Pages

Pages - Menu

Sunday, April 24, 2011

तवायफ़ की इक रात ....

तवायफ़ की इक रात ....


मैं फिर .....
अनुवाद हो गई थी
उसी तरह , जिस तरह
तुम उतार कर फेंक गए थे मुझे
अन्दर बहुत कुछ तिड़का था
ग़ुम गए थे सारे हर्फ़ ....


रात मुट्ठी में
राज़ लिए बैठी रही ...
जो तुम मेरी देह की
समीक्षा करते वक़्त
एक-एक कर खोलते रहे थे
हवा दर्द की आवाजें निगलती ...
जर्द, स्याह, सफ़ेद रंग आग चाटते
कई गुनाह मेरी आहों में
चुपचाप दफ़्न होते रहे ......


बस ये .....
बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
खिलखिला कर हँसता रहा
जो तुमने मुझे छूने से पहले
उतार कर रख दिया था
सिरहाने तले ......!!

143 comments:

  1. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    हरकीरत जी, आज भी हमेशा कि ही तरह निःशब्द कर दिया.दर्द भी गहरा है औए कटाक्ष भी. अंतिम पंक्तियों ने बहुत कुछ कह डाला
    आभार

    ReplyDelete
  2. बहुत ही गहरी चोट करती हुई एक सशक्त एवं भावपुर्ण रचना, बिल्कुल निरूत्तर करती हुई।

    ReplyDelete
  3. चलिए तवायफ को किसी बात ने खुशी तो दी। ...जनेऊ वाली रात ही सही!

    ReplyDelete
  4. आदरणीय हरकीरत जी
    नमस्कार !
    रात मुट्ठी में
    राज़ लिए बैठी रही ...
    जो तुम मेरी देह की
    समीक्षा करते वक़्त
    एक-एक कर खोलते रहे थे
    सच कहा...
    गहरा कटाक्ष
    बेहद खूबसूरत है नज्म ... ..
    गहन अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  5. अवसाद की इन्तेहा... दर्द में.
    कटाक्ष की इन्तेहा... जनेऊ में.

    वाकई निःशब्द करती रचना । आभार...

    ReplyDelete
  6. आप बहुत सुंदर लिखती हैं. भाव मन से उपजे मगर ये खूबसूरत बिम्ब सिर्फ आपके खजाने में ही हैं

    ReplyDelete
  7. हालत का बहुत खूब वर्णन किया है
    my new post
    मिलिए हमारी गली के गधे से

    ReplyDelete
  8. बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    कविता या नज़्म कह लेने में
    माना, कुछ एहसास भरे लम्हों का साथ
    दरकार होता है,,,,
    जो ,
    रचनाकार को
    स्वयं ही किन्हीं जानी-पहचानी
    शब्दों की धारा से जोड़ जाते हैं
    और वो नायाब शब्दावली
    ऐतिहासिक दस्तावेज़ का रूप लेकर
    उस रचना को श्रेष्ठतम श्रेणी में रख जाते हैं
    और वह रचनाकार
    सम्पूर्णता की ओर अग्रसर होने लगता है ....

    कोमल अहसास , बेहतर शैली ,
    और परिपक्व काव्य का उत्तम सुमेल
    बहुत ही सुन्दर कृति .


    शब्द 'मुबारकबाद'
    छोटा लग रहा है !!

    ReplyDelete
  9. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (25-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

    ReplyDelete
  10. बहुत ही गहरी चोट करती हुई एक सशक्त एवं भावपुर्ण रचना|आभार|

    ReplyDelete
  11. समाज का विद्रूप चेहरा उजागर कर दिया है आपने इस कविता में।

    ReplyDelete
  12. तुम मेरी देह की
    समीक्षा करते वक़्त
    एक-एक कर खोलते रहे थे
    हवा दर्द की आवाजें निगलती ...
    जर्द, स्याह, सफ़ेद रंग आग चाटते
    कई गुनाह मेरी आहों में
    चुपचाप दफ़्न होते रहे ......


    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    na kahker bhi hanste janeu ke madhyam se sabkuch spasht kah diya

    ReplyDelete
  13. aapki izaazat ke bagair aapki rachna vatvriksh ke liye le rahi hun... naraz nahin hongi n ?

    ReplyDelete
  14. रात मुट्ठी में
    राज़ लिए बैठी रही ...
    जो तुम मेरी देह की
    समीक्षा करते वक़्त
    एक-एक कर खोलते रहे थे


    समाज पर गहरा कटाक्ष किया है आपने कभी यह व्यक्तिगत लगता है तो कभी वृहत ....लेकिन शब्दों में दर्द भर दिया है आपने .....शुक्रिया

    ReplyDelete
  15. जनेऊ की हंसी जार-जार रुलाने वाली है...

    अगर तवायफ़े न होतीं तो न जाने इस समाज का क्या होता...महिलाओं के खिलाफ अपराध का ग्राफ न जाने कौन से आसमान पर होता...महिलाओं को भेड़ियों से बचाने की ज़िम्मेदारी पुलिस की होती है...लेकिन इन्हीं खाक़ी वर्दीधारियों की न जाने कितनी बेल्टें रात की आहट के साथ ही कोठों की खूटियों पर लटकी मिल जाती हैं...

    आज आपको पढ़ने के बाद आपको हंसाने की हिम्मत नहीं है मेरी...

    जय हिंद...

    ReplyDelete
  16. हमारे भाव सदा ही अनुवादित हो औरों तक पहुँचते हैं। बहुत सुन्दर कविता।

    ReplyDelete
  17. इतना गहरा दर्द ...रूह तक कांप गयी ....आभार !

    ReplyDelete
  18. इसे कहते है हमारे तथाकथित सभ्य समाज पर चोट वह भी जोरदार सच्चाई को सलाम .....

