आज फिर कुछ क्षणिकाएं .....
शायद अगली बार कुछ तस्वीरें पेश करूँ , अभी मुझे मिली नहीं ...हाल ही में दूरदर्शन पे 'सदभावना' विषय पर काव्यगोष्ठी हुई ...विस्तार से अगली बार .....
कुछ क्षणिकाएं .....
(१)
इक कोठरी में लगे हैं जाले
इक कोठरी में खामोशी रहती है
इक कोठरी दर्द ने ले रखी है
इक कोठरी बरसों से बंद पड़ी है
कभी रहा करता था यहाँ प्रेम
सोचती हूँ तुम्हें दिल की
किस कोठरी में रखूं .....?
(२)
वो कभी-कभी ...
छिप-छिप कर मुस्कुराया करता
जब भी गुज़रती उसकी खिड़की के सामने से
गहरी नज़रों से तकता मुझे
इक दिन जा खड़ी हुई उसके सामने
पूछा- कौन हो तुम ....?
वह बोला - तुम्हारा प्रेम नहीं हूँ मैं
मैं थके क़दमों से
लौट आई ......!!
(३)
झील ...
कभी सोती नहीं
अक्सर तारे उतर आते हैं
उसकी छाती पर ...
अटखेलियाँ करते
केले के पेड़ों की नाव पर सवार
चूम लेते उसके बंद कमल
पर झील को उस तारे से प्रेम था
जो आसमां में अकेला ही चमकता था
धूमकेतु सा .....!!
(४)
वह .....
बहुत ऊंचे पर्वत पे
मौन साधे बैठा था ...
मुझे वहां पहुँचने में बहुत देर हो गई
जब मैं वहां पहुंची बहुत भीड़ थी
लोग हाथों में फूल लिए
उसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था .....!!
(५)
बहुत ढूंढा ....
कई बंद दरवाजे खटखटाए
झाड़ियों के पीछे ...
बाज़ारों में , दुकानों में ...
मेले में ....
उस मोंल में भी
जो अभी-अभी .....
चिड़िया घर के सामने खुला है
पर तुम कहीं नहीं मिले ...
तुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....?
man ko aandolit karti shanikayen .bahut khoob .aabhar .
ReplyDeleteBLOG PAHELI NO.1
बढिया क्षणिकाएं। मन की आंखें खोल बंदे, वही प्रेम मिलेगा॥
ReplyDeleteबहुत सुन्दर क्षणिकाएँ ... सब ही एक से बढ़ कर एक
ReplyDeleteवह .....
ReplyDeleteबहुत ऊंचे पर्वत पे
मौन साधे बैठा था ...
मुझे वहां पहुँचने में बहुत देर हो गई
जब मैं वहां पहुंची बहुत भीड़ थी
लोग हाथों में फूल लिए
उसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था .....!!
सबने दिल को मोह लिया ....उसका पत्थर हो जाना और लोगों का हाथों में फूल उठाना ....क्या विरोधाभास है ..!
shandaar shanikaye ...
ReplyDeletewaqt mile to yahan bhi aaiyega
" अकल के मोटे ..दिमाग के लोटे : पप्पू धमाल (व्यंग)
http://eksacchai.blogspot.com/2011/08/blog-post_18.html
आहऽऽ… !
