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Monday, March 28, 2011

ख़ामोशी चीरते सवाल ......

अभी होली से पहले के ज़ख्म भरे नहीं थे कि नामुराद सी कोई शुबह: पैगाम लिए आई ...कि फेस बुक की किसी मोहतरमा ने आपकी होली वाली ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ अपने नाम से प्रकाशित की हैं ....हमने आपत्ति जताई तो 'मोहतरमा' कहती हैं कि ''क्या आप मेहमानों को बताते हैं कि आप किस होटल से खाना लेकर आये हैं ....'' अब इन्हें कौन बताये कि मोहतरमा आप खाना कीमत चुका कर लाती हैं कि चुरा कर ...खैर अरविन्द त्रिपाठी जी का भला हो जिन्होंने इसे साहित्य की चोरी मानते हुए उस पोस्ट को ही हटवा दिया ... मैं इस बात से भी हैरान थी कि पहले भी नज़्म चोरी करने वाली 'मोहतरमा' ही थी और अब भी ...
एक गुज़ारिश आप सब से भी .... कि इस तरह की चोरी को जहाँ भी देखें पुरजोर विरोध करें ....

और अब फिर रहट की टूटती रस्सी का अंतर्नाद है ...कै
दी नज्में आँखों की नमी से सवाल करती हैं ....मिट्टी अपने हाथ खोलती है ....मेरे सामने बस में एक स्त्री ... इतने गर्म मौसम में भी हाथों में काले दस्ताने ... पैरों में काले मोज़े ... ज़िस्म को ऊपर से नीचे तक काले बुर्के से ढके बैठी ॥मुझे फिर वही सवाल पूछने पर मजबूर करती है .....



बस में सफ़र के दौरान मोबाईल से खींची तस्वीर


ख़ामोशी चीरते सवाल ......


त्थरों के फफोले
विडम्बनाओं की ज़मीं
उठाकर चल पड़े हैं .....
बिलकुल वैसे ही जैसे
तुम बाँध देते हो हवाओं को
और एक जलती लकीर खीँच देते हो
उसके ज़िस्म पर ....

नामुराद......
सिल पर पड़ी
ये तिजारत की धूप भी ......
अपनी देह से साँस लेने की
अनुमति मांगती है .....

एक ज़िन्दगीहीन
कारखाने की ख्राशज़दा साँसें
जिसकी चिमनी में ज़ख्मों का
धुआँ अटका पड़ा है .....

हवा तड़प उठी है
तुम्हारे शब्दों की तीलियों से ...
हर एक फब्ती ज़श्न मनाती है
अपनी जीत पर .....

मेरे सामने की मेज से
कोई नज़्म फड़फड़ा कर गिरी है
तुम्हारे पैरों तले ...
अपने लफ़्ज़ों की पैरवी करने ..

सुनो.....
तुम्हारे पास कैंची हो तो
काट देना इसके पर
फिर ये फड़फड़ाएगी नहीं
ज़िन्दगी की तलाश में .....

न जाने क्यों...
फिजां में उठता ये धुआँ
मुझे
तस्कीन दे रहा है .....
मौसम के बदलने की ...

ये तुम्हारे चेहरे पर
प्यास के निशान क्यों उभर आये हैं ....?
सकपकाए से तुम्हारे शब्द
इतने विचलित क्यों हैं ......?
मैं नहीं तोडूंगी तुम्हारे एक्वेरियम की दीवारें
तुम्हें खुद मुझे बुर्के से आज़ाद करना होगा ...

इन विडम्बनाओं के पुल के नीचे
थका हुआ पानी अब .....
ख़ामोशी चीरना चाहता है .......!!


67 comments:

  1. दिमाग के भीतर उठा है एक सूनामी
    कि बिन बुलाये फतवों की अब खैर नहीं
    जलालत में सड़ती ज़िंदगी ने कर दिया है ऐलान
    कि इस उठती हुयी मीथेन की आतिश से बच के रहना.

    आदरणीया डिवाइन सॉन्ग जी ! शोले अपने शबाब पर हैं .....ये आंच ......देखते हैं कितनों को ख़ाक करेगी.
    कमाल का सूनामी आया है आपके शब्दों में ......एकदम भड़ाम-भड़ाम .....धायं धायं ......