    ReplyDelete
  19. आप सागर हो हीर जी, अहसासों का समंदर .....
    कायल तो मैं आपका बहुत पहले से हूँ.
    और हूँ भी क्यों नहीं देखिये
    ..
    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    आप जब भी कुछ लिखते हो मैं उसे सलाम करने जरूर आता हूँ

    ReplyDelete
  20. hrikirat bahan aapke is andaaz me jo tvaaif ke aadab or akhlaaq byan kiye gaye hain saahityik drd hai qaabile taarif hai hmaara to dil hi jit liyaa bhaai bdhaai bdhaai bhdaai bdhaaai bdhaai bdhaai . akhtar khan akela kota rajsthan

    ReplyDelete
  21. मैं फिर .....
    अनुवाद हो गई थी
    उसी तरह , जिस तरह
    तुम उतार कर फेंक गए थे मुझे
    अन्दर बहुत कुछ तिड़का था
    ग़ुम गए थे सारे हर्फ़ ....

    उफ़ ! दर्द का गहरा अहसास कराती आपकी इस भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए मेरे हर्फ़ भी गुम हो गए लगतें हैं.

    विशालजी की कविता के माध्यम से वास्तव में तो
    'दर्द की दुकां' ही मिली यहाँ.

    आप मेरे ब्लॉग पर अभी तक भी नहीं आयीं हैं यह आपसे शिकायत है मुझे.कृपया,दिल न तोडियेगा.
    आपके प्रेरणादायक सुवचन मेरा मनोबल बढ़ाते हैं.

    ReplyDelete
  22. गजब की नज्म है हरकीरत जी,
    जनेउ बहुत कुछ कह जाता है।

    आभार

    ReplyDelete
  23. गजब की नज्म है हरकीरत जी,
    जनेउ बहुत कुछ कह जाता है।

    आभार

    ReplyDelete
  24. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!
    bahut khoob likha hain aapane

    sach main no words kya kahe...
    bas itna kahunga
    superb ,shandar....

    ReplyDelete
  25. रात मुट्ठी में
    राज़ लिए बैठी रही ...
    जो तुम मेरी देह की
    समीक्षा करते वक़्त
    एक-एक कर खोलते रहे थे

    यहाँ तक की पीड़ा किसी तवायफ की ही नहीं , इस सभ्य समाज में साँस लेती कितनी ही बदकिस्मत , असभ्य पुरुष जाति की ज्यादतियों की शिकार आम गृहणियों की भी हो सकती है । कभी कभी पत्नी होना भी एक अभिशाप सा हो जाता है ।

    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    इन पंक्तियों ने सभ्य समाज की पोल खोल कर रख दी ।
    फिल्म अमर प्रेम के उस गाने की पंक्तियाँ याद आ गई --
    हमने उनको भी छुप छुप कर , आते देखा इन गलियों में--- ।

    तारीफ़ के लिए दानिश जी की टिप्पणी उधार ले लेते हैं । :)

    ReplyDelete
  26. किसी तवायफ का उसकी ज़िंदगी में कितने लोग कितनी भाषाओं में अनुवाद करते हैं ........इसका लेखा-जोखा रखने की ज़िम्मेदारी समाज की है ....भले ही वह इसे निभाता नहीं कभी. मगर आपने यह जो "अनुवाद" वाला बिम्ब दिया है ...इसने तवायफ के दर्दों के असंख्य सागरों का खारा पानी सोख लिया है. ऐसे अनोखे बिम्ब कहाँ से लाती हैं आप ? निश्चित ही हिन्दी साहित्य में बिम्बों की महारानी हैं आप. आपको सात बार कोर्निश.
    सहगल साहब ने जनेऊ की हंसी पर जार-जार रोने की बात की है. सहगल साहब ! ब्राह्मणों के इस पतन पर रोने से क्या होगा ? डूब मरना चाहिए ऐसे ब्राह्मणों को एक चम्मच पानी में (इनके लिए एक चुल्लू पानी की इजाज़त नहीं है ). कभी पूरे विश्व को दिशा देने वाला ब्राह्मण आज अपनी पहचान खो चुका है. आप पूरे समाज पर दृष्टि डालें ...अपने आसपास के ही ब्राह्मणों को देखिये उनका कौन सा गुण उन्हें शेष लोगों से विशिष्ट बनाता है ? ब्राह्मणत्व प्रकट होना चाहिए उसके आचरण से .....कहाँ होता है ? एक आम आदमी की तरह जीवन व्यापार के हर हथकंडे में लिप्त ये ब्राह्मण सिर्फ कलियुग की ही पहचान हैं. कौन सा कुकर्म रह गया ऐसा जिससे ये दूर हैं अभी तक ?

    ReplyDelete
  27. खोखले मस्तिष्क का खोखला सत्य...
    एक गंभीर प्रहार...
    सादर...

    ReplyDelete
  28. हीर जी ! यूं ही नहीं कहता मैं आपको डिवाइन सॉन्ग 'डायमंड' . आपकी इस छोटी सी नज़्म ने ताबड़-तोड़ अनेकों वार कर दिए हैं समाज के विद्रूपों और ब्राह्मण के पाखण्ड पर .
    आपके तरकस के बाणों में से बड़ा तीक्ष्ण लगा मुझे यह बाण. सादर पैरी पैना.

    ReplyDelete
  29. देवेन्द्र पाण्डेय said...
    चलिए तवायफ को किसी बात ने खुशी तो दी। ...जनेऊ वाली रात ही सही!
    नहीं पाण्डेय जी ! तवायफ को खुशी कहाँ मिली ? सहगल साहब की टिप्पणी देखिये न ! सारे समाज के कचरे को समेटने वाली गणिका के हिस्से में तो दर्द के सिवाय और कुछ है ही नहीं. जनेऊ तो पंडितजी के पाखण्ड पर व्यंग्य से हंसा था.

    ReplyDelete
  30. सदियों से ये ब्याभिचार चला आ रहा है ! जिसने बनायी ,उसी ने चुरायी राते ! समाज पर करारी चोट !

