'दर्द की महक ' छप कर मेरे हाथों में है ....शुक्रिया 'हिंद-युग्म'...पुस्तक बहुत ही अच्छी बन पड़ी है ....इसमें आप सब की टिप्पणियाँ भी शामिल हैं ...पुस्तक अमृता-इमरोज़ जी को समर्पित है ...
विमोचन दिल्ली २७ फरवरी प्रगति मैदान में लगे 'इंटर नैशनल पुस्तक मेले' में शाम पांच बजे ..इमरोज़ जी के हाथों .....
संभवत: हीर भी आये .....:))
पर आप सब आना न भूलियेगा ....सादर निमंत्रण है .....
(अगर विमोचन के बारे आप विस्तार से जानना चाहते हैं तो फोन करें प्रकाशक शैलेश भारतवासी जी को ....उनका न. है ....९८७३७३४०४६,९९६८७५५९०८ )
और अब इक लम्बी कविता .....'' झोपड़ियों का वेलेंटाइन ''झोंपड़ियों में वेलेंटाइन .....
झोपड़ियों का वेलेंटाइन ....
आओ...
आज के दिन खोल दें
ये बूढी खिड़कियाँ ...
पैरों की फटी दरारें
गुजरे वक़्त के खुरदरे हाथ
आँखों की सिलवटें
और इनके नीचे
खोखले ,पोपले हुए चेहरों पर
रख दें अपने ...
ठन्डे जर्द होंठ ....
आओ याद करें
पीली सरसों के बीच
उड़ती धानी चुनर
धान की महकती बालियाँ
टेसू के दहकते फूल
जो कभी छाती में
चिडचिड़ाते थे आग ..
आओ....
इस धूल से सनी चादर
मैले-कुचैले चिथड़ों में ढूँढें
बाद -अज-शबाब
सुर्खरू गुलाब की हसीं पत्तियाँ
चूड़ियों की खन-खन
महावर की लाली
और लाल हो जायें ....
आओ आज के दिन
माज़ी के उलझे जालों से
चुन लायें ..
खुशगवार गुलाबी दिन
ढोती, हांफती,ढहती ज़िन्दगी में
साँस लेते खुशनुमा पल ...
जब नहीं बदलते थे पत्तियों के रंग
चंचल वर्षा की बूंदों में
उग आती थी सुर्ख धूप
नर्म सूखी घास में
सरसराती थी सांसें
धीरे-धीरे खींचती डोर में
कट जाती थीं पतंगे
भीतर कहीं बर्फ झड़ती
तो तुम झुककर
बंद कर देते थे किवाड़
अपने होंठों से ....
मिट्टी खोदते वक़्त
जब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता था व्याकरण....
धरती-आकाश, चाँद-तारे
पर्वत-नदियाँ,पेड़,हवाएं
फूल,भंवरे समूचा ब्रह्मांड
गाने लगता था
बसंत राग...
आओ....
इस क्षीण होती काया में
टुकड़े टुकड़े बाँट लें
ज़िन्दगी के रंग
प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी
प्रेम नहीं मुरझाता कभी
प्रेम नहीं झड़ता कभी
बस धुंधली होती रौशनी में
गुम जाते हैं कहीं शब्द
कहानियों के पन्नों में
दब जाते हैं कहीं हमारे चिन्ह
और मौत लिखती है ....
अज्ञात लिपि में
प्रेम का शोकगीत .....!!
सच्ची कविता और प्रभावशाली हमेशा की तरह.
ReplyDeleteपुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें.
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteयही है प्रेम .... जहाँ दिखावा नहीं बस प्रेम है
ReplyDelete.....पुस्तक विमोचन पर शुभकामनायें...
@@
ReplyDelete" हीर " का आना लाजमी है ......हम तो दूर से ही पहचान लेंगे ...संभवतः हम भी वहीँ होंगे ....!
:))
@@ दर्द की महक ' छप कर मेरे हाथों में
ReplyDeleteयह दर्द की महक दिल से ......आपके हाथों तक कैसे पहुंची .....अब तो और भी महक आएगी ....दनिया दर्द के गीत गाएगी ...!
@@ संभवत: हीर भी आये .