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  2. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 29 -03 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  3. हवा तड़प उठी है
    तुम्हारे शब्दों की तीलियों से ...
    हर एक फब्ती ज़श्न मनाती है
    अपनी जीत पर .....

    अब क्या कहूँ ..निशब्द

    ReplyDelete
  4. ओ हीर जी,
    सारा कसूर आपका है...सौ बार कहा है, इतना सोणा खाना ही क्यों बनाते हो...और बनाया करो तो हमारे जैसा नज़रबट्टू ही ब्लॉग पर बैठा दिया करो...कोई मोहतरमा खाना खाने के बाद पर्स में छुपा कर भी ले जाने लगे तो न चोंच मार-मार कर बुरा हाल कर दिया तो मुझे कहना...

    जय हिंद...

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  5. मेरे सामने की मेज से
    कोई नज़्म फड़फड़ा कर गिरी है
    तुम्हारे पैरों तले ...
    अपने लफ़्ज़ों की पैरवी करने ..
    zindagi jahan ehsaason ke baarish karti hai , us pani se jo shbd dhulker dhup mein nikharte hain- aapke khyaalon ki bangi bante hain...

    ReplyDelete
  6. कई बार कुछ लिखना चाहकर भी नहीं लिख पाता, आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा है.

    ReplyDelete
  7. हवा तड़प उठी है
    तुम्हारे शब्दों की तीलियों से ...
    हर एक फब्ती ज़श्न मनाती है
    अपनी जीत पर .....

    मेरे सामने की मेज से
    कोई नज़्म फड़फड़ा कर गिरी है
    तुम्हारे पैरों तले ...
    अपने लफ़्ज़ों की पैरवी करने ..



    aah aur wah

    ReplyDelete
  8. बहुत संवेदनशील रचना ...

    न जाने क्यों...
    फिजां में उठता ये धुआँ मुझे
    तस्कीन दे रहा है .....
    मौसम के बदलने की ...

    मौसम तो बदलेगा ..लेकिन तपिश फिर भी रहेगी ...

    मैं नहीं तोडूंगी तुम्हारे एक्वेरियम की दीवारें
    तुम्हें खुद मुझे बुर्के से आज़ाद करना होगा ...

    इन विडम्बनाओं के पुल के नीचे
    थका हुआ पानी अब .....
    ख़ामोशी चीरना चाहता है .......!!

    बस जिस दिन खामोशी को शब्द मिल गए उस दिन पानी का वेग सब कुछ बहा ले जायेगा ...

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  9. kya kahoon kuchh samjh nahi aa raha ,par aanand poora le rahi hoon ,itni achchhi rachna ki baar baar padhte jaa rahi .

    ReplyDelete
  10. मेरे सामने की मेज से
    कोई नज़्म फड़फड़ा कर गिरी है
    तुम्हारे पैरों तले ...
    अपने लफ़्ज़ों की पैरवी करने ..

    bahut khoob!

    ReplyDelete
  11. मोतियों जैसे पिरोये लफ्ज़ जब शोलों की तरह दहकते हुए दिखें तो होती है हरकीरत हीर की नज़्म...अब तो इंतज़ार रहता है नज्मों के सफ़र के अगले...फिर अगले पडाव का. बधाई!
    ----देवेंद्र गौतम

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  12. आपकी नज़्म पढ़ना तो इक आग में जलने जैसा है.दिमाग को झंझोड़ के रख देती हैं.हमारी सोच के सोने को कुंदन बना देती हैं.

    ये तुम्हारे चेहरे पर
    प्यास के निशान क्यों उभर आये हैं ....?
    सकपकाए से तुम्हारे शब्द
    इतने विचलित क्यों हैं ......?
    मैं नहीं तोडूंगी तुम्हारे एक्वेरियम की दीवारें
    तुम्हें खुद मुझे बुर्के से आज़ाद करना होगा ...

    बहुत खूब सलाम.

    ReplyDelete
  13. हवा तड़प उठी है
    तुम्हारे शब्दों की तीलियों से ...
    हर एक फब्ती ज़श्न मनाती है
    अपनी जीत पर .....

    खूब कहा आपने..... बहुत बढ़िया

    ReplyDelete
  14. थका हुआ पानी अब .....
    ख़ामोशी चीरना चाहता है .......!!