    ReplyDelete
  31. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    nerve jerking creation.....i am shivering.

    ReplyDelete
  32. करारा व्यग्ंय। हालातों का सही चित्रण किया है आपने।

    ReplyDelete
  33. तवायफ का दर्द , हर्फ़ दर हर्फ़ , अनुवाद होना और समीक्षा से गुजरना हतप्रभ कर गए ..पता नहीं कहाँ कहाँ से गुजर गए,, हर हर्फ़ इस दिल में उतर गए .शुक्रिया .

    ReplyDelete
  34. एक वैश्या की सटीक प्रेक्षण -दृष्टि!
    जनेऊ पवित्रता का द्योतक और नारी तन घोर अपवित्र ..
    ब्राह्मण कर्मकांडी लगा ...
    कौशलेन्द्र खुद क्यों ब्राह्मण नहीं बन जाते अगर खुद को शूद्र समझते हैं तो ..
    जन्म से तो ब्राह्मण भी शूद्र ही होते हैं-संस्कार उन्हें ब्राह्मण बनाते हैं!
    कितना कलुष और तमस भरा हुआ है लोगों में ब्राह्मणों को लेकर
    और उनके बिना कौनो काम भी नहीं होता -सरकारें भी बिना उनके मदद की नहीं बन रही
    जातिगत बात करना एक क्षुद्र मानसिकता है!

    ReplyDelete
  35. आद. कौशलेन्द्र जी ,
    जब आपने बात उठा ही दी है तो बता दूँ इस नज़्म में १००% सच्चाई है ....
    और इस सच्चाई ने मुझे झकझोर कर रख दिया ...
    दिन के उजाले में जिन बातों पर तलवारें निकल आतीं हैं रात के अंधेरों में किस कदर .
    वही बातें खूंटी पर टांग दी जाती हैं .....
    कितना दोहरा और दोगला चित्र है मनुष्य का .....

    ReplyDelete
  36. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    Har bar aap nih:shabd kar detin hain. in panktiyo ne kitna kux kah diya ki me soch bhi nahi sakta.

    ReplyDelete
  37. कई गुनाह मेरी आहों में
    चुपचाप दफ़्न होते रहे ......


    हाय रे मजबूरी:(

    ReplyDelete
  38. Kaushlendra Shaheb@
    Apki comments ne rachna me char chand laga diye hain.

    Mujhe "Heer" ji ko padhkar hamesa hi garv hota hai ... aur dil se mai unhe har bar naman karta hun.

    Sukriya is blogg ka jisne In Mahan Hasti se hame milwaya.

    ek bar firse "NAMAN"

    ReplyDelete
  39. मनुष्य का दोगला चरित्र!
    ठीक कहा आपने।

    किसी एक मनुष्य की नीचता को लेकर संपूर्ण जाति का उपहास करना ही अब सद चरित्रता की श्रेणी में आता है।

    ReplyDelete
  40. कौशलेंद्र जी,
    पंडित जी के पाखंड पर व्यंग्य तो मैं भी समझता हूँ..मेरे कमेंट का अर्थ आप ही नहीं समझे।

    ReplyDelete
  41. एक तवायफ़ के मन के दर्द को ज़बान दे दी आप ने ,,,,
    मन मस्तिष्क को झिंझोड़ने वाली रचना !

    ReplyDelete
  42. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!
    आप की रचना हमेशा सोचने पर मजबूर कर देती हे,
    अछुत कोन हे?

    ReplyDelete
  43. बहुत ही मार्मिक दर्शन
    अक्षय-मन


    बहुत ही मार्मिक दर्शन
    अक्षय-मन



    रातों को करवट लेते हुए तुझे न पाता हूँ
    जानता हूँ अब तू मेरे पास नहीं है मगर
    तेरी यादों को समेटती

    इस चादर की सिलवटें

    अब भी मेरे साथ सोती हैं.....

    अक्षय-मन

    ReplyDelete
  44. बहुत-बहुत खतरनाक लिखती हैं आप।
    दर्द को कैसे आसानी से बयां कर दिया आपने।
    यू आर ग्रेट।

    ReplyDelete
  45. आदरणीय हरकीरत जी
    नमस्कार !

    बहुत ही गहरी चोट करती हुई एक सशक्त एवं भावपुर्ण रचना

    ReplyDelete
  46. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!"

    बेहद संजीदगी है एक तवायफ के कथन में --और सच भी !

    ReplyDelete
  47. bahut achi kavita hai....
    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    aur ye ant to hila kar rakh dene wala hai ...

    ReplyDelete
  48. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    नि:शब्‍द करती रचना ।

    ReplyDelete
  49. व्यस्तता के कारण देर से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ.

    आप मेरे ब्लॉग पे पधारे इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद् और आशा करता हु आप मुझे इसी तरह प्रोत्सन करते रहेगे
    दिनेश पारीक



    दूरियां होने से यादे धुंधली हो जाती लेकिन कुछ यादें ऐसी होती है जो जिंदगी भर आप के साथ रहती है | यादे खट्टी मीठी सी उन्ही यादो के झरोखों से आप सब के लिए एक कविता लायी हूँ | जो कि मेरी नहीं अश्वनी दादा कि है उनकी ही इजाजत से आप सब के सामने रख रही हूँ |
    काश कभी ऐसा हो जाए ,
    दुनिया में बस हम और तुम हो ,
    सारा जग खो जाए ,

    ReplyDelete
  50. व्यस्तता के कारण देर से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ.

    आप मेरे ब्लॉग पे पधारे इस के लिए बहुत बहुत धन्यवाद् और आशा करता हु आप मुझे इसी तरह प्रोत्सन करते रहेगे
    दिनेश पारीक



    दूरियां होने से यादे धुंधली हो जाती लेकिन कुछ यादें ऐसी होती है जो जिंदगी भर आप के साथ रहती है | यादे खट्टी मीठी सी उन्ही यादो के झरोखों से आप सब के लिए एक कविता लायी हूँ | जो कि मेरी नहीं अश्वनी दादा कि है उनकी ही इजाजत से आप सब के सामने रख रही हूँ |
    काश कभी ऐसा हो जाए ,
    दुनिया में बस हम और तुम हो ,
    सारा जग खो जाए ,

    ReplyDelete
  51. दर्द , अनुभूति, विडम्बना व कटाक्ष का बेजोड़ मिश्रण !
    बधाई स्वीकार करें !