ReplyDelete… … … … …
… … … … … …
… … … … … … …
… … … … … … … …
… … … … … … … … …
बहुत होमवर्क करना पड़ेगा कुछ कहने के लिए :)
तब तक करते हैं अगली बार का इंतज़ार …
'अगली बार'
बहुत ऐंद्रजालिक शब्द है …
बहुत सारे 'अगली बार' कभी नहीं आते
और बावजूद इसके
उन्हें वादाफ़रामोश कह कर संबोधित करने को भी मन नहीं करता …
वैसे इन क्षणिकाओं ने बहुत प्रेरणा दी है , कुछ क्षणिकाएं शीघ्र भेजूंगा … … …
ReplyDeleteपिछले कई घंटे से एक महत्वपूर्ण scientific paper तैयार कर रहा था. जब तैयार हो गया तो गलती से डिलीट हो गया.कागज़ में प्रारूप भी नहीं ..सब कुछ मस्तिष्क में था और वहीं से सीधे उतर कर स्क्रीन परआ रहा था ..उफ़ ! कितनी वेदना होती है ...जैसे कोई अपना ख़ास अचानक गुज़र गया हो.....रात का एक बज चुका है ..घड़ी की सुई और आगे जा रही है और मैं अन्यमनस्क हो निरुद्देश्य मंडराता हुआ आपकी दहलीज पर आया तो गहन वेदना के बाद भी आपकी क्षणिकाओं ने होठों पर एक स्मित रेखा खींच दी है.
ReplyDeleteआज फिर गलती से मैंने बहुत कुछ खो दिया है...............बदले में अचानक कुछ पा भी लिया है. आज अगर आपने क्षणिकाएं पोस्ट न की होतीं तो मेरी वेदना का अंत न होता. aapkaa shukriyaa kaise adaa karoon ?
बेहतरीन क्षणिकाएं....बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसभी क्षणिकाएं एक से बढ़ कर एक पर हमें तो पहली वाली भा गयी , मुबारक हो
ReplyDeletebahut hi sundar panktia...
ReplyDeleteसोंचने को मजबूर करती इन खूबसूरत क्षणिकाओं के लिए आपका आभार !
ReplyDeleteबहुत ढूंढा ....
ReplyDeleteकई बंद दरवाजे खटखटाए
झाड़ियों के पीछे ...
बाज़ारों में , दुकानों में ...
मेले में ....
उस मोंल में भी
जो अभी-अभी .....
चिड़िया घर के सामने खुला है
पर तुम कहीं नहीं मिले ...
तुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....?
hamesha ki tarah sundar rachnaen khas taur par is chhanika men to ap ne kamal kar diya
bahut khoob
लोग हाथों में फूल लिए
ReplyDeleteउसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था .....!!
एक से एक गहरे अर्थो वाली पंक्तिया .......मन फ्रेश हो गया
yekase yek sunder ........
ReplyDelete@तुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....
ReplyDeleteहाँ प्रेम नहीं बिकता.... न ही खरीदा जा सकता है..
इन पंक्तियों को क्षणिकाएं क्यों कहा गया.... जबकि ये गहरा असर छोडती हैं मन में.
लोग हाथों में फूल लिए
ReplyDeleteउसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था .....!!
ओह!!
सारी की सारी क्षणिकाएं कमाल की हैं.
वह .....
ReplyDeleteबहुत ऊंचे पर्वत पे
मौन साधे बैठा था ...
मुझे वहां पहुँचने में बहुत देर हो गई
जब मैं वहां पहुंची बहुत भीड़ थी
लोग हाथों में फूल लिए
उसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था
क्या बात है हरकीरत जी. लगा जैसे खुद मेरे हाथ से ही कुछ फिसल गया हो...बहुत सुन्दर.
तुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....?
ReplyDeleteसभी क्षणिकाएं एक से बढ़कर एक ...इस पंक्ति ने नि:शब्द कर दिया ...।
हैट्स ऑफ........सब एक से बढ़कर एक.......लफ्जों पर आपकी शानदार पकड़ के लिए दाद देता हूँ आपको|
ReplyDeleteprem bikta nahi, jo bik jaye wah prem nahi...
ReplyDeleteवह .....
ReplyDeleteबहुत ऊंचे पर्वत पे
मौन साधे बैठा था ...
मुझे वहां पहुँचने में बहुत देर हो गई
जब मैं वहां पहुंची बहुत भीड़ थी
लोग हाथों में फूल लिए
उसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था .....!!
बस, वाह ! और कुछ नहीं।
पर तुम कहीं नहीं मिले ...
ReplyDeleteतुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....?
शायद प्रेम यही गायेगा..