    काश कि ऐसा हो जाये, बहुत खुब। शानदार।

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  15. खामोशी जब स्वयं से परे हो जाती है तो शोर बन जाती है।

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  16. बहुत संवेदनशील रचना ...

    खूब कहा आपने..... बहुत बढ़िया

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  17. उलझनों की किताब में
    मुश्किलात की गर्द को ओढ़े
    किन्हीं
    कुम्हला गये से पन्ने
    बार बार
    फड़फड़ा कर
    अपने ही जिस्म पर लिख दिए गये
    शब्दों के सीने पर सर रख
    ज़रा सुकून ढूँढने लगते हैं ....
    और
    "हीर" खुद इक नज़्म हो जाती है ....

    शिल्प, बुनावट, बिम्ब, शैली,
    अवधारणा और मत ....
    सब प्रभावशाली है .

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  18. अति संवेदनशीलता और जीवन की विभिन्न सोपानो , परिस्थितयों और रूप पर आपकी चैतन्य दृष्टि ,कालजयी रचना को जन्म देती है . हम नज़्म की हर पंक्ति के साथ भावनाओ के प्रबल संवेग से जूझते रहे .रही बात टीपने वाली मोहतरमा की तो हो सकता है अब शर्म इतनी तो बची हो की दुबारा ऐसा ना हो .

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  19. सुनो.....
    हरकीरत जी यह तो आपने बड़ी अच्छी बात बताई. चोरी भी और सीनाजोरी भी. यह विरोध सभी को करना ही चाहिए.

    आपकी नज़्म तो हर बार की तरह ही दिल को घायल कर जाती है.

    तुम्हारे पास कैंची हो तो
    काट देना इसके पर
    फिर ये फड़फड़ाएगी नहीं
    ज़िन्दगी की तलाश में .....

    न जाने क्यों...
    फिजां में उठता ये धुआँ मुझे
    तस्कीन दे रहा है .....
    मौसम के बदलने की ...

    आशा और निराशा की बीच अनोखे बिम्ब प्रयोग बस और मैं क्या कहूँ.

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  20. अरसे से किवाड़ पर ताला नहीं लगाया।
    मेरे पास चुराने लायक कुछ था ही नही।

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  21. नामुराद......
    सिल पर पड़ी
    ये तिजारत की धूप भी ......
    अपनी देह से साँस लेने की
    अनुमति मांगती है .....

    sundrta me lipti ye khushbudaar njm ..kya kahne !

    ReplyDelete
  22. तुम्हारे पास कैंची हो तो
    काट देना इसके पर
    फिर ये फड़फड़ाएगी नहीं
    ज़िन्दगी की तलाश में .....

    बहुत खूब कहा है आपने इन पंक्तियों में ...।।

    ReplyDelete
  23. दर्द दर्द दर्द और सिर्फ़ दर्द की ताबीर्।

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  24. आद कौशलेन्द्र जी ,

    मेरी रचना फिर किसी मज़हब के खिलाफ नहीं है ....
    अभी हाल ही में पता चला इस मज़हब में स्त्रियों को सबसे ज्यादा सम्मान और हक़ मिले हुए हैं ....
    पर इस स्त्री को देख मेरा दिल दहल गया ...ऊपर से नीचे तक तो बुर्के में थी ही , हाथों और पैरों को भी दस्तानो और जुराबों से ढके हुए थी ...बस अभी मैं मोबाईल निकाल एक तस्वीर खींच ही पाई थी कि वो उतर गई ...और मेरी विस्मित आँखों में उभर आये ढेर सारे सवाल वही पड़े रह गए ....मैं उससे जानना चाहती थी तुम पर ये अमानुषिक पाबंदियां किसने लगाई कि साँस लेना भी दूभर हो जाये..... जबकि तुम्हारे मज़हब में स्त्रियों को सबसे ज्यादा हक़ मिले हुए हैं ...शायद इन सवालों के लिए मुझे उसके पीछे ही उतर जाना चाहिए था ...तब ये तपती धमनियाँ मुझे इतना परेशान न करतीं .....