    ReplyDelete
  52. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    kuch aur kahne hi jarurat hi nahi rahi hia ...

    badhayi aapko

    मेरी नयी कविता " परायो के घर " पर आप का स्वागत है .
    http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/04/blog-post_24.html

    ReplyDelete
  53. हरकीरत जी, प्रणाम !
    अनुवाद हो जाना .....बहुत ही मौलिक और सुन्दर प्रतीक है....
    आपकी ये रचना स्वार्थ का मखौल तो उडाती ही है...वेदना को भी जाहिर कर जाती है...

    ReplyDelete
  54. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले .....

    इंसान के दोगले पन की फितरत बयां करती आपकी इस रचना के लिए प्रशंशा का हर शब्द छोटा पड़ रहा है...बधाई स्वीकारें

    नीरज

    ReplyDelete
  55. shbdon ko yun bharti hai aap..ki saalne lagte hai..ultimate!!

    ReplyDelete
  56. इनके दर्दो को कौन शब्द देता है... और आपके पास हर दर्द के लिए शब्द हैं, कभी कभी सोचने लगता हूँ कि इन दर्दो के लिए शब्द और बिम्ब कैसे बुन लेती है आप।

    मैं फिर
    अनुवाद हो गई....

    अंदर बहुत कुछ तिड़का था
    .....

    बस ये
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    .....


    सच में मेरे पास तो शब्दों की कमी पड जाती है कमेंट करने के लिए दर्द भरी रचना को पढ़ कर।

    ReplyDelete
  57. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    एक तवायफ़ का दर्द एक एक शब्द में गहराई से उतर गया है.समाज के दोगलेपन पर आपकी अंतिम पंक्तियों ने सब कुछ कह डाला..हमेशा की तरह एक उत्कृष्ट प्रस्तुति...

    ReplyDelete
  58. कई गुनाह मेरी आहों में
    चुपचाप दफ़्न होते रहे ......

    off......

    ReplyDelete
  59. कई गुनाह मेरी आहों में
    चुपचाप दफ़्न होते रहे ......

    off......

    ReplyDelete
  60. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......

    आपके शब्दों में जादू है जो भीतर तक खंगाल के ले आता है.....

    ReplyDelete
  61. oof dard aur peeda me sanee ye rachana ek mukhouta utartee....dil ko choo gayee.

    aabhar aise lekhan ke liye...

    ReplyDelete
  62. oof dard aur peeda me sanee ye rachana ek mukhouta utartee....dil ko choo gayee.

    aabhar aise lekhan ke liye...

    ReplyDelete
  63. कौशलेंद्र जी...
    कहा किसी ने जवाब किसी को ! आपको सभी ब्राह्मण एक से क्यों लगते हैं ? कहीं आप ब्राह्मण को लेकर किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त तो नहीं!

    ReplyDelete
  64. जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    कितना गहरा कटाक्ष है....भाव बहुत ही गहनता से संप्रेषित हुए हैं

    ReplyDelete
  65. हरकीरत जी..... काफी महीनों के बाद ब्लॉग पर आना हुआ है.... कुछ बिज़िनेस थीं.... आते ही आपकी कविता पढ़ी ...आपने वाकई में निःशब्द कर दिया है... हर लाइन में कितनी गहराई है... बहुत शानदार रचना....


    I do hope you will be fine....


    Regards........

    ReplyDelete
  66. विप्र देवेन्द्र जी ! एवं अरविन्द मिश्र जी ! कुपित मत होइए, ऐसी स्थितियाँ क्यों निर्मित हुईं इस पर चिंतन -मनन की आवश्यकता है . हमारे कृत्य ही हमारे वर्ग, समुदाय, जाति, धर्म आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं . क्या आज आप भीड़ में से किसी ब्राह्मण को पहचान सकते हैं ? यह केवल ब्राह्मण की ही बात नहीं है …..आज तो सभी जातियों का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया है . किन्तु यहाँ बात उसकी हो रही है जिस पर समाज को दिशा देने का उत्तरदायित्व था. यदि ब्राह्मण आत्मावलोकन नहीं करेंगे तो उनमें अपना पूर्व गौरव वापस अर्जित करने की क्षमता भी उत्पन्न नहीं हो सकेगी . जहां तक शूद्र के ब्राह्मण बन जाने की बात है …वह भी होगा ….हो ही रहा है ….आज अब्राह्मण भी न केवल यज्ञ और उपनयन संस्कार करवा रहे हैं ….अपितु स्वयं भी यज्ञोपवीत धारण कर रहे हैं …..और यही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि ब्राह्मण अपने कर्तव्य से विमुख हो चुका है ……."मैं ब्राह्मण हूँ" यह कहने भर से अब काम नहीं चलने वाला .
    मुझे आप छोडिये …मेरा तो प्रयास यह है कि मैं केवल एक मनुष्य भर बना रह सकूं . आपके उत्तरप्रदेश में ही मै कई ऐसे २४ विस्वा वाले ब्राह्मणों को जानता हूँ जिनके घर का पानी आप भी पीना पसंद नहीं करेंगे .
    आपको यह मेरी क्षुद्र मानसिकता लग रही है इसलिए चलिए, पूरी जाति की बात छोड़ केवल आपकी बात करते हैं,
    १. क्या आपका उपनयन विद्यारम्भ के पूर्व हुआ था ? २- क्या आप नित्य संध्या-गायत्री का जप /मनन करते हैं ? ३ क्या आपने ब्रह्म की साधना की है ? ४- आपने कितनों को अभी तक विद्या -दान दिया है ? 5- क्या आपने आवश्यकता से अधिक संपत्ति देश के कल्याण में दान दी है ? 6-क्या कभी उत्कोच व अनीति का सक्रिय विरोध किया है ? ७- क्या क्रोध, मोह, लोभ, ऐषणा .....आदि-आदि से आप मुक्त हैं ? ......अभी इतने प्रश्नों का ही अपने आप को उत्तर दे दीजिए
    यदि अपने उत्तरों से आप संतुष्ट हैं तो मुझसे उम्र में छोटे होते हुए भी मैं आपको सादर चरण स्पर्श करता हूँ और यदि नहीं तो मेरा पाय-लागन वापस कर देना .

