'नव्या' पत्रिका में मेरी तीन कवितायेँ ....
(2) बंद खिड़कियाँ ....
अंधेरों को चीरकर
दो रौशनी के धब्बे
ठहर गए हैं मेरे घर के सामने
मुसलाधार बारिश में
क्रुद्ध हवाएं
एक चमकदार अंगुली से
बजाती हैं घंटी
कोई रोशनदान से झांकता है
नीली, पीली, हरी बत्तियां
बदहवासी से दौड़ी चली आती हैं ...
कितने जालों से घिरी है ज़िन्दगी
सोचती हूँ खो न दूँ तुम्हें कहीं
वृक्षों से गिरती बूंदों की मानिंद
इक चिड़िया तिनका लिए चहकती है
लेकिन स्वतंत्रता पंख फड़फड़ा रही है
बंद खिड़कियों के भीतर
आह ! कोई दर्द मोम की तरह
जमता जा रहा है अंतड़ियों में
तमाम मर्यादाएं ,नैतिकताएं बाँध दी गई हैं
मेरे कदमों से ....
मैं खो चुकी हूँ अपना संतुलन
इससे पहले कि उफनते ज्वालामुखी से
झुलस जाएँ तुम्हारे पर
जाओ चिड़िया उड़ जाओ
तुम अपना घर कहीं
और बसा लो .....
(3) विकल्प ...
खामोश सन्नाटा
सांस रुन्धकर अटकने लगी है
भयातुर आँखें
आक्रामकता से आक्रांत
विसंगतियों और क्रूरताओं से भरा यह समाज
समय की गांठों में उलझा हुआ ...
खुद से खुद को बचाने की खातिर
लड़ता है कवि ज़िन्दगी के
खतरनाक शब्दों से
जबकि प्रेम मुट्ठियों में बंद है
सच कपडे उतारे सामने खड़ा है
अपने हिस्से की सारी जमीन
खोद डालता है वह
खुद को शर्मसार होने से बचाने के लिए ....
कितना त्रासद
कितना उदास ,प्रेम का रंग
अनब्याही भूख सा
जहां तेवरों में ढह जाते हैं
आंतरिकता के शब्द
चलो इन मरे हुए शब्दों के विरुद्ध
खड़े कर दे हम बीज रूप में
मुस्कानों के फूल ..
और हंसी का कोई विकल्प रख दें ....
http://www.dil-punjab.com/parvaaz-a-kalmparvaaz-a-kalm
'हीर' की तीन कविताएँ
27 Feb. 2013
(1) पत्थर हुई औरत ....
अनगिनत प्रार्थनाएं
अनगिनत स्वर
पर कोई भी शब्द स्पष्ट नहीं
अर्थहीन शब्द तैर रहे हैं हवाओं में
एक दिव्य गुंजन
क्या है ये ....?
जड़ या चेतन ....?
वह सब भूल गई है
अपना अतीत
अपना वर्तमान
ह्रदय का स्पंदन
आँख , कान श्वास -प्रश्वास
सब कुछ शून्य मुद्रा में नि:शब्द है
रात सुब्ह के ब्रह्म मुहूर्त की प्रतीक्षा में बैठी है
वह आज पावन कुम्भ के जल से
कर लेना चाहती है आचमन* ...
द्विधाओं के संजाल से
मुक्त करेगा कोई चमत्कारिक दृश्य
जलावृत में तैरती अमृत बूंदें
बुराइयों का कर तर्पण
गरुड़ पंखों से
आस्थाओं के पुंज को
शायद जीवित कर दे
अरे ! यह क्या ...?
उसके गालों में आंसू ....?
आह ! आज बहने दूँ इन्हें
शायद उसकी चेतना से
शून्य लौट जाए ......!!
आचमन* -शुद्धि के निमित्त मुंह में जल लेना
अनगिनत प्रार्थनाएं
अनगिनत स्वर
पर कोई भी शब्द स्पष्ट नहीं
अर्थहीन शब्द तैर रहे हैं हवाओं में
एक दिव्य गुंजन
क्या है ये ....?
जड़ या चेतन ....?