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  25. पत्थरों के फफोले
    विडम्बनाओं की ज़मीं
    उठाकर चल पड़े हैं .....
    बिलकुल वैसे ही जैसे
    तुम बाँध देते हो हवाओं को
    और एक जलती लकीर खीँच देते हो
    उसके ज़िस्म पर ....

    WAAH, KAVI KEE KALPANA KEE UDAAN BAHUT LAAJABAB HAI !

    ReplyDelete
  26. हवा तड़प उठी है
    तुम्हारे शब्दों की तीलियों से ...
    हर एक फब्ती ज़श्न मनाती है
    अपनी जीत पर .....


    http://vivj2000.blogspot.com Vivek Jain

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  27. मोहतरमा कहकर आपने तो उन्हें इज़्ज़त बख़शी है। उनका नाम और ब्लाग पता भी देते तो सभी लोग उसकी मज़्ज़मत तो कर ही सकते थे ताकि होटल के खाने और चुराने का सही अर्थ समझ में आता॥

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  28. pursukoon........rachna...........

    jiske jawaw apke mobile me kaid hue
    hain......uspe sawal kaisa aur kis-se

    ye manjar itne houlnak hain ke is pe
    'irshad' kar bhi nahi sakta......

    @cmpresad........chacha 'unko unke halat pe hi rahne den....'

    pranam.

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  29. आद.चंद्रमौलेश्वर,
    मोहतरमा का नाम इसलिए नहीं लिखा था कि बहस के दौरान पीपुल फॉर पीपुल (पेड, पानी और पक्षियों के प्रवक्ता के संचालक अरविन्द त्रिपाठी जी ने मेरे आग्रह पर उक्त पोस्ट को हटवा दिया ...अब उनका मान तो मुझे रखना ही था ....पर मोहतरमा 'रुखसाना मक़सूद' ने माफ़ी तो दूर यहाँ तक कह दिया कि जाइये जहाँ मेरे खिलाफ शिकायत दर्ज करानी है करा दें ....

    ReplyDelete
  30. संवेदना समंदर.

    ReplyDelete
  31. बहुत बढ़िया ....

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  32. .

    बेहद भाव-प्रवण रचना. बौद्धिक व्यायाम करके जो श्रम-आनंद मिलता है कुछ वैसा ही आनंद मिला.

    .

    ReplyDelete
  33. .

    "जाइये जहाँ मेरे खिलाफ शिकायत दर्ज करानी है करा दें ...."
    @ इसे ही कहते हैं 'बलात्कारी मानसिकता'.

    .

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  34. हरकीरत जी हर अच्छी चीज़ को चुराना इंसान की फितरत है...आपकी नज़्म चोरी इसीलिए होती है...बुर्के में लिपटी बंद औरत का दुःख जिस तरह आपने बयां किया है वो बेजोड़ है...वाह...

    नीरज

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  35. चोरी ? अज़ी आप लिखती ही इतना अच्छा है कि किसी का भी चुराने का मन कर सकता है ।

    न जाने क्यों...
    फिजां में उठता ये धुआँ मुझे
    तस्कीन दे रहा है .....
    मौसम के बदलने की ...

    मौसम तो बदलते ही रहना चाहिए, ताज़गी के लिए ।

    मैं नहीं तोडूंगी तुम्हारे एक्वेरियम की दीवारें
    तुम्हें खुद मुझे बुर्के से आज़ाद करना होगा ...

