पेश है इक ग़ज़ल जिसे सजाने संवारने का काम किया है चरनजीत मान जी ने ......
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने .....
मेरे दिल के अरमां रहे रात जलते
रहे सब करवट पे करवट बदलते
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने
बहुत रोया है दिल दहलते- दहलते
लगी दिल की है जख्म जाता नहीं ये
बहल जाएगा दिल बहलते- बहलते
तड़प बेवफा मत जमाने की खातिर
चलें चल कहीं और टहलते -टहलते
अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
अभी जख्म खाने कई चलते-चलते
है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन
ये चढ़नी पड़ेगी , संभलते -संभलते
ये ज़ीस्त अब उजाले से डरने लगी है
हुई शाम क्यूँ दिन के यूँ ढलते- ढलते
जवाब आया न तो मुहब्बत क्या करते
बुझा दिल का आखिर दिया जलते -जलते
न घबरा तिरी जीत ही 'हीर' होगी
वो पिघलेंगे इक दिन पिघलते-पिघलते
१२२ १२२ १२२ १२२
फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने .....
मेरे दिल के अरमां रहे रात जलते
रहे सब करवट पे करवट बदलते
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने
बहुत रोया है दिल दहलते- दहलते
लगी दिल की है जख्म जाता नहीं ये
बहल जाएगा दिल बहलते- बहलते
तड़प बेवफा मत जमाने की खातिर
चलें चल कहीं और टहलते -टहलते
अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
अभी जख्म खाने कई चलते-चलते
है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन
ये चढ़नी पड़ेगी , संभलते -संभलते
ये ज़ीस्त अब उजाले से डरने लगी है
हुई शाम क्यूँ दिन के यूँ ढलते- ढलते
जवाब आया न तो मुहब्बत क्या करते
बुझा दिल का आखिर दिया जलते -जलते
न घबरा तिरी जीत ही 'हीर' होगी
वो पिघलेंगे इक दिन पिघलते-पिघलते
१२२ १२२ १२२ १२२
फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
(बह्र: मुतकारिब मुसम्मन सालिम)
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने
ReplyDeleteबहुत रोया है दिल दहलते- दहलते
मेरे दिल की भी कहने लगे अब तो आप ? हर एक लफ़्ज दिल की हार की याद दिला गया ...!
बहुत सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुति बेटी न जन्म ले यहाँ कहना ही पड़ गया . आप भी जाने मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?
ReplyDeleteमिल जाएगी एक दिन तुझ को भी मंजिल ऐ हीर
ReplyDeleteखुली रखना अपनी ये आँखे बस यूँ ही मलते मलते.. ..शुभकामनायें!
अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
ReplyDeleteअभी जख्म खाने कई चलते-चलते...
ओह. बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteक्या कहने
प्यार से भरा दिल और बहुत सुंदर जज़्बात ....
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा है हरकीरत जी ...
बहुत अच्छी गज़ल है...
ReplyDeleteअभी इश्क का ये तो पहला कदम है
ReplyDeleteअभी जख्म खाने कई चलते-चलते
प्रेम पंथ ऐसा ही कठीन है !
बहुत गहन संवेदनायें..सुन्दर प्रस्तुति भावों की..
ReplyDeleteतड़प बेवफा मत जमाने की खातिर
ReplyDeleteचलें चल कहीं और टहलते -टहलते
...इस दुनिया से दूर.....जो सिर्फ ज़ख्म दे सकती है ....मरहम नहीं बन सकती
हर शेर लाजवाब ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार आपका
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर... हरकीरत जी !
ReplyDeleteमोहब्बत की राहें कठिन हैं बहुत ही
मिले इस पे मंज़िल...ठहरते ठहरते... :-)
~सादर!!!
बहुत ही सुंदर... हरकीरत जी !
ReplyDeleteमोहब्बत की राहें कठिन हैं बहुत ही
मिले इस पे मंज़िल...ठहरते ठहरते... :-)
~सादर!!!
वाह बहुत खूब ... सादर !
ReplyDeleteकौन करेगा नमक का हक़ अदा - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सारे शेर बहुत अच्छे लगे.
ReplyDeleteन घबरा तिरी जीत ही 'हीर' होगी
ReplyDeleteवो पिघलेंगे इक दिन पिघलते-पिघलते
आमीन !
जीतने वालों के गले में भी लोग 'हार' ही डालते हैं।
बढ़िया ग़ज़ल लिखी है। बधाई।
अच्छी या बुरी ग़ज़ल की कोई परिभाषा नहीं होती ...ग़ज़ल जब लिखी जाती है तो दिल का लहू कलम में अपने आप आ जाता है ....हर हर्फ़ सुंदर जान पड़ता है ..बहुत खूब हीर ...
ReplyDeleteतड़प बेवफा मत जमाने की खातिर
ReplyDeleteचलें चल कहीं और टहलते -टहलते
Balle Balle Ji Waah. Behtariin ghazal. Daad kabool karen.
Neeraj
बहुत खूबसूरत गज़ल...!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गज़ल...!
ReplyDeleteकैसा है, क्या है, क्यों है ये किसी के भी सवालों का हल नहीं |
ReplyDeleteबात ये है कि आपकी रचना को नज़र अंदाज़ करना कैसे भी सरल नहीं ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति.......
मन खुश हो गया
अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
ReplyDeleteअभी जख्म खाने कई चलते-चलते
है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन
ये चढ़नी पड़ेगी , संभलते -संभलते
बहोत खूब हीर जी ।
खूबसूरत गज़ल
ReplyDeletepadhi hamney yeh gazal, ankhey maltey maltey
ReplyDeleteBahut khoob Harkeerat Ji
बहुत उम्दा गज़ल ...
ReplyDeleteShukriya Balvinder ji ....:))
ReplyDeleteवाह जी बहुत बढ़िया
ReplyDeletebahut khoob kahi aapne
ReplyDelete"यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने
ReplyDeleteबहुत रोया है दिल दहलते- दहलते
अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
अभी जख्म खाने कई चलते-चलते"
उम्दा शेर... बहुत अच्छी ग़ज़ल...बहुत बहुत बधाई...
तकलीफदेह यादें , जीवन भर के लिए ...
ReplyDeleteशुभकामनायें ..
न घबरा तिरी जीत ही 'हीर' होगी
वो पिघलेंगे इक दिन पिघलते-पिघलते
आमीन !
आदरणीया हरकीरत 'हीर' जी
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल लिखी है आपने ...
तमाम अशआर काबिले-तारीफ़ हैं
यह शेर ख़ुद के मन-बहलाव के लिए कोट कर रहा हूं...
है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन
ये चढ़नी पड़ेगी , संभलते-संभलते
पूरी ग़ज़ल शानदार-जानदार है
बहुत ख़ूबसूरत !
वाह ! वाऽह !
भरपूर मुबारकबाद !!
बसंत पंचमी एवं
आने वाले सभी उत्सवों-मंगलदिवसों के लिए
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
राजेन्द्र स्वर्णकार
हां ,
कुछ तब्दीलियों के लिए अलग से मुबारकबाद !
ब्लॉग के बेकग्राउंड पर छाई सियाही / कालिमा हरे रंग से होते हुए अब गुलाबी हो चुकी है ...
:)
बहुत खिल रहा है गुलाबी रंग !
खिलते रहें... गुलाब और जियादा !!
bahut sunder rachana.
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