"बिक गया मगर मैं मोल बिना
आया जो मानव सरस ह्रदय..."
आद हीर जी,
सभी क्षणिकाएं अभिभूत करती हैं...
विशेष रूप से "झील"
और अंत के प्रश्न की सादगी... वाह...
सादर बधाई...
अर्थभरी क्षणिकायें, जीवन खुलकर जीने के लिये ही हो।
ReplyDeleteएक से बढकर एक ......
ReplyDeleteबेहतरीन क्षणिकाएं ..सभी एक से एक बढकर..
ReplyDeleteवो कभी-कभी ...
ReplyDeleteछिप-छिप कर मुस्कुराया करता
जब भी गुज़रती उसकी खिड़की के सामने से
गहरी नज़रों से तकता मुझे
इक दिन जा खड़ी हुई उसके सामने
पूछा- कौन हो तुम ....?
वह बोला - तुम्हारा प्रेम नहीं हूँ मैं
मैं थके क़दमों से
लौट आई ......!!
कितनी उम्मीद थी कि जाकर उसे अपना बना लुंगी पर गई तो सिर्फ निराशा कितना दर्द है इस जहान में कि जिसकी चाहत वही से खिलाफत |
बहुत सुन्दर हर बार कि तरह खूबसूरत रचना |
एक से बढ़ कर एक
ReplyDeleteअशोक सलूजा जी की मेल से प्राप्त टिप्पणी ......
ReplyDeleteमुबारक हो ....
एक से बड कर एक ....
जिस दिन प्रेम बिकने लगेगा ,उस का खरीदार ही नही मिलेगा ....?
मांगे से मौत नही मिलती, जो
आजकल चारो और बरसती है,
तुम प्रेम की बात करती हो
जिसे पाने को कायनात तरसती है || अशोक'अकेला'
इक इक नज़्म
ReplyDeleteसाहित्य की अनमोल धरोहर बन कर
मानो, हर पढने वाले वाले के दिल पर अंकित हुई जाती है
वाह
और वो शब्द
"और वाह ,,, पत्थर हो चूका था..."
तो इक दम दिल में कहीं गहरे उतर गए हैं
खुश रहिये
और उस बंद कोठरी को नहीं खोला आपने
जहां किसी डोरी से बंधी एक गुडिया लटक रही है
सभी क्षणिकाओं की प्रशंसा के लिए
उपयुक्त शब्द ढून्ढ पानेका मेरा प्रयास सफल नहीं हो पा रहा है मेरा
बस दरों दुआएं कुबूल कीजिये .
और हाँ !
ReplyDeleteआदरणीय स्वरण कार जी की
आह ss .... !
.... .... ....
..... ..... .....
.... ..... ......
पर भी गौर फरमाईयेगा
कहा न ,,, तारीफ के लिए
शब्द ज़रूरी नहीं होते !!!
हीर जी, आपकी रचनायें विचारों का मजबूत महल बनाती हैं !
ReplyDeleteसभी क्षणिकाएं एक से बढ़ कर एक !
इन खूबसूरत क्षणिकाओं के लिए आपका आभार !
सुन्दर भऊक कविता
ReplyDeleteअति सुन्दर क्षणिकाएँ.
ReplyDeleteस्वतंत्रता दिवस की ढेर सारी
शुभ कामनायें.
आनन्द विश्वास.
अहमदाबाद.
HARKIRAT JI BAHUT ACHHA LIKHA SADHUWAD,SOME THINGS FOR U,
ReplyDeleteइन्हें भी आजमायें ..........
मधुमक्खी के काटने पर तुरंत चीनी का गाढ़ा घोल लगायें .दर्द व सूजन नहीं होगी .
पापड़ सेकने के लिए गर्म प्रेस का प्रयोग करे ,साफ-सुथरे सिके पापड़ का आंनंद उठायें .