    ReplyDelete
  67. हरकीरत जी नमस्कार -बहुत ही प्यारी रचना दर्द को ह्रदय में समेटे तवायफ को माध्यम बना एक अच्छा व्यंग्य जो एक चोला ओढ़े सब करते रहते हैं -काश उनका भी दर्द कोई समझे -
    मुबारका .....


    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले

    शुक्ल भ्रमर ५ ......!!

    ReplyDelete
  68. जनेऊ..उफ बहुत ही गहरा कटाक्ष
    पर सच कहा हॆ आपने

    ReplyDelete
  69. उफ्फ!! क्या कहूँ.....

    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    ReplyDelete
  70. आदरणीया हीरजी,
    बहुत ही अलग अंदाज़ की नज़्म लिखी है आपने.
    तवायफ के जिस्म की,अनुवाद हुई नज़्म के साथ तुलना बहुत ही खूब रही.
    फिर उसी नज़्म की समीक्षा.
    वाह!
    और अंत में तो सभ्य समाज को आईना दिखा दिया आपने.

    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    बहुत खूब.
    बहुत ही खूब.
    अल्लाह करे ज़ोरे कलम और ज़्यादा हो.

    ReplyDelete
  71. बहुत सुन्दर कविता लिखी आपने ...बधाई.
    ________________________
    'पाखी की दुनिया' में 'पाखी बनी क्लास-मानीटर' !!

    ReplyDelete
  72. उफ़ गहरा दर्द ..... ना जाने ये दर्द वो कितोने रातो से रोज जीती है

    बहुत ही प्रभावशाली रचना

    ReplyDelete
  73. uff sach me kya tana mara aape..."bistar pe pada janau"
    .
    .
    .
    samaj ke bure logo pe bahut sahi sabdo ka vaan chalaya aapne..

    superlike!

    ReplyDelete
  74. हीर जी,

    आपकी सोच और आपके विचार आपके चरित्र के परिचायक हैं.......ठीक यही बात आप पर भी लागू होती है..........मैं आज अपने खुदा को हाज़िर जानकर कहता हूँ इस ब्लॉगजगत में कुछ चुनिन्दा लोगों की मैं बहुत इज्ज़त करता हूँ और आप उनमे से एक हैं| पर आपकी बातों से मुझे बहुत दिली तकलीफ हुई थी.......आपको शायद इसका अंदाज़ा नहीं हो सकता........मैं ये बात यकीनी तौर पर जनता हूँ की आपकी मंशा पोस्ट में किसी खास पर चोट करने की नहीं थी........और न मुझे उससे शिकायत है .......

    मुझे तकलीफ इस बात से हुई की आपने ऐसे लोगों और उनकी टिप्पणीयों को समर्थन दिया जिनका सारा जोर हमेशा ऐसी ही चीज़ पर रहता है ......आपने अपनी गलती को माना लेकिन उसे कबूल नहीं किया .......आपने बहस की आग को जलने दिया......और बाकायदा आपने मुझे जो जवाब दिया की जब इधर वालों ने कहा .......अब आप खुद सोचिये मेरे जैसे लोग इसका क्या मतलब सोचेंगे.......उन्हें तो यही लगेगा न की जब आपने एक खास कौम के लिए खास धारणा बना ली है........हीर जी जब आपको किसी की बातों का बुरा लग सकता है तो ऐसे ही आपकी कोई बात भी किसी के दिल को लग सकती है.......कितने लोगों ने कहाँ-कहाँ से उदहारण लाकर दिए.......उफ्फ्फ हद थी....

    खैर मुझे लगा.....अगर आपको ज़रा सा भी अहसास हुआ था तो आपको इसे मानना चाहिए था........फिर भी मेरी किसी बात से आपको तकलीफ हुई हो तो मैं फिर आपसे माफ़ी मांगता हूँ.......जो मेरे दिल में था वो मैंने कह दिया.......सच तो ये है मेरी नज़र में आपकी बहुत इज्ज़त थी और है .......पर ये धागे बहुत नाज़ुक होते है........अहसास सबके होते है उन्हें ठेस लगाने से पहले भी हमें सोचना चाहिए........हाँ यहाँ मैं गलत हूँ किसी के ब्लॉग पर मुझे ऐसा नहीं लिखना चाहिये था.......उसके लिए मैं दिल से माफ़ी चाहता हूँ|a

    ReplyDelete
  75. चूँकि मुझे आपकी ईमेल नहीं पता इसलिए इसे यहाँ पोस्ट कर दिया है आप चाहें तो हटा सकती हैं |

    ReplyDelete
  76. कौशलेन्द्र जी ,
    आपकी शिकायत और पीड़ा जायज है !

