कल से इक विवादास्पद लेखक की अपने किसी कमेंट में कही इक बात बार बार हथौड़े सी चोट कर रही थी ...." कुछ बदमाश औरतों ने बात का बतंगड़ बना दिया ...."
बस वहीं इस कविता का जन्म हुआ ....
बदमाश औरत
************
औरतें बदमाश होती हैं
जो उठाती हैं आवाज़ अन्याय के खिलाफ़
उठा लेती हैं हथियार शब्दों का
चढ़ पड़ती हैं छाती पर
मरोड़ देती हैं हर उठी हुई अँगुली
खींच लेती हैं अश्लील शब्दों को ज़ुबाँ से
ठोककर छाती हो जाती हैं लड़ने को तैयार
हाँ वो औरतें होती हैं बदमाश ...
वो औरतें होती हैं बदमाश
जो निकल पड़ी हैं सड़कों पर
न्याय की खातिर हाथों में झंडे लिए
चीख़ चीख़ कर खटखटाती हैं अदालतों के द्वार
बलात्कार , अपमान , अत्याचार के खिलाफ़
घण्टों बैठी रहती हैं धरनों पर ....
वो औरतें होती हैं बदमाश
जो विधवा का लिबास उतार कर
सुनने लगती हैं प्रेम संगीत
जो नकाबों को उतार कर खुले में
लेना चाहती हैं एक उन्मुक्त श्वांस ...
छूना चाहती हैं आकाश
लिखना चाहती हैं खुले मन से इक कविता
बहते पानी को छूकर पूछना चाहती हैं
उसकी गतिशीलता का राज..
हाँ ..!
वो औरतें शरीफ़ नहीं होती
शरीफ़ औरतें मूक बनी रहती हैं
लगा लेती हैं जिव्हा पर ताला
चुपचाप पड़ी रहती हैं लिपलिपाती देह के तले
भले ही उतार ले कोई दुपट्टा भरे बाज़ार में
शब्दों से कर ले कहीं भी चीर हरण
गाड़ दे धरती में घिनौने शब्दों के बाण चला
या जला दे उसका आत्मसम्मान
हाँ, वो औरतें शरीफ़ होती हैं ....
सुनो ....
मैं इक बदमाश औरत हूँ
हाँ मैं पुरस्कार बाँटती हूँ देह के बदले
पर तुम क्यों तिलमिला रहे हो
क्यों कुंठित हो इतने...?
क्या अब शिथिल हो गए हैं तुम्हारे अंग
या उम्र साथ - साथ मन - मस्तिष्क भी
हो चुका है नपुंसक ....?
लो आज ...
इक बदमाश औरत
नग्न होकर खड़ी है तुम्हारे सामने
आओ और लिख दो उसकी देह पर
मनचाहे शब्दों से
इक पाक साफ़ औरत होने की परिभाषा ...
© हरकीरत हीर ....
( नोट - यह रचना लेखक की निजी मौलिक संपत्ति है इसे बिना इज़ाज़त कहीं भी शेयर या कॉपी पेस्ट न किया जाए , अगर ऐसा पाया गया तो कानूनी कार्यवाही की जा सकती है )
बस वहीं इस कविता का जन्म हुआ ....
बदमाश औरत
************
औरतें बदमाश होती हैं
जो उठाती हैं आवाज़ अन्याय के खिलाफ़
उठा लेती हैं हथियार शब्दों का
चढ़ पड़ती हैं छाती पर
मरोड़ देती हैं हर उठी हुई अँगुली
खींच लेती हैं अश्लील शब्दों को ज़ुबाँ से
ठोककर छाती हो जाती हैं लड़ने को तैयार
हाँ वो औरतें होती हैं बदमाश ...
वो औरतें होती हैं बदमाश
जो निकल पड़ी हैं सड़कों पर
न्याय की खातिर हाथों में झंडे लिए
चीख़ चीख़ कर खटखटाती हैं अदालतों के द्वार
बलात्कार , अपमान , अत्याचार के खिलाफ़
घण्टों बैठी रहती हैं धरनों पर ....
वो औरतें होती हैं बदमाश
जो विधवा का लिबास उतार कर
सुनने लगती हैं प्रेम संगीत
जो नकाबों को उतार कर खुले में
लेना चाहती हैं एक उन्मुक्त श्वांस ...
