रोक सको तो रोक लो ......
खुदाया .....! यह जो तुमने तोह्फ़ा दिया है ...इतनी शक्ति देना क़ि इसे पूरे आकार में जन्म दे सकूँ ....एक धुंधली सी सुब्ह छाती के आले पर रख ...लिख सकूँ सारे जहाँ की औरतों के हक़ में मुहब्बत का गीत ......
लो कर लो...
इन हवाओं का क़त्ल
रोक दो इनकी साँसे .....
काट डालो इनकी अंगुलियाँ
फिर तुम बाँट लेना
युद्ध में जीती इन हवाओं को
अपने अपने हिस्से में ....
पर याद रखना ...
मैं तब भी अपनी कब्र पे
लिखती रहूंगी यही सवाल
तुम्हें सुननी होंगी मेरी चीखें
मैं अपने खूँ की स्याही से
तुम्हारे इन सफेद कुर्तों के
इक-इक धागे पे ....
लिख जाऊंगी तुम्हारे
ज़ुल्म की दस्ताने ....
पर ठहरो ..!
पहले जरा तुम्हारा
कद तो नाप लूँ ....?
मुझे भी उगाने हैं
तुम्हारे कद के
बराबर के खेत* .....
अपने बदन पर पड़े
इन ज़ख्मों की खातिर ...
देखो ......
इक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!
( *किसी धार्मिक पुस्तक में स्त्री के बारे ऐसा लिखा गया है कि स्त्री तुम्हारे घर की खेती है इसे जैसे चाहो काट लो )
wah.....wah... iske alawa aur kuch kahoon...to kya kahoon....
ReplyDeleteदेखो ......
ReplyDeleteइक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!
जिस ज़लज़ले को चाँद लेकर आया हो , उसे भला कौन रोक सकता है ।
इतनी तीखी नज़्म पर और क्या कहें जी ।
हरकीरत'हीर'जी
ReplyDeleteसादर सस्नेहाभिवादन !
आपकी ज़िंदादिली को सौ सलाम …
मेरा एक शे'र आपके लिए -
सफ़र मुश्किल मेरा ; रग़बत सफ़र में है तभी मुझको
न दिलचस्पी कोई रहती , सफ़र आसान होता तो
कायम रहे ये जज़्बा …
हार्दिक बधाई !
शुभकामनाएं !!
मंगलकामनाएं !!!
- राजेन्द्र स्वर्णकार
अभी बहुत बार आऊंगा …
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteखुदाया .....! यह जो तुमने तोह्फ़ा दिया है ...इतनी शक्ति देना क़ि इसे पूरे आकार में जन्म दे सकूँ ....एक धुंधली सी सुब्ह छाती के आले पर रख ...लिख सकूँ सारे जहाँ की औरतों के हक़ में मुहब्बत का गीत ......
ReplyDeleteoh laazawaab---
देखो ......
इक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!
sir jhuk gaya hai taqat aur tamam quvvatton ka !!
प्रकृति के जलजले के आगे सभी असहाय हैं किन्तु फिर भी आदमी आदमी के अस्तित्व के लिये खतरा बना तैयार रहता है.
ReplyDeleteएक धुंधली सी सुब्ह छाती के आले पर रख ...लिख सकूँ सारे जहाँ की औरतों के हक़ में मुहब्बत का गीत ......
ReplyDeleteएह पंक्तियाँ तो गीत के आलाप कि तरह लगीं. और फिर
देखो ......
इक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!
यह जलजला भी जबरदस्त था.
एक जलजले और सुनामी का असर तो आज ही देखा इतनी दुखदायी.
पहले जरा तुम्हारा
ReplyDeleteकद तो नाप लूँ ....?
मुझे उगाने हैं तुम्हारे कद के
बराबर के खेत .....
अपने बदन पर पड़े
इन ज़ख्मों की खातिर ...
maine to bas ek diya jalaya hai in zakhmon ke marham kee khatir
इन हवाओं का क़त्ल
ReplyDeleteरोक दो इनकी साँसे .....
काट डालो इनकी अंगुलियाँ
फिर तुम बाँट लेना
युद्ध में जीती इन हवाओं को
आदरणीया हीर जी
बहुत मार्मिकता से अपने भावों को अभिव्यक्त किया है ...इन भावों में बहुत तन्मयता से मन में चलने वाली हल चल को अभिव्यक्ति मिली है ...सार्थक रचना
मुझे उगाने हैं तुम्हारे कद के
ReplyDeleteबराबर के खेत .....
