आओ चाँद पर कुछ पैबंद लगा दें …
जिस दिन मैंने नज़्म को जन्म दिया था
वो अपंग नहीं थी
न ही आसमान में कुचले हुए
उसके मासूम ख्याल थे
वक़्त के थपेड़ों के साथ-साथ अंग विहीन होती गई उसकी देह …
कई बार नोचे गए उसके पंख
रेत दिए गए कंठ में ही उसके शब्द
किया गया बलात्कार निर्ममता से
छीन लिए गए उसके अधिकार
दीवारों में चिन दी गई उसकी आवाजें
लगा दी गई आग , अब
जले कपड़ों में घूमती है उसकी परछाई
वह कमरा जहाँ कभी उसने बोया था प्रेम का खूबसूरत बीज
आज ख़ामोशी की क़ब्रगाह बना बैठा है
अँधेरे में कैद है ज़िस्म की गंध …
अब कोई वज़ूद नहीं है
इन कागज के टुकड़ों का
महज सफ़हों पर उतरे हुए कुछ
सुलगते खामोश से सवाल हैं
और मिटटी में तब्दील होती जा रही है
मरी हुई पाजेब की उठती सड़ांध
देखना है ऐसे में नज़्म कितने दिन
ज़िंदा रह पाती है …
आओ चाँद पर कुछ पैबंद लगा दें …!!
इन परिस्थितियों में तो शब्द अर्थ खोने लगे हैं।
ReplyDeleteसमाज के प्रचलित कटु सत्य को उभारती रचना!
ReplyDeleteनई पोस्ट मेरी प्रियतमा आ !
नई पोस्ट मौसम (शीत काल )
"आज ख़ामोशी की क़ब्रगाह बना बैठा है
ReplyDeleteअँधेरे में कैद है ज़िस्म की गंध"
गहरे भाव...निःशब्द करती रचना...
बहुत दिन बात
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा
एक पैबंद लगा !
वेदना भी रो देगी इसे पढ़कर
ReplyDeleteबहुत प्रभावी
बहुत बढ़िया हीर जी....
ReplyDeleteबेहद कोमल एहसासों को उकेरा है !!
सादर
अनु
लफ्ज़ जब बाज़ार में बिकने लगें, तो दिल के जज़्बात और मोहब्बत के अल्फ़ाज़ कौन समझता है.. उस पागल नज़्म के साथ हर रात किसी प्लैटफ़ॉर्म पर ज़िना होता है... चाँद पर पैबन्द लगाएँ या उस घायल नज़्म के ज़ख़्मों पर पट्टी बाँधें... चाँद सी नज़्म को पैबन्द लगाएँ, शायद वही उसके ज़ख़्मों की पट्टी हो..
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत हरकीरत जी!
आज ख़ामोशी की क़ब्रगाह बना बैठा है
ReplyDeleteअँधेरे में कैद है ज़िस्म की गंध"
गहरे भाव..!
भावो का सुन्दर समायोजन......
ReplyDeleteकाश इन नज्मों का दर्द हर कोई समझ सके
ReplyDeleteगहन भाव
साभार!
बहुत सुन्दर अहसास पिरोयें हैं , आपने अपनी कविता में ..
ReplyDeleteसुन्दर भाव
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से दर्द को भी लिख दिया है
ReplyDeleteअब कोई वज़ूद नहीं है
ReplyDeleteइन कागज के टुकड़ों का
महज सफ़हों पर उतरे हुए कुछ
सुलगते खामोश से सवाल हैं
और मिटटी में तब्दील होती जा रही है
मरी हुई पाजेब की उठती सड़ांध
देखना है ऐसे में नज़्म कितने दिन
ज़िंदा रह पाती है
कमाल.....
आप ऐसी कलाकार हैं जो दर्द को शब्दों मे बड़ी खूबसूरती से ढाल देती हैं, बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteनज़्म तो प्रेम की तरह अमर है ! दोनो ही कभी मरते नहीं !
ReplyDeleteबहुत मार्मिक है -- हमेशा की तरह !
मुख़्तलिफ़ भावों से सजी बेहद खूबसूरत नज़्म. वक़्त हमें बहुत कुछ सिखा देता है.
ReplyDeleteब्लॉग पर आकर हौसला अफज़ाई करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया. नयी पोस्ट पर आपकी राय का इन्तिज़ार रहेगा.
-हिमकर श्याम
http://himkarshyam.blogspot.in
समर्पण की यह परिभाषा
ReplyDeleteइतिहास के स्वर्णिम पन्ने दोहराते रहेंगे
bahut khoob harqeerat
ReplyDeletehamesha ki tarah...nayab abhivykti!