कपड़ों पर लगे जंग के निशान दूध से धोंयें साफ हो जायेंगे
कपड़ों पर लगी बालपन की स्याही के निशान नेलपॉलिश रिमूवर लगाने से दूर हो जायेंगे
पसीने के दाग लगे कपडे नौसादर मिले पानी से धोएं दाग उतर जायेंगे
कपड़ों पर लगे तेल के निशान शेम्पू से धोएं ठीक हो जायेंगे
कपड़ों पर लगी च्युंगम हटाने के लिए जैतून का तेल लगायें,आसानी से उतर जाएगी
प्रेम की तस्वीर आपकी हर क्षणिका मे...बहुत सुंदर
ReplyDeleteजिनको जीना है मुहब्बत के लिए,
ReplyDeleteअपनी हस्ती को मिटा लेते हैं...
अहल-ए-दिल यूं भी निभा लेते हैं,
दर्द सीने में छुपा लेते हैं...
जय हिंद...
कुछ अपनेपन में लिपटी टिप्पणियाँ ऐसी होती हैं
ReplyDeleteजो चेहरे पे मुस्कराहट के साथ आँखों में आँसू भी ला देती हैं
मुफ़लिस जी गुडिया तो आपके डर से लटकती ही नहीं .....
हाँ स्वर्णकार जी की 'आह ss ...' .को महसूस कर रही हूँ .....
:))
आसमान में चमकता धूमकेतु --ऊंचे पर्वत पर पत्थर का बुत बना मौनी --इनसे तो राधा बनकर ही प्रेम किया जा सकता है ।
ReplyDeleteतुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....? बड़ा मुश्किल सवाल किया है !
सोचती हूँ तुम्हें दिल की
किस कोठरी में रखूं .....? रब्बा --क्यों नहीं बनाया दिल के मकां में एक मेहमानखाना ।
हरकीरत जी , पांचों क्षणिकाएं दिल को छूती हुई हैं ।
बहुतों का दर्द-ए-दिल बयां कर दिया है ।
वैसे राजेन्द्र जी का --ऐंद्रजालिक शब्द--- का मतलब समझ नहीं आया ।
ReplyDeleteयह किस भाषा का शब्द है जी ।
और हाँ , तारीफ करना तो हम भूल ही गए ।
ReplyDeleteलेकिन क्या करें दानिश जी जैसे अल्फाज़ भी तो नहीं आते ।
फिर भी -- कैसे उतार देती हैं सफ्हे पर आप ये दिल की जुबान !
ओये होए .....
ReplyDeleteराजेन्द्र जी ,
अब यूँ भी न भरा करो आहें
के चर्चे आम हो जायें .....
अब ऐंद्रजालिक शब्द किस भाषा का है बता दें .....
:))
बहुत सुन्दर क्षणिकाएँ
ReplyDeleteप्रेम बिकता हैं. सिर्फ सौदा सच्चे दिल का हो.
ReplyDeleteजिसे मुद्राए खरीद ले वो वो प्रेम कहा.
मजा आ गया, प्यासे पथिक को जब कुछ बुँदे पानी की मिल जाये, वही आनंद मिला.
लिखते रहिएगा.
javab nahi..
ReplyDeleteवह .....
ReplyDeleteबहुत ऊंचे पर्वत पे
मौन साधे बैठा था ...
मुझे वहां पहुँचने में बहुत देर हो गई
जब मैं वहां पहुंची बहुत भीड़ थी
लोग हाथों में फूल लिए
उसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था .....!!
नदी किनारे धुआ उठत है, मै जानू कछु होय
जिसके कारण मै जली , वही ना जलता होय
क्षणिकाएं दिल को छूती है , मन को भिगो जाती है .
हमेशा की ही तरह एक से बढ़ कर एक लाजवाब
ReplyDeleteक्षणिकाएं ....
dil ki gahari pida ko bayaan karati rachana.sadhuwad
ReplyDeleteदिल का दर्द शब्दों में कैसे बयान होता है, अभी देख लिया..
ReplyDeleteसभी क्षणिकाएं बहुत सुन्दर हैं .आभार..