अपने बदन पर पड़े
इन ज़ख्मों की खातिर ...
आहत मन के बुलंद हौसले………
सलामत रहें आपमें यह जिंदादिली।
बहुत खूब।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी प्रस्तुति .गहन भावों से युक्त आपकी रचना सराहनीय है .बधाई .
ReplyDeleteझांसी की रानी के जज्बे को सौ-सौ सलाम ! आखिर आ गयीं आप नारी शक्ति के हक में झंडा बुलंद करने .......इस फौलादी हिम्मत पर वारे जाऊं ........आज फिर आपने आँखें नम कर दीं ........यह अच्छी बात नहीं है अम्मीजान !
ReplyDeleteshaandar...
ReplyDeleteइस कुदरत से कोन जीत सका हे...बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteलो कर लो...
ReplyDeleteइन हवाओं का क़त्ल
रोक दो इनकी साँसे .....
काट डालो इनकी अंगुलियाँ
फिर तुम बाँट लेना
युद्ध में जीती इन हवाओं को
अपने अपने हिस्से में ....
बहुत खूब ...... आपकी रचनाएँ नए विचार गढ़ती हैं मन में....... आभार
असमय जिन्हें मृत्यु ने अपने आगोश में ले लिया इस कविता के माध्यम से आपने उन्हें सच्ची श्रद्धांजलिदिया है|हमारी सम्वेदनाएँ भी उनकेपरिवारों के साथ हैं |
ReplyDeleteइस हादसे को बड़ी सादगी से पिरोया गया है --यह काम आप के आलावा और कोई कर ही नही सकता--इस दुःख -भरी धड़ी में मेरी श्रधांजली---
ReplyDeleteदेखो ......
ReplyDeleteइक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!
वाह दीदी ..क्या कहने .... बहुत ही खूब ... इस सुनामी को रोकना बहुत ही मुश्किल है
यह जलजला भी जबरदस्त था.
ReplyDeleteबहुत खूब।
पर ठहरो ..!
ReplyDeleteपहले जरा तुम्हारा
कद तो नाप लूँ ....?
मुझे उगाने हैं तुम्हारे कद के
बराबर के खेत .....
अपने बदन पर पड़े
इन ज़ख्मों की खातिर ...
सुनामी तो अपना तांडव दिखा कर ही शांत होता है ...फिर भले ही सब क्यूँ न मिट्टी हो जाए ...बहुत संवेदनशील रचना
रोक सको तो रोक लो
ReplyDeleteमिट्टी को डोलने से ..
kaise rukegi ye mitti..dolegi hi..
agar yahi sab chalta raha to..
bahut hi beharteen abhivyakti ..
badhai..
हरकीरत दीदी,
ReplyDeleteएक बार पुनः कमाल की रचना
बेहतरीन पंक्तियाँ ......
देखो ......
इक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!
वाह क्या बात कही है....बेजोड़...
ReplyDeleteबेहतरीन रचना...
हर बार निशब्द कर देती हैं……………शानदार अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteपर याद रखना ...
ReplyDeleteमैं तब भी अपनी कब्र पे
लिखती रहूंगी सवाल
तुम्हें सुननी होंगी मेरी चीखें
रूह से निकली आवाज़ का दमन नामुमकिन....
और ऐसी नज़्म पर कुछ लिखना मुश्किल
ज़लज़ले बाहर ही नहीं, आदमी के भीतर भी आते हैं। जापान में आई इस आकस्मिक प्राकृतिक आपदा ने एक संवेदनशील कवि के भीतर जो ज़लज़ला पैदा किया है, यह कविता उसी का एक रूप है। बहुत खूब ! आपकी संवेदनाओं को सलाम ! ऐसी ही गहन संवेदनाएं हम सबकी हैं।
ReplyDeleteसोंचने वाली कविता .धन्यवाद
ReplyDeletemain abhi tak is jaljale mein hoon..
ReplyDeleteलो कर लो...
ReplyDeleteइन हवाओं का क़त्ल
रोक दो इनकी साँसे .....