    ReplyDelete
  77. ओह! धन्य है अपना भारतीय समाज जो इस विकसित और शिक्षित युग में भी मध्यकालीन घटिया मानसिकता और टुच्ची जातिगत राजनीति से ऊपर नहीं उठ पा रहा है और वह भी रचना धर्मी वर्ग !! आश्चर्य यह है कि हरकीरत हीर जी की इतनी संवेदनात्मक, भावप्रवण और झकझोर देने वाली रचना की सुन्दरता भी अनेक सज्जनों को नजर नहीं आ रही है। एक नारी की भावनाओं , संवेदनाओं और मार्मिक अभिव्यक्तियों को दरकिनार करके पहलवानों ने जातीय नूराकुश्ती शुरू कर दी है। कई बार लगता है कि हमें साहित्यकार या रचनाकार होने का दंभ छोड़ देना चाहिए। अगर आपको कविता में नारी मन के भाव नहीं समझ आते तो उसके तन की समीक्षा पर भी अटक जाते तो भी बेहतर होता , ये जनेऊ इतना आकर्षक लगने लगा कि सारी ऊर्जा उसी पर झोंक दी ?

    खैर , हरकीरत जी, इस अद्भुत भावाभिव्यक्ति से भरी कविता के लिए बधाइयाँ!

    ReplyDelete
  78. पढ़ती हूँ और बिना कुछ लिखे लौट जाती हूँ ...आज भी आपने मूक कर दिया लेकिन बताना ज़रूरी है कि कई बार यूँ मूक..निशब्द..स्तब्ध रह जाती हूँ आपको पढ़कर....

    ReplyDelete
  79. हरकीरत जी,

    शायद शब्द! नही होते तो दर्द व्यक्त नही किया जा सकता था और प्रतीक/बिम्ब नही होते तो क्या होता?

    जनेऊ......

    यदि खिलखिलाकर नही भी हँसता तो भी एक सशक्त प्रतीक होता वो सब व्यकत करने का जो इंगित हो रहा है/किया जा रहा है.....

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

    ReplyDelete
  80. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    सारे दर्द को समेट कितना बड़ा सत्य कह दिया है ...भरपूर कटाक्ष ... बेहतरीन रचना

    ReplyDelete
  81. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    यही सच है, सच है, सच है ।

    ReplyDelete
  82. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    दिल को झकझोर गई ये पंक्तियाँ!

    ReplyDelete
  83. 'बस ये ......

    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ

    खिलखिलाकर हँसता रहा

    जो तुमने मुझे छूने से पहले

    उतारकर रख दिया था

    सिरहाने तले....

    ------------------------

    पुरुष के दोगले चरित्र का इससे अच्छा शब्दांकन क्या हो सकता है ?.

    ReplyDelete
  84. hamesha ki tarha najm sunder........

    ReplyDelete
  85. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    मारक....उफ़ !!!!

    निःशब्द कर दिया आपने...

    ReplyDelete
  86. बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था।

    बहुत ही सुंदर..

    ReplyDelete
  87. अपने मकसद को दर्शाने में कामयाब रचना |
    बहुत जबरदस्त कटाक्ष करती सुन्दर रचना |

    ReplyDelete
  88. हरिशंकर जी !
    @ ओह! धन्य है अपना भारतीय समाज जो इस विकसित और शिक्षित युग में भी मध्यकालीन घटिया मानसिकता और टुच्ची जातिगत राजनीति से ऊपर नहीं उठ पा रहा है और वह भी रचना धर्मी वर्ग !!
    मुझे राजनीति ही नहीं आती ...तो टुच्ची राजनीति कैसे करूंगा ? और फिर एक सार्थक विमर्श में यदि आपको राजनीति नज़र आ रही है तो यह हमारी अभिव्यक्ति की दुर्बलता हो सकती है. पुनश्च, जाति को आप कितना भी क्यों न कोस लें पर समाज की जो वास्तविकता है उसे स्वीकार करना ही होगा अन्यथा तमस दूर करने के उपाय ही नहीं किये जा सकेंगे.
    @ ये जनेऊ इतना आकर्षक लगने लगा कि सारी ऊर्जा उसी पर झोंक दी ?
    हीर जी की पीड़ा सिर्फ चोरी की ही नहीं बल्कि यह भी है कि चोर स्वयं थानेदार है ...उन्होंने जनेऊ वालों को आत्म मंथन का जो अवसर उपलब्ध करवाया है उसकी अनदेखी का अर्थ है कि हम रचनाकार के उद्देश्य को ठेंगा दिखा रहे हैं.फिर कोई रचनाकार कुछ भी क्यों लिखे ? क्या कोई रचना मात्र बुद्धिविलास के लिए ही होती है ? हमें उस पर आत्म मंथन और आवश्यकतानुसार अपनी दुर्बलताओं में सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं करनी चाहिए ? आप शिक्षा जगत से जुड़े हुए हैं ...आप ही मार्ग दर्शन करें कि इस रचना में जनेऊ का बिम्ब देने की आवश्यकता आखिर रचनाकार को पडी ही क्यों ? और यदि यह आवश्यकता हुयी है तो उस पर चिंतन-मनन करना क्या टुच्ची राजनीति के अंतर्गत आ जाता है ? आपके दृष्टिकोण से केवल नारी देह के शोषण पर एक श्रेष्ठ रचना कहकर तारीफ़ करके हमें उसके सन्देश को भूल जाना चाहिए ? मेरा स्पष्ट मत है कि आपने एक सार्थक विमर्श को अपने अमर्यादित शब्दों से हतोत्साहित करने का कार्य करके रचनाधर्मिता के मूल उद्देश्यों पर ही कुठाराघात करने का प्रयास किया है. रचनाकार ने इस विमर्श का कहीं विरोध नहीं किया है ...इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हें इसी विमर्श की आशा थी ....बल्कि यह विमर्श, जिसे आप टुच्ची राजनीति कह रहे हैं...यदि न होता तो उन्हें अपने लेखन की असार्थाकता पर दुःख होता .
    नूरा कुश्ती का एक अर्थ मैच फिक्सिंग भी है ....इस विमर्श में हमारी कोई मैच फिक्सिंग किसी से भी नहीं थी...न तो मैं पाण्डेय जी को जानता हूँ और न मिश्र जी को. बाद में श्री मिश्र जी ने भी मेरी पीड़ा को उचित ही बताया. इस विमर्श के बाद ही पाण्डेय जी का प्रथम आगमन मेरे ब्लॉग पर हुआ है यह आ देख सकते हैं. यूं इस सब स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं थी ...किन्तु एक शिक्षक के द्वारा इस प्रकार के अमर्यादित शब्दों के प्रयोग के कारण मुझे यह करना आवश्यक लगा. एक शिक्षक से किसी संयत टिप्पणी की आशा की जाती है.