ReplyDeletesab ki-sab pasand aayeen......
ReplyDeleteawesome!
ReplyDeleteदर्दनाक हैं...! कोई क्या लिखे आहें भरने के सिवा!
ReplyDeletehar kshanika lajwab...
ReplyDeleteलोग हाथों में फूल लिए
ReplyDeleteउसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था .....!!
ohh....
जीवन के पन्नों को को खोलती सुंदर क्षणिकाएं।
ReplyDeleteबहुत ढूंढा ....
ReplyDeleteकई बंद दरवाजे खटखटाए
झाड़ियों के पीछे ...
बाज़ारों में , दुकानों में ...
मेले में ....
उस मोंल में भी
जो अभी-अभी .....
चिड़िया घर के सामने खुला है
पर तुम कहीं नहीं मिले ...
तुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम .....?
_______________________________
वाह जी, प्रेम अगर बिकने ही लगता तो क्या आपको उसे खोजने की जहमत उठानी पडती?
Aur wo patthar ho gaya...Badi hi sashakt aur bhawon ko jhinjhodti kshanikaye...bahut Bhawbhare hai dil me tere ...tu fir bhi kitna gham khati hai..
ReplyDeleteik chanchal shokh pahadi nadiya..jyun
maidano me tham jaati hai...
पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ ... क्षणिकाएं पढ़ी... बहुत सुंदर ...
ReplyDeleteवह .....
बहुत ऊंचे पर्वत पे
मौन साधे बैठा था ...
मुझे वहां पहुँचने में बहुत देर हो गई
जब मैं वहां पहुंची बहुत भीड़ थी
लोग हाथों में फूल लिए
उसे अर्पित कर रहे थे
और वह ....
पत्थर हो चुका था
और यह भी
तुम कहीं बिकते क्यों नहीं प्रेम
जो बिक गया वो प्यार कहाँ, व्यापार हुआ ...
आपने मुझसे कुछ क्षणिकाएं भेजने के लिए कहा है .... क्या में इस पत्रिका के बारे में कुछ और जान सकती हूँ ... इसे देखना चाहूंगी ...क्या ये संभव है ?
bahut sundar. aakhiri panktiyon mein to aapne gadar macha diya
ReplyDeleteसभी क्षणिकाएं सुन्दर है, पर पहली वाली सच में गजब की है ...
ReplyDeleteसुंदर क्षणिकाएं!
ReplyDeleteहीर जी आपकी कवितायें ....वाह...बेहतरीन..लाजवाब...
ReplyDeleteहर रोज आपकी कुछ रचनाएं पढ़ती हूँ....दिल को सुकून भी मिलता है और कुछ नया सीख भी जाती हूँ...
ReplyDeleteसदर नमन!
bahut sundar kshanikaayen.
ReplyDeleteलाजवाब...अहसासों का समंदर हैं ये तो क्या कहूँ क्या न कहूँ सोच में हूँ... आभार...
ReplyDeleteफिर से पढ़ना अच्छा लगा .
ReplyDeleteसोचा कि कुछ पंक्तियों को select कर के कुछ लिखूं
ReplyDeleteलेकिन आपने असमर्थ कर दिया हर जगह..किसी एक को चुनुं तो दूसरी के साथ नाइंसाफी होगी...
सारी ही क्षणिकाएं अपने आप में सुन्दर हैं
बधाई...!!
एक से बढ़ कर एक क्षणिकाएँ हैं।
ReplyDeleteसादर
umdaa......bas ye hi ek shabd
ReplyDeletebahut khub
इक कोठरी में लगे हैं जाले
ReplyDeleteइक कोठरी में खामोशी रहती है
इक कोठरी दर्द ने ले रखी है
इक कोठरी बरसों से बंद पड़ी है
कभी रहा करता था यहाँ प्रेम
सोचती हूँ तुम्हें दिल की
किस कोठरी में रखूं .....?
...सभी क्षणिकाएं एक से बढ़ कर एक..बहुत खूब !