काट डालो इनकी अंगुलियाँ
फिर तुम बाँट लेना
युद्ध में जीती इन हवाओं को
अपने अपने हिस्से में ....
संदेशों से भरपूर,सोचने पर विवश करती हुई बढ़िया, बहुत बढ़िया नज़्म.कैसे इतना अच्छा लिखती हैं हीर जी .वाह वाह
कमाल का ज़लज़ला।
ReplyDeleteबहुत जबरदस्त, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
bahut khub tikhe bhav
ReplyDeleteधरती का डोलना, किसका प्रतीक माना जाये?
ReplyDeleteएक औरत का दर्द पूरी वेदना के साथ... :(
ReplyDeleteमिट्टी को डोलने से ...... बहुत सही पंक्ति.... अब वापस आ गया हूँ........ तो अब पहले आपकी छूती हुई पोस्ट्स पढूंगा...
ReplyDeleteऔर आप कैसी हैं?
wah wah ..bahut umda...
ReplyDeleteदेखो
ReplyDeleteइक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से !!
मिट्टी को डोलने से भला कौन रोक सका है।
चिंतन के लिए उकसाती हुई कविता....शब्द शब्द बोलता हुआ।
मिटटी डोलने का आर्तनाद कही दूर तक सुनाई दिया .इस नज़्म ने उसे शब्दशः रूबरू किया . सलाम है आपकी संवेदशीलता को .
ReplyDeleteबेहतरीन व मर्मस्पर्शी प्रस्तुति ... !
ReplyDeleteपर ठहरो ..!
ReplyDeleteपहले जरा तुम्हारा
कद तो नाप लूँ ....?
मुझे उगाने हैं तुम्हारे कद के
बराबर के खेत .....
अपने बदन पर पड़े
इन ज़ख्मों की खातिर ...
aur ye khet jis din barabar ke ho gaye.... mai kabra me nahi bulandiyo par rahungi.
Ab iske siwa kya kahun sab kuchh to aapne kah diya...dil ko gahare tak chhuti hai ye rachna.
harkeerat ji apke kyaal itne lajawab hote hai ki pehle to anand ki anubhooti hoti hai fir khayal main behta jata hu. aur fir barbas hi apse jealous hone lagti hai :)
ReplyDeletekhuda kare aap youn hi likhti rahe aur ham parhte rahain.
bahut-2 shukriya aapka
पर ठहरो ..!
ReplyDeleteपहले जरा तुम्हारा
कद तो नाप लूँ ....?
मुझे उगाने हैं तुम्हारे कद के
बराबर के खेत .....
अपने बदन पर पड़े
इन ज़ख्मों की खातिर ...
हर शब्द से उठती है बहुत टीस.
देखो ......
ReplyDeleteइक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!
बहुत सुन्दर नज़्म है हरकीरत जी.
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete@ प्रवीण पाण्डेय said...
ReplyDeleteधरती का डोलना, किसका प्रतीक माना जाये?
नारी का ....
जब वह दुर्गा से काली बनती है तब इसी तरह के ज़लज़ले आते हैं ....!!
@ वंदना जी ,
ये ज़लज़ला पिछली पोस्ट का ही है ...
जो इक औरत अपने भीतर सुनामी के रूप में लाई है .....
सोच लीजियेगा .....):
एक सशक्त और सामयिक नज़्म पर अपनी ही कविता की कुछ पंक्तिया यहां शेयर करने का मन बन गया,
ReplyDeleteहुई पुलिन पर मौन,
उदधि की प्रबल तरंगे
सिर धुनकर।
हतप्रभ है जग,
अब वसुधा की
विकल वेदना सुन-सुनकर।
लहरों के
घातक करघे से,
मौत गई बरबादी बुनकर।
देखो ......
ReplyDeleteइक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!..
क्या कहूँ.... इसके आगे तो शब्द भी ख़त्म हो जाते हैं ..
देखो ......
ReplyDeleteइक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!........जब ज़लज़ला अपने साथ सुनामी लेकर आता है. तो उसे तबाही मचाने से कौन रोक सकता है. आपके अंदर की आग प्रज्वलित है..... इस नज़्म में भी तेवर बरक़रार है. बधाई स्वीकार करें.
-----देवेंद्र गौतम
देखो ......
