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Friday, January 24, 2014

आओ चाँद पर कुछ पैबंद लगा दें …

आओ चाँद पर कुछ पैबंद लगा दें  …
जिस दिन मैंने
  नज़्म को जन्म दिया था
वो अपंग नहीं थी
न ही आसमान में कुचले हुए
उसके मासूम ख्याल थे
वक़्त के थपेड़ों के साथ-साथ
अंग विहीन होती गई उसकी देह …

कई बार नोचे गए उसके पंख
रेत  दिए गए कंठ में ही उसके शब्द
किया गया बलात्कार निर्ममता से
छीन लिए गए उसके अधिकार
दीवारों में चिन दी गई उसकी आवाजें
लगा दी गई आग , अब
जले कपड़ों में घूमती है उसकी परछाई
वह कमरा जहाँ कभी उसने बोया था
प्रेम का खूबसूरत बीज
आज ख़ामोशी की क़ब्रगाह बना बैठा है
अँधेरे में कैद है ज़िस्म की गंध  …

अब कोई वज़ूद नहीं है
इन कागज के टुकड़ों का
महज सफ़हों पर उतरे हुए कुछ
सुलगते खामोश से सवाल हैं
और मिटटी में तब्दील होती जा रही है
मरी हुई पाजेब की उठती सड़ांध
देखना है ऐसे में नज़्म कितने दिन
ज़िंदा रह पाती है …
आओ चाँद पर कुछ पैबंद लगा दें  …!!




19 comments:

  1. इन परिस्थितियों में तो शब्द अर्थ खोने लगे हैं।

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  2. समाज के प्रचलित कटु सत्य को उभारती रचना!
    नई पोस्ट मेरी प्रियतमा आ !
    नई पोस्ट मौसम (शीत काल )

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  3. "आज ख़ामोशी की क़ब्रगाह बना बैठा है
    अँधेरे में कैद है ज़िस्म की गंध"

    गहरे भाव...निःशब्द करती रचना...

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  4. बहुत दिन बात
    बहुत अच्छा लगा
    एक पैबंद लगा !

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  5. वेदना भी रो देगी इसे पढ़कर
    बहुत प्रभावी

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  6. बहुत बढ़िया हीर जी....
    बेहद कोमल एहसासों को उकेरा है !!

    सादर
    अनु

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  7. लफ्ज़ जब बाज़ार में बिकने लगें, तो दिल के जज़्बात और मोहब्बत के अल्फ़ाज़ कौन समझता है.. उस पागल नज़्म के साथ हर रात किसी प्लैटफ़ॉर्म पर ज़िना होता है... चाँद पर पैबन्द लगाएँ या उस घायल नज़्म के ज़ख़्मों पर पट्टी बाँधें... चाँद सी नज़्म को पैबन्द लगाएँ, शायद वही उसके ज़ख़्मों की पट्टी हो..
    बहुत ख़ूबसूरत हरकीरत जी!

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  8. आज ख़ामोशी की क़ब्रगाह बना बैठा है
    अँधेरे में कैद है ज़िस्म की गंध"

    गहरे भाव..!

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  9. भावो का सुन्दर समायोजन......

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  10. काश इन नज्मों का दर्द हर कोई समझ सके
    गहन भाव
    साभार!

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  11. बहुत सुन्दर अहसास पिरोयें हैं , आपने अपनी कविता में ..

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  12. बहुत खूबसूरती से दर्द को भी लिख दिया है

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  13. अब कोई वज़ूद नहीं है
    इन कागज के टुकड़ों का
    महज सफ़हों पर उतरे हुए कुछ
    सुलगते खामोश से सवाल हैं
    और मिटटी में तब्दील होती जा रही है
    मरी हुई पाजेब की उठती सड़ांध
    देखना है ऐसे में नज़्म कितने दिन
    ज़िंदा रह पाती है
    कमाल.....

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  14. आप ऐसी कलाकार हैं जो दर्द को शब्दों मे बड़ी खूबसूरती से ढाल देती हैं, बहुत बढ़िया।

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  15. नज़्म तो प्रेम की तरह अमर है ! दोनो ही कभी मरते नहीं !
    बहुत मार्मिक है -- हमेशा की तरह !

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  16. मुख़्तलिफ़ भावों से सजी बेहद खूबसूरत नज़्म. वक़्त हमें बहुत कुछ सिखा देता है.
    ब्लॉग पर आकर हौसला अफज़ाई करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया. नयी पोस्ट पर आपकी राय का इन्तिज़ार रहेगा.
    -हिमकर श्याम
    http://himkarshyam.blogspot.in

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  17. समर्पण की यह परिभाषा
    इतिहास के स्वर्णिम पन्ने दोहराते रहेंगे

    bahut khoob harqeerat

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  18. hamesha ki tarah...nayab abhivykti!

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