    सही निर्णयात्मक अभिव्यक्ति ।

    फिर एक बेजोड़ रचना के लिए बधाई ।

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  36. गुस्ताखी माफ़ हो डिवाइन जी ! मगर मैं मोहतरमा जी ...क्या नाम बताया आपने ? हाँ ....रुखसाना मक़सूद जी से गुजारिश करूंगा कि वे एक बार और जुर्रत करके इस नज़्म को चुरा लें जाएँ ..इतनी बेहतरीन नज़्म खातूनों के लिए ही तो लिखी गयी है ...उनके बहुत काम आयेगी क्योंकि मेरे पास जो खातूनें आती हैं उनमें से अधिकाँश स्किन डिसीज से पीड़ित रहती हैं ....शायद इतनी गर्मी में बुर्के के भीतर पसीने की सतत नमी के कारण ? उन्हें समझाने का भी कोई फ़ायदा नहीं नज़रों के हिज़ाब से बढाकर और क्या हो सकता है ? पर नहीं उनके मर्दों का यही हुक्म है .....गोया बिना हिज़ाब के दुनिया की दीगर सारी खातूनों की इज्ज़त खतरे में है....या फिर है ही नहीं.जिस परिवेश और जिन हालातों में जिन मुल्कों के लिए ये व्यवस्था की गयी थी वह व्यवस्था देश और काल के अनुरूप हर जगह एप्लाई नहीं हो सकती. हाँ ! यह व्यवस्था सर्दियों में तो अपने यहाँ के लिए भी अच्छी है. धर्म हमारे जीवन को सरल, सबल और सक्षम बनाने के लिए है दुरूह बनाने के लिए नहीं. और यह आवश्यकता देश काल वातावरण के हिसाब से अलग-अलग होती है....होनी चाहिए भी. अन्यथा धर्म की अच्छी बातें भी जड़ता की प्रतीक बन जाती हैं.
    दो बार मोहतरमाओं ने आपकी आँख से काजल निकाल लिया ...आप इतना अच्छा काजल लगाती ही क्यों हैं ? आपको खुश होना चाहिए कि आपकी आँख का सुरमा इतना अच्छा है कि लोग चुराने के लिए मचल जाएँ ...और अपना इमान खो दें.

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  37. इन विडम्बनाओं के पुल के नीचे
    थका हुआ पानी अब .....
    ख़ामोशी चीरना चाहता है .......!!

    अमीन!!
    ....हर खामोशी को जुबान मिल जाए
    बेहद संवेदनशील रचना

    ReplyDelete
  38. मैं नहीं तोडूंगी तुम्हारे एक्वेरियम की दीवारें

    kya kahne hain...burke ko aapne kitna pyara sa naam diya..jo kahin ek dum se lag gaya...!
    sach me aapka jabab nahi!!

    waise ek baat kahun..kabhi kabhi maine bhi kahin kahin aapke shabdo ka istemaal kiya...beshak apne post me nahi ...lekin baato ke kram me ya kisi thread pe...ye alag baat hai kah diya ki copy paste hai..:)

    ab aap likhte hi aise ho to galti logo ki thori hai:)

    ReplyDelete
  39. मुकेश जी ,
    कला तो सीखने के लिए ही होती है ....
    ब्लॉग जगत में क्षणिकाओं का प्रचलन नहीं था पर मुझे देख बहुतों ने इस कला को अपनाया ....
    लेकिन ऐसी चोरी वही कर सकता है जो अपनी बौद्धिक क्षमता रखता है ...इसे चोरी नहीं कहा जा सकता ...
    शब्दों की चोरी भी चोरी नहीं कही जा सकती क्योंकि उसे सजाने की कला आपके पास है ....
    पर हुबहू उसे उठा कर लगा देना तो किसी तरह भी मान्य नहीं ....
    उस पर मोहतरमा कहती हैं कि किसी भी ब्लॉग की सामग्री उसकी अपनी नहीं होती ....
    भविष्य में तो नेट ही माध्यम रह जायेगा लिखने का ...यही उसकी साहित्य संपत्ति होगी
    इसलिए इस तरह की चोरियों का विरोध होना आवश्यक है ....
    ताकि वे आगे से सचेत हो जायें ....

    ReplyDelete
  40. और अब फिर रहट की टूटती रस्सी का अंतर्नाद है ...कैदी नज्में आँखों की नमी से सवाल करती हैं ....मिट्टी अपने हाथ खोलती है ....मेरे सामने बस में एक स्त्री ... इतने गर्म मौसम में भी हाथों में काले दस्ताने ... पैरों में काले मोज़े ... ज़िस्म को ऊपर से नीचे तक काले बुर्के से ढके बैठी ॥मुझे फिर वही सवाल पूछने पर मजबूर करती है .....





    bahut khoob kamaal ka khyal...

    Aapke liye khas kaha hai apne blog mein...zaroor padhein..

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  41. हरकीरत जी,
    मुझे भी कभी कभी ये ख़यालात आते है की,
    आपकी इतनी सुंदर रचना चुरा ही,लूँ ....

    ReplyDelete
  42. मेरे सामने की मेज से
    कोई नज़्म फड़फड़ा कर गिरी है
    तुम्हारे पैरों तले ...
    अपने लफ़्ज़ों की पैरवी करने ..

