धागे से सी जरा
हर दर्द रिस कर बह जायेगा
तू इश्क़ की दवा लगा तो जरा
इक रात हूँ मैं इश्क़ भरी
तू द्वार पे दस्तक दे तो जरा
इस स्याह रात की हथेली पर
कोई रंग हिना का उतार जरा
मैं सोहणी का कच्चा घडा भी हूँ
तू इश्क़ के दरिया में डूब जरा
इस इश्क़ की इबादत को कभी
तू बन के राँझा पढ़ तो जरा
मैं महक भी हूँ ,मैं आब भी हूँ
मैं नींद तेरी का ख्वाब भी हूँ
मेरे लब पे रख के लब कभी
तू जाम इश्क़ का उतार जरा
मैं बीज हूँ इक मोहब्बत का
तू इश्क़ की ज़मीं पे उगा जरा
मैं गीत हूँ , तेरे इश्क़ का ......
तू गुनगुना के मुझे देख जरा .....
Friday, February 4, 2011
पत्थर हुई बूंद ....बैसाखियाँ.....और फफोला ....
Posted by
हरकीरत ' हीर'
at
10:24 PM
कुछ नज्में .....
(१)
पत्थर हुई बूंद ....
ये कैसे पत्थर हैं
सिसकते हुए ....?
कहीं मिट्टी काँपी है
कोई रात ....
रिश्ता पीठ पर लादे
दहाड़ें मारती है ...
बेखबर से लफ्ज़
अँधेरे की ओट में
चाँद तारों की राह
चल पड़े हैं ....
मुझे पता है ...
तूने तूफ़ानों को
नहीं बेचीं थी नज़्म
फिर ये ज़ख्म क्यों
बिखरे पड़े हैं ...?
जब तुम ....
आखिरी बार मिले थे
तभी ये बूंद पत्थर
बन गई थी .......
आ आज इसकी कब्र पे
मिट्टी डाल दें .......!!
(२)
तेरा आना .....
कुछ दिन ...
जहाँ तुम ले गए थे
बड़ा हसीन सा तसव्वुर था
इश्क़ पानियों में तैरने लगा था
हवा चुपके से छलका जाती
आँखों का जाम .....
मन आवारा सा हुआ जाता
मैं हिमालय की चोटि पर बैठी
बो देना चाहती सारे मुहब्बत के बीज
आसमां के आँगन में ...
देखना चाहती ....
कैसे मुहब्बत की आग से
पिघलते हैं सितारे .
कैसे मुहब्बत जिस्म जलाती है
नदी डूब जाती है समंदर में
इक मुद्दत बाद
आज फिर ख्यालों में
हँसी आई है .....!!
(३)
बैसाखियाँ.....
क्यों ख़ामोश से
कमजोर ,जर्द हुए खड़े हो ...?
मुहब्बत के ताप की तहरीर से
बिदक कर भागना चाहते हो ....?
अच्छा किया जो भागते वक़्त
अपनी बैसाखियाँ फेंक दीं ....
देखना चाहती हूँ
कितनी जल्द तुम
गंतव्य तक
पहुँच जाते हो ......!?!
(४)
दर्द .....
हिमालय की
चोटि पर बैठ ....
प्रेमालाप करने लगे थे
दो शख्स .....
दर्द उधेड़ देने की कोशिश में
और बुनते गए चारों ओर
आज फिर चाँद रोयेगा
किसी मजार पे बैठ ....
(५)
फफोला.....
सुनो .....
वह जो अंगुली पर
फफोला निकल आया था न ....?
उसे मैंने मसलकर
नमक लगा दिया है ....
अब तुम्हारी यादें
दर्द नहीं देतीं ......!!
(१)
पत्थर हुई बूंद ....
ये कैसे पत्थर हैं
सिसकते हुए ....?
कहीं मिट्टी काँपी है
कोई रात ....
रिश्ता पीठ पर लादे
दहाड़ें मारती है ...
बेखबर से लफ्ज़
अँधेरे की ओट में
चाँद तारों की राह
चल पड़े हैं ....
मुझे पता है ...
तूने तूफ़ानों को
नहीं बेचीं थी नज़्म
फिर ये ज़ख्म क्यों
बिखरे पड़े हैं ...?
जब तुम ....
आखिरी बार मिले थे
तभी ये बूंद पत्थर
बन गई थी .......
आ आज इसकी कब्र पे
मिट्टी डाल दें .......!!
(२)
तेरा आना .....
कुछ दिन ...
जहाँ तुम ले गए थे
बड़ा हसीन सा तसव्वुर था
इश्क़ पानियों में तैरने लगा था
हवा चुपके से छलका जाती
आँखों का जाम .....
मन आवारा सा हुआ जाता
मैं हिमालय की चोटि पर बैठी
बो देना चाहती सारे मुहब्बत के बीज
आसमां के आँगन में ...
देखना चाहती ....
कैसे मुहब्बत की आग से
पिघलते हैं सितारे .
कैसे मुहब्बत जिस्म जलाती है
नदी डूब जाती है समंदर में
इक मुद्दत बाद
आज फिर ख्यालों में
हँसी आई है .....!!
(३)
बैसाखियाँ.....
क्यों ख़ामोश से
कमजोर ,जर्द हुए खड़े हो ...?
मुहब्बत के ताप की तहरीर से
बिदक कर भागना चाहते हो ....?
अच्छा किया जो भागते वक़्त
अपनी बैसाखियाँ फेंक दीं ....
देखना चाहती हूँ
कितनी जल्द तुम
गंतव्य तक
पहुँच जाते हो ......!?!
(४)
दर्द .....
हिमालय की
चोटि पर बैठ ....
प्रेमालाप करने लगे थे
दो शख्स .....
दर्द उधेड़ देने की कोशिश में
और बुनते गए चारों ओर
आज फिर चाँद रोयेगा
किसी मजार पे बैठ ....
(५)
फफोला.....
सुनो .....
वह जो अंगुली पर
फफोला निकल आया था न ....?
उसे मैंने मसलकर
नमक लगा दिया है ....
अब तुम्हारी यादें
दर्द नहीं देतीं ......!!
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