    ReplyDelete
  89. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    ..oof! जनेऊ वाली रात!!!

    ReplyDelete
  90. bahut hi sunder nazm hein
    kabile tarif
    pichli baar aaya to comment nahi kar paya mafi chata hoon

    ReplyDelete
  91. रात मुट्ठी में
    राज़ लिए बैठी रही ...
    जो तुम मेरी देह की
    समीक्षा करते वक़्त
    एक-एक कर खोलते रहे थे
    jo 'pavitr-prem' se 'peer' ban gai hai
    bejuban ki jubaan meri 'Heer' ban gai hai
    jo baanch de yajmaano ke kachche chitthe vo 'KEER' bangai hai..

    dard bayan karne ka aapka andaaj kuchh-juda sa hai
    kal tak jo bade thoss najar aate the 'bud-buda' sa hai....

    ReplyDelete
  92. 'Heer' ji aap ek bahut achchhi lekhika hain...kripaya imraan ansaari ki baaton par jarur dhyan dijie...hamaara kaam dilon me nafart paida karna nahi pyaar paida karna hona chahiye...Tvayafo ko tavaayaf aap aur ham hi banaate hain..ye samaaj hi banaata hai..aap ko bataaun kai buddijivi aadarniy Sardaar Khushvan singh ji jaise bhi hote hain, Amrita preetam ji kyun jeevan bhar dansh jhelti rahin?

    ReplyDelete
  93. आपने सटीक कहा है-मेरे पास कोई विशेषण नही है जिससे मै फिलहाल आपके भावों को अलंकृत कर सकूं।प्रेम सरोवर में डुबकी लगाने की कोशिश कीजिए। बहुत दिन बाद आपके पोस्ट पर आया हूं।
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
  94. बेमिसाल कविता हरकीरत जी बहुत बहुत बधाई |आपकी रचनाएँ मन को वाकई अभिभूत कर देती हैं |प्रणाम आप एक बायो -डाटा एक हस्तलिपि यानि हाथ से लिखी नज्म एक फोटो हमे e-mail kr dijiye सुनहरी कलम पर आपको प्रकाशित कर हमें गर्व होगा 09415898913

    ReplyDelete
  95. kya dard bhara hai.....
    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    ReplyDelete
  96. क्‍या कहूं, कैसे कहूं

    बेहतर होगा चुप ही रहूं

    तुम ही बताओ लहू लहान मानवीय रिश्‍तों पर
    कैसे
    वाह वाह कहूं

    ReplyDelete
  97. इमरान अंसारी said...

    @ पर ये धागे बहुत नाज़ुक होते है.......

    इमरान जी,
    मानती हूँ ....
    शायद अब ये जोड़ने से भी न जुडें ......

    ReplyDelete
  98. हीर जी ! और अंसारी जी !! "शायद" में 'न' और 'हाँ' दोनों की संभावनाएं ५०-५०% होती हैं ...बेशक ! हमें अपने विरोधियों को भी अपना हमराही बनाने की दिशा में प्रयासरत रहना चाहिए ...तोड़ते तो सब हैं.....बड़ा आसान है तोड़ देना .....जोड़ना मुश्किल है ...जोड़ कर दिखाओ तो कोई बात है. हर भारतीय को कुछ भी बोलने से पहले भारत के प्राचीन गौरव और इतिहास की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए. जहाँ तक धार्मिक विवाद या मत भिन्नताओं की बात है ...तो हमें फौजिया जैसे लोगों की सोच पर नाज़ है.

    ReplyDelete
  99. मार्मिक ...संवेदनशील ....मन को छू लेने वाली रचना ...!!
    ऐसे भी लोग जीते हैं ये सोच कर
    बहुत उदास कर गयी ........................................!!!!!!!!!!!
    हरकीरत जी आपको बधाई इस अभिव्यक्ति के लिए .

    ReplyDelete
  100. ईमान अगर है तो बस जन्नत नहीं है दूर.
    चमकेगा हर ज़र्रे में उस फिरदौस का ही नूर.

    ReplyDelete
  101. दर्द की मुस्कराहटें और ख़ामोशी चीरते सवाल

    ये दोनों पोस्ट आपकी ऐसी लगी जैसे किसी खूबसूरत चेहरे की दो आँखें ...
    कितनी सच्चाई है इन आँखों में खोटे सिक्के भी खरे हो जाएँ
    एक नज़र....................

    क्या लिखूँ ....?
    शब्द भी मुँह मोड़ने लगे हैं
    कुछ दिनों में ये अंगुलियाँ भी
    कलम का साथ छोड़ देंगी ....
    नामुराद दर्द ......
    अब हड्डियों में उतर आया है .....!!

    ReplyDelete
  102. हीर जी, हमेशा की तरह यह बहुत ही खूबसूरत रचना है आपकी...

    बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    ReplyDelete
  103. क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ. आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें

    ReplyDelete
  104. काश शरीफ लोग धागों के बुने और धागों के बने लिबास की बजाय जमीर और जहानत के कसीदों से भरे पेरहन पहन सकते

    आपकी बुनावट में हर बार नए पेंच और घेरे होते हैं..बुनती रहें के हम ओढ़ सकें

    ReplyDelete
  105. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    gan bhaaw..

    seedha dil ku chhuti, bhigoti rachnaaaa........

    ReplyDelete
  106. नि:शब्‍द करती सशक्त एवं भावपूर्ण रचना.........

    ReplyDelete
  107. हरकिरत जी, आपकी रचना बहुत दिन बाद पढ़ रहा हूँ..आज भी खजाने के मिल जाने जैसा महसूस हो रहा है..बेहतरीन अभिव्यक्ति लिए हुए यह प्रस्तुति बधाई के योग्य है....