" हीर " का आना लाजमी है ......हम तो दूर से ही पहचान लेंगे ...संभवतः हम भी वहीँ होंगे ....!
पदचिह्म भले ही दब जाएं, मिट तो नहीं सकते.. वो फिर उभरेंगे, बींज से पौधे की तरह !!!
ReplyDeleteमिट्टी खोदते वक़्त
ReplyDeleteजब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता हैं व्याकरण....
यह प्रेम का व्याकरण ना जाने कब अपने नियम बदल देता है पता ही नहीं चलता ...हर किसी के लिए यह अलग अलग है ....मेरी पहली टिप्पणी में कुछ खामियां रह गयी थी ....क्षमा प्रार्थी हूँ ...!
पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें.
ReplyDeleteप्रेम के अनेक रंग, एक यह भी..
ReplyDeleteपहले तो पुस्तक प्रकाशन की बहुत बधाई ।
ReplyDeleteविमोचन की शुभ घड़ी भी समझो आई ।
दिल्ली का दिल तो अभी से धड़कने लगा है ।
असली वेलेंटाइन तो झोंपड़ियों में ही बसते हैं ।
फुरसत में लिखी सुन्दर रचना ।
ढेरों शुभकामनायें पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर. मुझे २७ को ही लखनऊ जाना है इसलिए विमोचन पर न पहुचने के लिये क्षमा चाहिती हूँ
ReplyDeleteमिट्टी खोदते वक़्त
ReplyDeleteजब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता हैं व्याकरण....
धरती-आकाश, चाँद-तारे
पर्वत-नदियाँ,पेड़,हवाएं
फूल.भंवरे समूचा ब्रह्मांड
गाने लगता बसंत रा
behtareen !
jab sabhi log valentine day manane men busy hon aise men is andaz se sochna,,aap kee samvedansheelta ko darshata hai.
झोपड़ियां कोई भी हो ,दिलों की झोपडी महफूज़ रहे बस |
ReplyDeleteनए परचम की बधाई |
ख़ुशियों की जगह तय नहीं होती...
ReplyDeleteओय होय!
ReplyDeleteअब समझ में आया आपकी गैरमौजूदगी का मतलब।
यह तो बड़ी खुशी की खबर है। हम समझ रहे थे कि शैलश जी रोजी रोटी के चक्कर में साहित्य जगत से दूर चले गये। पिछले पुस्तक मेले की सभी यादें कौंध गईं। देखें इस बार क्या हो पाता है!
बहुत बहुत बहुत बधाई।
प्रेम की स्पष्ट थाप गूँजती रहती है, सदियों, जब भी शोर कम होता है।
ReplyDeleteबहुत मुबारक...
ReplyDeleteजहाँ "दर्द की महक" है....इमरोज़ साहब होंगे...तो हीर का होना लाज़मी है...
वो तो हर सफ़हे..हर लफ्ज़ में हैं...
क्योकि-
प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी
प्रेम नहीं मुरझाता कभी
प्रेम नहीं झड़ता कभी
सादर नमन हीर जी..
आपकी कवितायेँ कल्पना लोक से बाहर लाकर यथार्थ के कठोर धरातल पर जीवन की पगडंडियों में ले जाती है. . पुस्तक प्रकाशन और विमोचन की कोटिशः बधाई .
ReplyDeleteइस क्षीण होती काया में
ReplyDeleteटुकड़े टुकड़े बाँट लें
ज़िन्दगी के रंग
प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी
प्रेम नहीं मुरझाता कभी
प्रेम नहीं झड़ता कभी
बस धुंधली होती रौशनी में
गुम जाते हैं कहीं शब्द ...
प्रेम तो हर रंग रूप में वही है ...
बेहतरीन !
शुभकामनायें !
पुस्तक प्रकाश की ढेरों बधाइयाँ, कविता बहुत ही सुन्दर है।
ReplyDeleteप्यार एक ऐसा अहसास है जो कही भी पनप सकता है
ReplyDeleteफिर चाहे वह झोपड़ी ही क्यों ना हो ..
बहुत ही बेहतरीन रचना...
पुस्तक प्रकाशन एवं विमोचन पर हार्दिक शुभकामनाए:-)
प्रकाशन*
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा.प्रेम को उसकी विविधता और सहजता के साथ आपने अपनी कविता में अभिव्यक्ति दी है.