ReplyDeleteइक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .
bilkul sahi kaha .bahut khoobsurat .
मर्मस्पर्शी..
ReplyDeleteदेखो ......
ReplyDeleteइक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!
नि:शब्द करते शब्द हैं इन पंक्तियों के ...।
कुदरत जब गुस्सा होती है तो उसके क्रोध के आगे सब बेबस होते हैं.... लेकिन अपने मद में चूर इंसान बार-बार इस बात को भूल जाता है... और फिर कुदरत को छेड़ने लगता है....
ReplyDeleteशानदार रचना के लिए आपको बधाई.....
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ReplyDeleteपर ठहरो ..!
ReplyDeleteपहले जरा तुम्हारा
कद तो नाप लूँ ....?
मुझे भी उगाने हैं
तुम्हारे कद के
बराबर के खेत .....
अपने बदन पर पड़े
इन ज़ख्मों की खातिर ...
एक हलचल सी मचा कर चले जाते हैं आपके शब्द ... अफ कितना दर्द भरा होता है इन शब्दों में ...
औरतों के हक़ में प्रेम का गीत लिखने की बड़ी शानदार बात कही. ख़ुदा के दिए तोहफे को ही तो आपने इस कविता के माध्यम से पेश-ए-नजर किया है. अच्छी रचना के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया.
ReplyDeleteहरकीरत'हीर'जी
ReplyDeleteसादर सस्नेहाभिवादन !
लो कर लो
इन हवाओं का क़त्ल
रोक दो इनकी साँसे
काट डालो इनकी अंगुलियाँ
फिर तुम बाँट लेना
युद्ध में जीती इन हवाओं को
अपने अपने हिस्से में
बहुत खूब . आपकी रचनाएँ नए विचार गढ़ती हैं मन में.!
आभार
आद इमरान जी ,
ReplyDeleteमैंने इस मज़हब से सिर्फ इक औरत की बात उठाई थी ....
जो काफी पाबंदियों के बीच जीती आई है
कुछ बातें सामने भी आई हैं ...
इसे धर्म का हव्वा आप लोगों ने बनाया ..
मैंने कोई धर्म की बुराई नहीं की थी ..
न मेरी ऐसी कोई मंशा थी ..
ये मेरी नज्म से स्पष्ट है ....
फिर भी इस पोस्ट पर जिस तरह की टिप्पणियाँ आईं वो मनों में भेद भाव डालने के लिए काफी थीं
सच कहूँ तो मैं खुद इन टिप्पणियों से बहुत आहत हुई हूँ ...
ख़ास कर आपकी व वंदना जी की टिपण्णी से ....
बहस की शुरुआत किसने की .....?
जब सामने वाला बेवजह आप पर इल्ज़ाम लगाये
तो मौन साध कर सुनना भी अपराध है ..
मेरा दुर्भाग्य था कि वह औरत इस मज़हब से जुडी हुई थी
भीड़ जो आप लोग जुटा कर लाये वो अंधी बहरी नहीं थी ?
जो इस तरफ से आई वो अंधी बहरी थी ....
आप फिर उसी मुद्दे पर आ गए हैं ...
मेरा मकसद धर्म को नीचा दिखाना कतई नहीं था ....
जिसे आप लोग बार बार हवा दे रहे हैं ....
मैं एक स्त्री हूँ और इस तरह की पाबंदियां मुझे आपत्ति जनक लगीं ...भले ही वो किसी और धर्म से होती तो भी मैं लिखती .......
और मेरी कलम उन तमाम स्त्रियों के लिए उठती रहेगी जो कहीं न कहीं इस तरह की पाबंदियों में दम घोंट रही है या मानसिक व शारीरिक पीड़ाओं से त्रस्त हैं ........
चाहे वह किसी भी मज़हब से जुडी हों ....
.
पहले हम इंसान हैं मज़हब बाद में ...
इसलिए आपसे इल्तजा है कि इंसान बन कर ही एक स्त्री के हित को ध्यान में रख कर सोचिये ....
आद. हरकीरत जी,
ReplyDeleteपर ठहरो ..!
पहले जरा तुम्हारा
कद तो नाप लूँ ....?
मुझे भी उगाने हैं
तुम्हारे कद के
बराबर के खेत .....
अपने बदन पर पड़े
इन ज़ख्मों की खातिर ...