छूना चाहती हैं आकाश
लिखना चाहती हैं खुले मन से इक कविता
बहते पानी को छूकर पूछना चाहती हैं
उसकी गतिशीलता का राज..
हाँ ..!
वो औरतें शरीफ़ नहीं होती
शरीफ़ औरतें मूक बनी रहती हैं
लगा लेती हैं जिव्हा पर ताला
चुपचाप पड़ी रहती हैं लिपलिपाती देह के तले
भले ही उतार ले कोई दुपट्टा भरे बाज़ार में
शब्दों से कर ले कहीं भी चीर हरण
गाड़ दे धरती में घिनौने शब्दों के बाण चला
या जला दे उसका आत्मसम्मान
हाँ, वो औरतें शरीफ़ होती हैं ....
सुनो ....
मैं इक बदमाश औरत हूँ
हाँ मैं पुरस्कार बाँटती हूँ देह के बदले
पर तुम क्यों तिलमिला रहे हो
क्यों कुंठित हो इतने...?
क्या अब शिथिल हो गए हैं तुम्हारे अंग
या उम्र साथ - साथ मन - मस्तिष्क भी
हो चुका है नपुंसक ....?
लो आज ...
इक बदमाश औरत
नग्न होकर खड़ी है तुम्हारे सामने
आओ और लिख दो उसकी देह पर
मनचाहे शब्दों से
इक पाक साफ़ औरत होने की परिभाषा ...
© हरकीरत हीर ....
( नोट - यह रचना लेखक की निजी मौलिक संपत्ति है इसे बिना इज़ाज़त कहीं भी शेयर या कॉपी पेस्ट न किया जाए , अगर ऐसा पाया गया तो कानूनी कार्यवाही की जा सकती है )
आह! बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteसटीक।
ReplyDeleteसुन्दर और सटीक रचना
ReplyDeleteसटीक कर्रा हाथ मारा है गाल पर
ReplyDeleteआपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं
Hard hitting.
ReplyDeletebahut acha bhai apney bahut ache se samajhya hai
ReplyDeleteबेहतरीन हरकीरत जी,
ReplyDeleteअपने बहुत गहरी चोट की है , उम्मीद है ये आवाज़ देर तक गूंजेगी
वो औरतें होती हैं बदमाश
ReplyDeleteजो विधवा का लिबास उतार कर
सुनने लगती हैं प्रेम संगीत
जो नकाबों को उतार कर खुले में
लेना चाहती हैं एक उन्मुक्त श्वांस ...
छूना चाहती हैं आकाश
लिखना चाहती हैं खुले मन से इक कविता
बहते पानी को छूकर पूछना चाहती हैं
उसकी गतिशीलता का राज..
हाँ हैं हम बदमाश औरतें !
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'गुरुवार' 25 जनवरी 2018 को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteलाजवाब !!
ReplyDeleteवाह!!लाजवाब!!
ReplyDeleteइस साहसिक लेखन के लिए आप सराहना की पात्र हैं --- बहुत खूब !!!
ReplyDeleteलाज़वाब ।
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteWah, Such a wonderful line, behad umda, publish your book with
ReplyDeleteOnline Book Publisher India
बहुत ही सशक्त रचना है. यूँ आपकी आवाज़ में यह रचना सुन चुकी हूँ. बधाई.
ReplyDeleteज़बरदस्त रचना
ReplyDeleteहकीकत का जानदार बयान।
पुरजोर तरीके से अपने वजूद का पक्ष लिया है एक औरत ने। दरअसल औरत होने का सही अर्थ भी यही है अस्तित्व गढ़ना और उसके अस्तित्व के लिए निरंतर लड़ते रहना। अच्छा लेखन 👍
ReplyDeleteजबरदस्त लिखा है आपने।
ReplyDeleteजी शुक्रिया ...
ReplyDeleteMay Kadar bless you !
ReplyDeleteBe happy and prosperous !!
Have a nice moments always !!!
With all the best wishes and regards
Ranjit Singh Dhuri
Email : rsinghdhuri@gmail.com
Whatsapp : +91 98762 04508