    ReplyDelete
  108. कहाँ हैं आप ...?? शुभकामनायें आपको !

    ReplyDelete
  109. Aadmi ke doglepan ka pradafas karti sashakht rachna ke liye aabhar

    ReplyDelete
  110. जनेऊ इससे करारा व्यंग्य और बोले तो तमाचा हो नहीं सकता

    ReplyDelete
  111. बिस्तर पर पड़ा जनेऊ , oh mere rabba ini kraari chot ...is nu pad ke ik sachi ghatna yaad aa gyee , par kise da naam lai ke kut nahi khani chahunda ........... kamaal kamaal kamaal ........haarkirat da duja naam ....kmaal

    ReplyDelete
  112. बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    सब कुछ कह दिया इस बंद में हमारे लिए बस सर झका लेने का कम शेष रह गया

    ReplyDelete
  113. आदरणीया हरकीरत हीर जी

    सादर अभिवादन !

    बहुत दिनों से नेट से दूरी बनी है , अभी भी आपकी रचना बहुत गंभीरता से न पढ़ कर , पढ़ भर पाया हूं … बस !

    …और इतनी टिप्पणियां ! अभी तो इन पर नज़र डालना भी संभव नहीं … आऊंगा फिर ।

    और रचना पर क्या कहूं …
    संवेदनशीलता की पराकाष्ठा !
    अद्भुत बिंब विधान !
    मुखौटाधारी तिलमिला उट्ठे ऐसा कथ्य !

    बस इतना ही समझ पाया हूं अभी तो … … …

    शुभकामनाओं सहित
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

    ReplyDelete
  114. बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ प्रभावशाली रूप से स्पष्ट किया है आपने । एक घिनौना सच ।

    ReplyDelete
  115. you are one of the most prolific feminine writer I have read.....
    its hard to appreciate the poetry knowing how much it reflects the reality and a reflection on how hedonistic our race is becoming......
    clawing deep into the recess of one's promiscuous self....
    ek din wo bistar par pada janeu
    bhi hamara tiraskaar karke chala jayega
    to apne khokhle pan mein
    ham bajte rahenge ghungru ki tarah...
    ....................

    ReplyDelete
  116. कुछ रचनाएं ऐसी होती है कि जिसे कितनी बार भी पढ़िए लगता है कि पहली बार पढ रहा हूं। ये भी उनमें से एक है।

    ReplyDelete
  117. जनेऊ के बिना सब अधूरा है न ... सस्ती लोकप्रियता पाने का नायब तरीका ... बस जनेऊ पकड लो ...

    ReplyDelete
  118. हरकीरत जी,
    सशक्त और बेबाक नज्म से आपने मनुष्यों के दोहरे चरित्र को उजागर किया है !
    इसके लिए किसी जाति-विशेष के पुरुषों को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता !
    यह एक व्यवस्था की देन है जिसमें शोषण द्वारा अतिरिक्त क्रय-शक्ति को उपार्जित किया जाता है !

    ReplyDelete
  119. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!kya kahun tarif ke liye shabd hi nahi hain mera paas.pahali baar aapke blog main aai hoon aapki rachanaa padhker aapki moorid ban gai hoon itanaa dard kahan se aaya.padhker man bheeg gayaa.badhaai aapko adhbhut rachanaa ke liye.

    plese visit my blog and leave the comments also.aabhaar

    ReplyDelete
  120. "रात मुट्ठी में राज़ लिए बैठी रही" वाह हरकीरत जी

    इतना उम्दा लिखा है आपने की शब्द भी अपनी चमक खो गए आपकी रचना क आगे......

    ReplyDelete
  121. बहुत बहुत शुक्रिया आपका,आपके आना मेरे लिए उत्साहवर्धक है.
    धन्यवाद्....

    ReplyDelete
  122. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    बहुत कुछ कह डाला.सुन्दर कृति .

    ReplyDelete
  123. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!
    बेहद संजीदा और भावुक नज़्म इसमें दर्द की इन्तहा अपनी पराकाष्ठा पर है
    नि:शब्द कर देने वाली रचना जिसे सिर्फ दिल से पढ़ा जा सकता है
    आप इस तखलीक को साकार करने के लिए बधाई की हक़दार हैं
    आह

    ReplyDelete
  124. बस ये .....
    बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
    खिलखिला कर हँसता रहा
    जो तुमने मुझे छूने से पहले
    उतार कर रख दिया था
    सिरहाने तले ......!!

    - पाक - साफ़ बने रहने का नायाब नुस्खा |

    ReplyDelete
  125. हरकीरत जी, जिंदगी के केनवास पर बिखरे पंखिल भावनाओं के रंगों को महसूस किया. आपकी कविताओं में ये जीवंत होकर हँसते .. रोते गाते ... खिलखिलाते और अपने अजीज बनकर गले से लगा लेते है. शुभकामनायें मेरा ब्लॉग kishordiwase.blogspot.com देखकर अपने शब्दों के गुलदस्ते भेजिएगा. अपना ख्याल रखें

    ReplyDelete
  126. रात मुट्ठी में
    राज़ लिए बैठी रही ...
    जो तुम मेरी देह की
    समीक्षा करते वक़्त
    एक-एक कर खोलते रहे थे

    गहन भावमय करते शब्‍द ।

    ReplyDelete
  127. हरकीरतजी , निःशब्द हूँ !! कम शब्दों में आपने जो बात कहीं हैं उसका जवाब नहीं.

    ReplyDelete
  128. I wanted to thank you for this great read!! I definitely enjoyed every little bit of it.

    web hosting india

    ReplyDelete
  129. तवायफ़ का दर्द रिश्ता हुआ शब्दों में .....

    ReplyDelete
  130. Heer ji etani gahari abhivykti kya khaun ....shabd hi nahi hain.

    ReplyDelete