देखो ......
इक ज़लज़ला
सुनामी लिए आया है
रोक सको तो रोक लो
मिट्टी को डोलने से .....!!
शब्द शब्द दिल को चीर गए !
'पर ठहरो ........!
ReplyDeleteपहले जरा तुम्हारा
कद तो नाप लूं .....?
***********
************
रोक सको तो रोक लो
मिटटी को डोलने से ......!'
गहन भावों की सुन्दर -आकुल अभिव्यक्ति
ज़नाब अंसारी साहेब ! टिप्पणी-प्रति टिप्पणी का दौर फिर शुरू हो गया ......स्पष्ट है आप कहीं आहत हुए..... . क्या इस्लाम शब्द को लेकर ? यूं आपकी टिप्पणी पिछली रचना को लेकर थी ......जिसे वहीं होना चाहिए था .....यहाँ वह अप्रासंगिक है. आपके ऊपर साफ़-साफ़ रजनीश का असर दिख रहा है ...कम से कम आपकी दलीलों से तो यही लगा. आपकी पीड़ा का समाधान आपकी ही दलीलों में एकदम स्पष्ट है. पर कस्तूरी की गंध का स्रोत नहीं मिल पा रहा है आपको...हैरत है. हमें धर्मों की ज्यादा जानकारी नहीं है पर इतना ज़रूर जानते हैं की यदि धर्म न होता तो हम सब बिखर गए होते ...साथ ही यह धर्म ही है जिसने समाज को बाँट दिया है. विरोधाभास स्पष्ट है. दोनों जगह धर्म के अर्थ अलग है. आपके तर्कों से लगता है कि आपको इन दोनों धर्मों के अर्थ मालूम हैं ...तो अब यहाँ तर्क की कोई गुंजाइश नहीं थी ...फिर भी तर्क हुआ ...इसका सीधा सा अर्थ यह है कि हम रूढ़ी के खिलाफ होते हुए भी न जाने क्यों उसे छोड़ नहीं पा रहे हैं......माओ ने इस मानवीय कमजोरी को भांप लिया था ...तभी तो उसने धर्म को अफीम की संज्ञा दे दी और प्रतिबन्ध लगा दिया. हम इस विषय पर यहाँ अधिक नहीं कहेंगे ...सिवाय इसके कि हीर जी का आशय महिला उत्पीडन को लेकर था ...उस पर बहस होती तो बेहतर था. एक वाकया याद दिलाना चाहूंगा आपको, बाबरी मस्जिद प्रकरण को लेकर बाबर के खानदान की एक विधवा वारिस, जो कि कोलकाता में अपनी दो कुंवारी बेटियों के साथ बड़ी मुश्किल से दस्तकारी करके अपने दिन गुज़ार रही थीं , ने एक बयान जारी किया था जो कि बड़ा ही मार्मिक था ....उन्होंने भी धर्म को लेकर होने वाले बबालों पर प्रश्न चिन्ह लगाया था. उन्होंने पूछा था कि यह कैसा धर्म है जो बाबर की मस्जिद को लेकर इतना आहत है पर उसी बाबर के खानदान की बेवा बहू और उसकी दोनों बेटियों की किसी को सुध नहीं है ? उनके बयान (मैं इसे उनका आर्तनाद कहूंगा ) ने मेरी आँखे नम कर दी थीं .....मेरा सारा धर्म ज्ञान उनकी मुफ़लिसी में समाहित हो गया था. मुझे नहीं पता उनकी बेटियों की शादी कैसे हुयी होगी. वे हैं भी या नहीं यह भी नहीं पता. पर यह मस्जिद के टूटने से कई कोटि गुना दर्दनाक वाकया था ....ऐसे में यदि वे धर्म के प्रति विद्रोही हो गयी हों तो क्या सारा दोष उन्हीं का होगा ? ...समाज का कोई उत्तरदायित्व नहीं ..उसकी कोई भागीदारी नहीं ? धर्म का रिफ्लेक्शन हम जैसे साधारण लोग तो यहीं पर देखते हैं. उस धर्म का नाम कुछ भी हो.