वह सब भूल गई है
अपना अतीत
अपना वर्तमान
ह्रदय का स्पंदन
आँख , कान श्वास -प्रश्वास
सब कुछ शून्य मुद्रा में नि:शब्द है
रात सुब्ह के ब्रह्म मुहूर्त की प्रतीक्षा में बैठी है
वह आज पावन कुम्भ के जल से
कर लेना चाहती है आचमन* ...
द्विधाओं के संजाल से
मुक्त करेगा कोई चमत्कारिक दृश्य
जलावृत में तैरती अमृत बूंदें
बुराइयों का कर तर्पण
गरुड़ पंखों से
आस्थाओं के पुंज को
शायद जीवित कर दे
अरे ! यह क्या ...?
उसके गालों में आंसू ....?
आह ! आज बहने दूँ इन्हें
शायद उसकी चेतना से
शून्य लौट जाए ......!!
आचमन* -शुद्धि के निमित्त मुंह में जल लेना
(2) बंद खिड़कियाँ ....
अंधेरों को चीरकर
दो रौशनी के धब्बे
ठहर गए हैं मेरे घर के सामने
मुसलाधार बारिश में
क्रुद्ध हवाएं
एक चमकदार अंगुली से
बजाती हैं घंटी
कोई रोशनदान से झांकता है
नीली, पीली, हरी बत्तियां
बदहवासी से दौड़ी चली आती हैं ...
कितने जालों से घिरी है ज़िन्दगी
सोचती हूँ खो न दूँ तुम्हें कहीं
वृक्षों से गिरती बूंदों की मानिंद
इक चिड़िया तिनका लिए चहकती है
लेकिन स्वतंत्रता पंख फड़फड़ा रही है
बंद खिड़कियों के भीतर
आह ! कोई दर्द मोम की तरह
जमता जा रहा है अंतड़ियों में
तमाम मर्यादाएं ,नैतिकताएं बाँध दी गई हैं
मेरे कदमों से ....
मैं खो चुकी हूँ अपना संतुलन
इससे पहले कि उफनते ज्वालामुखी से
झुलस जाएँ तुम्हारे पर
जाओ चिड़िया उड़ जाओ
तुम अपना घर कहीं
और बसा लो .....
(3) विकल्प ...
खामोश सन्नाटा
सांस रुन्धकर अटकने लगी है
भयातुर आँखें
आक्रामकता से आक्रांत
विसंगतियों और क्रूरताओं से भरा यह समाज
समय की गांठों में उलझा हुआ ...
खुद से खुद को बचाने की खातिर
लड़ता है कवि ज़िन्दगी के
खतरनाक शब्दों से
जबकि प्रेम मुट्ठियों में बंद है
सच कपडे उतारे सामने खड़ा है
अपने हिस्से की सारी जमीन
खोद डालता है वह
खुद को शर्मसार होने से बचाने के लिए ....
कितना त्रासद
कितना उदास ,प्रेम का रंग
अनब्याही भूख सा
जहां तेवरों में ढह जाते हैं
आंतरिकता के शब्द
चलो इन मरे हुए शब्दों के विरुद्ध
खड़े कर दे हम बीज रूप में
मुस्कानों के फूल ..
और हंसी का कोई विकल्प रख दें ....
http://www.dil-punjab.com/parvaaz-a-kalmparvaaz-a-kalm
बहुत प्रभावी ... तीनों रचनाओं में गरही टीस है ... दर्द की लहर है जहाँ रौशनी की हलकी सी लकीर भी नज़र आती है ...
ReplyDeleteकितना त्रासद
ReplyDeleteकितना उदास ,प्रेम का रंग
अनब्याही भूख सा
---------------------
काफी गहरी रचना ... कई बार पढ़ना पड़ेगा ...
प्रकाशित तीनों सुन्दर रचनाओं के लिए बहुत बहुत बधाई !
ReplyDeleteबहुत ही अद्भुत अंतर्चेतना को जागृत करती तीनो प्रकाशित कविताओं के लिए कोटिशः बधाई ...
ReplyDeleteतीनो ही रचनाएँ बहुत ही बेहतरीन है..
ReplyDeleteगहरे भाव लिए....
बहुत सुंदर रचनाएं
ReplyDeleteशुभकामनाएं
behatreen...