    सुनो.....
    तुम्हारे पास कैंची हो तो
    काट देना इसके पर
    फिर ये फड़फड़ाएगी नहीं
    ज़िन्दगी की तलाश में ......sirf hava hi kyo? har padhane wale bhi tadap utha hoga...usme kshis hi hai itni..

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  43. कितनी पीड़ा का है अहसास आपकी नज्म में , पीड़ा को शब्द देना तो कोई आपसे सीखे ..

    ReplyDelete
  44. 'मेरे सामने की मेज से

    कोई नज़्म फड़फडा कर गिरी है

    तुम्हारे पैरों तले ...

    अपने लफ़्ज़ों की पैरवी करने...'

    *********************

    वाह क्या भाव ! अभिव्यक्ति और निराली ..

    ReplyDelete
  45. आदरणीय हरकीरत जी
    नमस्कार !
    तुम्हारे शब्दों की तीलियों से ...
    हर एक फब्ती ज़श्न मनाती है
    अपनी जीत पर .....

    खूब बहुत बढ़िया
    ..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती

    ReplyDelete
  46. "आँखों में चुभ गया खामोशी का कसैला धुंआ
    तेरे सवाल की उंगली थामे मैं जहां भी गया"

    आपके सवालात अदब की धरोहर हैं...
    इनकी चीखें दुनिया को जगाने में एक दिन ज़रूर कामयाब होंगी... आमीन.
    सादर...

    ReplyDelete
  47. khamoshi ka sannata todne ki jarurat hai. aapkii kavita padhi thi magar kya likhun kuch sujha nahin. siva iske ki mahaul badlna chahiye...

    ReplyDelete
  48. khushboo koi chori bhi karega to bhi khushboo to aap ki hi bikhregi naa .

    ReplyDelete
  49. रचना दीक्षित की बात से सहमत हूँ ! अगर कभी ऐसी घटनाएं घटती हैं तो विरोध अवश्य करना चाहिए ! मगर क्या करें आप लिखती हीं ऐसा हैं कि चुराने का दिल करता है ! :-)
    शुभकामनायें !!

    ReplyDelete
  50. रचना दीक्षित की बात से सहमत हूँ ! अगर कभी ऐसी घटनाएं घटती हैं तो विरोध अवश्य करना चाहिए ! मगर क्या करें आप लिखती हीं ऐसा हैं कि चुराने का दिल करता है ! :-)
    शुभकामनायें !!

    ReplyDelete
  51. आदरणीया हरकीरत जी
    नमस्कार !

    विलंब से पहुंचा हूं … और सच कहूं तो इतनी मर्मस्पर्शी कविता और रचना की चोरी फिर सीनाजोरी तथा पोस्ट पर आए महत्वपूर्ण कमेंट्स पर मै अभी कुछ नहीं कह पाऊंगा …

    आपकी संवेदनाओं को प्रणाम है … … …

    आप मात्र एक औरत को देख कर द्रवित हैं जो संज्ञाशून्य बना दी गई ऐसी बहुसंख्य औरतों का नमूना भर है …


    बहरहाल भारतीय क्रिकेट टीम के विश्वविजेता बनने की बधाई !


    नव संवत्सर की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !


    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  52. हरकीरत जी, हैरानी हुई फ़ेसबुक वाली बात जानकर.
    साहित्य से इस तरह खिलवाड़ कैसे किया जा सकता है?
    लेखक को चाहिए अपने विचारों को शब्दों का रूप दें, समय के साथ निखार भी आ ही जाता है

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  53. वाह!! क्या बात है....



    -इस तरह की चोरी का पुरजोर विरोध दर्ज किया ही जाना चाहिये.

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  54. मेरे सामने की मेज से
    कोई नज़्म फड़फड़ा कर गिरी है
    तुम्हारे पैरों तले ...
    अपने लफ़्ज़ों की पैरवी करने ..
    wah kya baat hai .

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  55. हरकीरत जी बहुत ही सुंदर कविता /नज्म बधाई और नवसम्वत्सर की शुभकामनाएं |

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  56. बेहद प्रभावी और मन को हिला देने वाली रचना है आपकी ।
    रचनाओं की चोरी तो हर स्तर पर घ्रिणास्पद और निन्दनीय है ।

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  57. नव-संवत्सर और विश्व-कप दोनो की हार्दिक बधाई .