ReplyDeleteपुनश्च .......हमें हीर जी की उस भावना का आदर करना चाहिए जिसके कारण उन्होंने महिला उत्पीडन को अपनी आवाज़ दी ...बिना यह सोचे कि हमें क्या मतलब .....उस समुदाय से ...कोई कुछ भी करे ......हम तो ठीक हैं अपने में .....वे शुतुरमुर्ग नहीं बन सकीं ......उन्होंने कलम के पहरेदार का अपना उत्तरदायित्व बखूबी निभाया .....उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता को निभाया . लोगों को फख्र होना चाहिए था कि उनके समाज की आधी दुनिया की तकलीफों को एक ऐसी सख्सियत ने आवाज़ दी है जो दीगर धर्म से है ...आखिर हीर जी को क्या मतलब था उन महिलाओं से जिनके दर्द को उन्होंने बड़े करीब से अनुभव किया था ? नहीं ......मतलब था ......इंसानियत का मतलब था ......आधी दुनिया के दर्द का मतलब था .....जो काम इसके लिए उत्तरदायी लोगों को करना चाहिए था वह काम हीर जी ने किया है ......उन पर कोई टिप्पणी करना दुखदायी है.
ReplyDeleteअंसारी साहेब अन्यथा अर्थ मत लीजिएगा ...मेरा उद्देश्य आपको पीड़ित करना कतई नहीं है. मैं जानता हूँ आपने भी किसी दुर्भावना के कारण टिप्पणी नहीं की है ......क्या किया जाय ये "धर्म" (?) जो न कराये.
आद हीर जी,
ReplyDeleteआपके मुखर अलफ़ाज़ बस उतरते चले जाते हैं.भीतर श्रावणी नदी की तरह....
आप हमेशा की तरह सच की शमा थामे रहें और रौशनी फैलाती रहें...
और आपके लिए...
"एहसासों का पर्वत थरथराता रहा.
वह मुहब्बत के नगमे उगाता रहा
घबराया कहाँ, कब तूफानों से वो
तूफानों को खुद आजमाता रहा"
सादर आभार
@ हीर जी,
ReplyDeleteचूँकि मैं यहाँ नहीं था इसलिए मैंने अपनी पहली टिप्पणी के बाद बाकी की टिप्पणियां कल ही पड़ी थी.......इसलिए आपकी पोस्ट पर मैंने ये टिप्पणी लिखी......मुझे सख्त अफ़सोस है इस बात का की मैंने अपनी टिपण्णी में किसी का पक्ष नहीं लिया फिर भी आपको लगा मैं पक्षपात की बात कर रहा हूँ......मैं तो कोई भीड़ जुटा कर नहीं लाया.....इस तरफ और उस तरफ से क्या मतलब है.....क्या यहाँ कोई जंग हो रही थी?
मैंने किसी को दूध का धुला नहीं कहा.......आपने कहा मेरी टिप्पणी से आप सबसे ज्यादा आहात हुई.......मुझे नहीं लगता मैंने ऐसा कुछ भी कहा.......फिर भी आपको ऐसा लगा तो मैं हाथ जोड़ कर आपसे माफ़ी मांगता हूँ......अगर मैंने कुछ भी ऐसा कहा जिससे किसी के भी दिल को ठेस पहुंची हो तो छोटा समझ कर माफ़ करें.....मैं फिर कहता हूँ कम से कम मैं आप को ऐसा नहीं समझता था.....सच तो ये है आपकी इस बात से मुझे बहुत अफ़सोस हुआ है......काश आप मुझे समझ पाती.......खैर जो आपको सही लगता है कीजिये ........मेरी तो यही दुआ है की आप खुश रहें....मैं अपनी दोनों टिप्पणीयाँ यहाँ से हटा दूंगा.......खुदा हाफिज़.
@ कौशलेन्द्र जी.....मैं यहाँ कोई धार्मिक उन्माद नहीं चाहता......आप की कई बातों से मैं सहमत हूँ.......पर क्या ये बेहतर नहीं होगा......की जिससे संबोधित होकर बात की गयी है वही उसका जवाब दे तो.....
हीर जी, बहुत ही सार्थक और मर्मस्पशी प्रस्तुति.............. बहुत ही मार्मिक नज़्म.
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteदिल खुश हो गिया !
ReplyDeleteफिर तुम बाँट लेना
ReplyDeleteयुद्ध में जीती इन हवाओं को
अपने अपने हिस्से में ....
khubsoorat chitran hai