ReplyDeleteमिट्टी खोदते वक़्त
ReplyDeleteजब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता था व्याकरण....
जमीनी हकीकत से लबरेज भाव ...
और फिर हरकीरत और हकीकत में बहुत अंतर तो नहीं है न
पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें.प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी प्रेम नहीं मुरझाता कभी प्रेम नहीं झड़ता कभी बस धुंधली होती रौशनी में गुम जाते हैं कहीं शब्द कहानियों के पन्नों में दब जाते हैं कहीं हमारे चिन्ह और मौत लिखती है .... अज्ञात लिपि में प्रेम का शोकगीत .....!……………प्रेम की परिभाषायें कब बदलती हैं।
ReplyDeleteप्रेम अपनी भाषा में
ReplyDeleteलिखता था व्याकरण....
धरती-आकाश, चाँद-तारे
पर्वत-नदियाँ,पेड़,हवाएं
फूल,भंवरे समूचा ब्रह्मांड
गाने लगता था
बसंत राग...
बहुत ही सुन्दर...
पुस्तक विमोचन की सादर शुभकामनाएं....
पुस्तक विमोचन के लिए बधाई उर शुभकामनायें ...
ReplyDeleteकविता में हकीकत बयान है ... यही सच्चा प्रेम है ...
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार के चर्चा मंच पर भी लगा रहा हूँ! सूचनार्थ!
--
महाशिवरात्रि की मंगलकामनाएँ स्वीकार करें।
बेहतरीन रचना..
ReplyDeleteपुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें.
वाह!!!!!हरकीरत जी,बहुत अच्छी सुंदर रचना,...
ReplyDeleteपुस्तक के प्रकासन और विमोचन बहुत२ बधाई ..
MY NEW POST ...सम्बोधन...
भीतर कहीं बर्फ झड़ती
ReplyDeleteतो तुम झुककर
बंद कर देते थे किवाड़
अपने होंठों से ....
EXPRESSION OF PAIN WITH LOVE
THROGH NICE LINES
THANKS
आओ आज के दिन
ReplyDeleteमाज़ी के उलझे जालों से
चुन लायें ..
खुशगवार गुलाबी दिन.waah...very nice.
आओ याद करें
ReplyDeleteपीली सरसों के बीच
उड़ती धानी चुनर
धान की महकती बालियाँ
टेसू के दहकते फूल
जो कभी छाती में
चिडचिड़ाते थे आग ..
तब तो प्रेम हवा में बसता था .... बहुत सुंदर
प्रेम अपनी भाषा में
ReplyDeleteलिखता था व्याकरण....
सच्चे प्रेम पर सुन्दर अभिव्यक्ति,
बहुत शुभकामनाएं!
सादर
आओ....
ReplyDeleteइस क्षीण होती काया में
टुकड़े टुकड़े बाँट लें
ज़िन्दगी के रंग
प्रेम ठूंठ नहीं होता कभी
प्रेम नहीं मुरझाता कभी
प्रेम नहीं झड़ता कभी
आपकी प्रस्तुति लाजबाब व अति भावपूर्ण है.
आपके पुस्तक प्रकाशन और विमोचन के
बारे में पढ़ा.मेरी भी बहुत बहुत बधाई आपको.
आपके 'ऊँ' उच्चारण की गूंज मेरे ब्लॉग पर आने लगी है.'मेरी बात...' पर कुछ अपनी कहियेगा हीर जी.
बहुत-बहुत मुबारक !
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
शब्दों की ताक़त को आज पहचाना ....एक एक शब्द गहन पीड़ा में डूबा ...एक एक अभिव्यक्ति ...चोट पर मरहम जैसी ....मेरा यह सफ़र बिलकुल नया है ....और मेरा लेखन शैशव अवस्था में....फिर भी अपनी प्रतिक्रिया देने से नहीं रोक पाई ....बहुत ही संवेदनशील रचना ....
ReplyDeleteप्रेम तो प्रेम है वहाँ दिखावा कैसा..? हर्कीरत जी पुस्तक प्रकाशन और विमोचन पर ढेरों शुभकामनायें....
ReplyDeleteआओ....