ReplyDeleteतीनों कविताएँ बहुत गहन भाव लिए हुए, दिल को छूती हुईं....
ReplyDeleteकविताएँ प्रकाशित होने के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ...!:-)
~सादर!!!
Nice post.....
ReplyDeleteMere blog pr aapka swagat hai
कितना त्रासद
ReplyDeleteकितना उदास ,प्रेम का रंग
अनब्याही भूख सा
जहां तेवरों में ढह जाते हैं
आंतरिकता के शब्द
...कितनी बार ...न जाने कितनी बार हम तेवरों में खो देते हैं वह पल जिन्हें जीने के लिए न जाने कितने जन्म राह तकते हैं...
बेहद सुन्दर अभियक्ति | आभार |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
इन्हे पढ़कर अच्छा लगा.
ReplyDeleteतीनों रचना ही बहुत प्रभावी और सशक्त...
ReplyDeleteबहुत प्रभावी तीनों सुन्दर रचनाओं के लिए बहुत बहुत बधाई !
ReplyDeletelatest post मोहन कुछ तो बोलो!
latest postक्षणिकाएँ
प्रभावी रचनाएँ.....गहरी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगहन भाव लिये ...तीनों रचनाएं बेहद सशक्त
ReplyDeleteप्रकाशन के लिये बधाई सहित शुभकामनाएँ
बधाई , आपकी कविताये आगे भी ऐसे ही छपती रहें
ReplyDeleteइन रचनाओं में गहरे भावों के साथ भाषा और शब्दों के ज्ञान की गहराई भी है।
ReplyDeleteबधाई।
ReplyDeleteतीनो रचनाएँ उत्कृष्ट.
खुद से खुद को बचाने की खातिर
लड़ता है कवि ज़िन्दगी के
खतरनाक शब्दों से
जबकि प्रेम मुट्ठियों में बंद है
सच कपडे उतारे सामने खड़ा है
अपने हिस्से की सारी जमीन
खोद डालता है वह
खुद को शर्मसार होने से बचाने के लिए ....
कवि की परिस्थिति का सुन्दर चित्रण.
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली रचनाएँ
ReplyDeleteबेहतरीन कवितायेँ और ब्लॉग का नया कलेवर बहुत सुंदर लगा. बधाई हीर जी.
ReplyDeleteचलो इन मरे हुए शब्दों के विरुद्ध
ReplyDeleteखड़े कर दे हम बीज रूप में
मुस्कानों के फूल ..
और हंसी का कोई विकल्प रख दें ....
एक आस तो जगी है मन में यही जगायेगी आस्था जीवन में ।
आपको प्रकाशन पर बहुत बधाई । तीनों कविताएं दर्दीली ।
ReplyDeleteइक चिड़िया तिनका लिए चहकती है
ReplyDeleteलेकिन स्वतंत्रता पंख फड़फड़ा रही है
बंद खिड़कियों के भीतर, मुक्ति की पीड़ा की सच्ची अभिव्यक्ति
बहुत ही बढिया ।
ReplyDeleteतीनों ही रचनाये कमाल की हैं ...मुझे खास तौर पर 'विकल्प' बहुत पसंद आई। बहुत बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteहीर जी ...तीनों ही रचनाएँ बेहद प्रभावशाली हैं ... बार बार पढ़ रही हूँ पर मन नहीं भरता ...
ReplyDeleteसार्थक और सुंदर रचना .....
ReplyDeleteआप भी पधारो स्वागत है ...
http://pankajkrsah.blogspot.com
ReplyDeleteसादर जन सधारण सुचना आपके सहयोग की जरुरत
साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )
ReplyDeleteसादर जन सधारण सुचना आपके सहयोग की जरुरत
साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )
ReplyDeleteसादर जन सधारण सुचना आपके सहयोग की जरुरत
साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )
बहुत खूब
ReplyDeleteapki rachanaye .....jitani tareef karu kam hogi ....bahut hi prabhavshali teeno rachanayen hai bilkul mn ko chhoone wali hain ...sadar aabhar Heer ji .
ReplyDeleteHoli pr hardik badhai ke sath hi blog pr amantrn sweekaren .