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  58. 'इन विडम्बनाओं के पुल के नीचे
    थका हुआ पानी अब .....
    ख़ामोशी चीरना चाहता है .......!!'

    - एक सीमा के बाद खामोशी चीरने का ही विकल्प बचता है |

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  59. विश्वकप विजय और नव संवत्सर की हार्दिक बधाई स्वीकारें

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  60. थका हुआ पानी अब .....
    ख़ामोशी चीरना चाहता है .बहुत संवेदनशील रचना .

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  61. झील सी गहराई लिए हुए ये कविता........

    एक ज़िन्दगीहीन
    कारखाने की ख्राशज़दा साँसें
    जिसकी चिमनी में ज़ख्मों का
    धुआँ अटका पड़ा है

    बेहतरीन.

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  62. अब चोर सीनाज़ोर भी होने लगे?
    खुशदीप जी ने सही बात कही, आप खाना बनाती लज्जतदार हो।

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  63. आप सब के लिए एक खुशखबरी .....
    पढ़िए ये समाचार .....


    पेरिसः फ़्रांस में मुस्लिम महिलाओं के बुर्का पहनने पर पाबंदी लगा दी गई है. देश की संसद राष्ट्रीय महासभा ने भारी बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दिया है. नेशनल एसेंबली में इस कानून के समर्थन में 335 सांसदों ने मत दिया जबकि केवल एक सांसद ने इसका विरोध किया. सत्तारूढ यूएमपी और न्यू सेंटर पार्टी ने बुर्के पर प्रतिबंध के पक्ष में मतदान किया. वही विपक्षी दल अधिकतर सदस्यों ने इसमें भाग नही लिया, वे गैर हाजिर रहे.

    इस मतदान के बाद बुर्के पर प्रतिबंध लगाने का यह विधेयक सितंबर में सीनेट में रखा जाएगा. वहां से भी इसके पारित होने की पूरी संभावना है. इसके अनुसार सार्वजनिक रूप से चेहरा ढंकना गैरकानूनी होगा. इस नियम का उल्लंघन करने पर 150 यूरो, यानी लगभग 9 हज़ार रुपए तक का जुर्माना देना होगा. किसी को बुर्का पहनने के लिए मजबूर करने पर एक साल की कैद व तीस हज़ार यूरो, यानी करीब 18 लाख रुपए के बराबर जुर्माना देना पड़ेगा. अगले साल से यह पाबंदी लागू हो जाएगी.

    बेल्जियम की संसद में गुरुवार को बुर्क़े पर प्रतिबंध को लेकर चर्चा हो रही है.

    दुआ है की भारत में भी इस तरह के कदम जल्द उठाये जायें .....

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  64. हीर जी के ब्लॉग पर आना ऐसा लगता है जैसे वारिश में किसी पहाड़ पर आ गए हों. हमेशा दोहरा मज़ा मिलता है पहले नज़्म का फिर कमेंट्स का. अब यही देखिये इस बार इतने लोगों ने इस ख़ूबसूरत नज्म को चुराने की इच्छा जताई है कि यह एक राष्ट्रीय मसला जैसा लगने लगा. विवाद की सम्भावनाओं को देखते हुए मेरा सुझाव है कि बारी-बारी से चोर तय किया जाय अन्यथा जबर चोर हर बार चोरी करता रहेगा ...या फिर चोरी की जगह थोड़ा स्टैण्डर्ड का काम करते हैं...जब जबरई ही करनी है तो क्यों न डाका ही डाल लिया करें ...जिसमें दम होगा ले जाएगा. रही बात हीर की तो उनके पास तो लिखते रहने के लिए इतने आँसू हैं कि स्याही कभी कम नहीं पड़ेगी. डिवाइन सॉन्ग जी ! क्या ख्याल है आपका ?

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  65. in vidambnao ke pul ke neeche....

    heer ji, bahut dard hai man me bah jaane do...

    "kar irade buland apne
    tod de pinjra tu saiyad ka!
    chal padegi jab chhuri,
    kya karogi is jahanabad ka!!???Ramesh

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