ReplyDeleteइस क्षीण होती काया में
टुकड़े टुकड़े बाँट लें
ज़िन्दगी के रंग
सच्चे शब्द ... जिन्दगी के रंग .. जिन्दगी के संग
हमेशा की तरह लाजवाब करती रचना ...
पुस्तक प्रकाशन एवं विमोचन पर आपको ढेर सारी बधाई ...
बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना,
ReplyDeleteअच्छी कविता.. सच्ची कविता..दिल के ऐसे अल्फाज़ जो मौजूं भी हैं..
ReplyDeleteपुस्तक के लिए शुभकामनाएं और बधाइयां :)
ReplyDeleteपुस्तक की बहुत बहुत बधाई ...
ReplyDeleteऔर कविता तो बेमिसाल है ... कुछ कहने लायक नहीं छोड़तीं आप ...
गुम जाते हैं कहीं शब्द
ReplyDeleteकहानियों के पन्नों में
दब जाते हैं कहीं हमारे चिन्ह
और मौत लिखती है ....
अज्ञात लिपि में
प्रेम का शोकगीत .
इससे पहले कि यह हो आओ प्रेम की भाषा का व्याकरण समझ लें झोपडियों से ।
दर्द की महक के व्यापक होने पर बधाई ।
हीर जी, दिल्ली से दूर होने के कारण उपस्थिति संभव तो नहीं है इसलिए बधाई यहीं स्वीकार करिये. पुस्तक विमोचन के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाये.
ReplyDeleteकाव्य कृति के विमोचन की हार्दिक बधाई.....
ReplyDeleteprem ki sundar vyakhya ki aapne
ReplyDeleteपुस्तक विमोचन पर ...बधाई सहित शुभकामनाएं
ReplyDeleteसुंदर एवं सार्थक दृष्टि।
ReplyDelete------
..की-बोर्ड वाली औरतें।
मूस जी मुस्टंडा...
हार्दिक बधाई...शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteमुझे ख़ुशी है कि मैं भी इस पुस्तक का एक छोटा-सा वैचारिक हिस्सा हूँ।
मैं पुस्तक ‘मेले’ में न जा सका, बल्कि ‘अकेले’ में आपके लिए दुआएँ करता रहा हूँ! दुआओं में कुछ तो असर होगा ही...!
मिट्टी खोदते वक़्त
ReplyDeleteजब उभर आते थे
तुम्हारे हाथों पर फफोले
तड़प उठता था रक्त-मांस का पंछी
तब दुनिया की सारी भाषाएँ
हट जाती थीं एक तरफ
प्रेम अपनी भाषा में
लिखता था व्याकरण....
धरती-आकाश, चाँद-तारे
पर्वत-नदियाँ,पेड़,हवाएं
फूल,भंवरे समूचा ब्रह्मांड
गाने लगता था
बेहद खूबसूरत....
सादर
आओ आज के दिन
ReplyDeleteमाज़ी के उलझे जालों से
चुन लायें ..
खुशगवार गुलाबी दिन
ढोती, हांफती,ढहती ज़िन्दगी में
साँस लेते खुशनुमा पल ...
बहुत ही खूबसूरत रचना...
आपकी तारीफ़ करूँ तो छोटा मुंह बड़ी बात होगी...
ReplyDeleteपुस्तक विमोचन पर बधाई एवं शुभकामनाएँ 'हीर' जी...
आपके स्नेह की आकांक्षा लिए-
अनु
आदरणीय हीर जी
ReplyDeleteआप सचमुच प्यारी हैं बहुत...
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए बहुत शुक्रिया.
मैंने आपको मेल किया है..वक्त मिले तो देखिएगा.
सादर.
Teri Khamoshi me kitna dard chhupa hai...teri khamoshi sunne ko hi wakt ruka hai...mai jane kab se dhoond raha tha tumko "HEER"
ReplyDeleteudta firta van-upvan me bankar "KEER"
..hriday ke atal gahraiyon se anekanek badhaiyaan aur saadar , sasneh sadhuwad....Atyant Umda aur bhawna pradhan sateek samiksha ...isse sundar , saarthak aur samarpit samiksha ho hi nahi sakti thi...aapko bhi sadhuwaad..