Wednesday, November 24, 2010

ख़त ...सिसकता चिराग़ .....और ज़िक्र ...

आज की तम्हीद बड़ी मायने रखती है ....आज इक अज़ीज़ मित्र मुफ़लिस (अब दानिश भारती )जी का जन्म दिन है .....तोहफे में पहली नज़्म उनके नाम ......मुफ़लिस जी से मेरा परिचय भी बड़ा रोमांचक है ....न वो तब ब्लोगर थे और न मैं .....उनकी एक ग़ज़ल किसी पत्रिका में छपी थी ....ग़ज़ल पसंद आई....नम्बर भी नीचे दिया गया था ....मैंने तुरंत समस किया '' मुफ़लिस जी आपकी ग़ज़ल बेहद पसंद आई '' ....जवाब में उन्होंने लिखा....'' शुक्रिया जनाब ..'' ...मैंने फिर कहा...'' मैं 'जनाब' नहीं 'जनाबी हूँ'' ....और सितम देखिये वो आज भी कभी मुझे मेल करते हैं तो 'जनाबी' ही लिखते हैं .... कई बार जब ज्यादा परेशां होती तो उन्हें फोन करती ....कहती..., '' जी चाहता है ख़ुदकुशी कर लूँ ''....वे हंस कर कहते... '' कैसे करोगी ...? फंदा मत लगाना उससे जीभ बाहर निकल आती है ''...और मैं उस कल्पना से खिलखिलाकर हंस पड़ती .......
मुफ़लिस जी बहुत ही अच्छे इंसान हैं ....दिल के भी उतने ही सरल ...साफ...और नेक ....कई बार मुझे दुविधाओं में सलाह देते ....हिदायत देते ..और मशवरा भी ....
आज के दिन दुआ है रब्ब उन्हें कामयाबी की हर मंजिल दे ...उनके फ़न को और हुनर बख्शे ...वे अदब नवाजों में गिने जायें ....
आज फिर पेश हैं कुछ क्षणिकाएं .....

(१)

तेरा जन्म ....

त्तों के ....
लबों की ये थरथराहट ....
शाखों की ये मुस्कराहट ...
आँखों में अज़ब सी चमक लिए ...
अजनबी सी ये सबा ...
आज ये ....
कैसा पता दे रही है ....?

(२)

तेरी याद ...

ब भी ....
तेरी याद का परिंदा
मेरी छत की मुंडेर पर
बैठता है ....
मेरे मकान की नीव हिलने लगती है
आ इक बार ही सही ....
अपनी मोहब्बत की इक ईंट लगा जा
कहीं ये ढह न जाये .....!!

(३)

ख़त .....

कुछ अक्षर ...
जो कभी तुम्हारे सीने पर
सर रख कर खूब खिलखिलाए थे
आज फिर भेजे हैं ख़त में
हो सके तो इन्हें ...
रोने देना ....
मोहब्बत अब ....
जिंदा रहना चाहती है .....!!

(४)

सिसकता चिराग़ .....

ज ये फिर ...
तेरी कमी सी
जाने कैसी खली है ...
के मेरी कब्र के......
टूटे आले पर रखा रखा चिराग़
सिसक उठा है ....
मेरी उम्र की मीआद
अब घटने लगी है ........!!

(५)

ज़िक्र ...

नका ज़िक्र ...
कुछ यूँ करती है सबा
के इस खुश्करात के सीने पर
उग आता है .....
मीठा - मीठा सा दर्द
इश्क़ का .......!!

(६)

रंग.....

शायद मैं ....
कागज़ का वह टुकड़ा थी
जहाँ मोहब्बत का कोई हर्फ़
रंग नहीं लाया .....
ऐसे में तुम ही कहो
मैं तुम्हारे लिए
मोहब्बत का हर्फ़
कैसे लिखती .....!!

Monday, November 15, 2010

दौड़ .....आत्म-हत्या ....और क़दमों के निशां ....

न जाने क्यों नफरत के बीज से छाती पे उगते जा रहे हैं...आँखें मोहब्बत की खोज में किसी टूटे सिरे की पनाह में हैं ...कई बार गांठे लगा चुकी हूँ ....कच्चे धागे की पकड़ पता नहीं और कितनी दूर साथ दे .... तभी अचानक किसी अज़ीज़ मित्र के ये अक्षर सामने खड़े होते हैं ...."कभी सूर्य चमकता है कभी बारिश हो जाती है लेकिन . . . न्द्रनु बन जाने के लिये इन्ही दोनों की ज़रुरत होती है" ....मैं फिर अपना जमीर तलाशने लगती हूँ .....बीज एक-एक कर रुईं की मानिंद आसमां में विलीन हो जाते हैं .....मैं इन कच्चे धागों के साथ एक धागा और जोड़ देती हूँ फर्ज़ का.......
दुआ
है रब्ब उस मित्र को इन्द्रधनुष के सातों रंग दे .....


()

दौड़ .....


ज़िन्दगी ....
इक खत्म होनेवाली
दौड़ है .....
जड़ों के नीचे फिसलता है पानी
दरकती है ज़िस्म की ज़मीं
दूर कहीं परछइयां सी सिमटती हैं
प्यार-मोहब्बत का खेल
अनवरत चलता है
पृष्ठभूमि पर ......
हर सिम्त इक दुगंध सी फैली है
सीवर के खुले ढक्कन की सी
उफ्फ़......!
सांसों में इक तेज भभका
बड़बड़ाता सा घुस आया है
अधेड़नुमा भावुक सांसें
जीने के लिए ....
शावर के नीचे
खोलने लगती हैं
ज़िस्म के दरवाजे .....!!

()

आत्म-हत्या ....

कु मुखौटों द्वारा
फेंके गए ....
सड़े -गले शब्दों का गोश्त
नग्न हो ....
वीभत्स भंगिमाओं के साथ
नृत्य करता रहा रातभर ...
और .......
रंगमंच की रौशनियाँ
एक-एककर करती रहीं
आत्म-हत्या......!!

()

क़दमों के निशां ....

हाँ कोई शज़र
दूर तलक साथ नहीं देता
सन्नाटे वाबस्ता
पलटते हैं पन्ने ....
लफ्ज़ दर्द के छींटे लिए
साँस लेने की कोशिश में
औंधे पड़े हैं ........
यहाँ .....
कोई आँख का मुरीद नहीं
लकीरें तिडकती हैं हाथों से
वक़्त अपना चेहरा
हाथों में लिए
झांकता है दरीचों से ...
चाँद खौफ़ का लिहाफ ओढ़े
सहमा सा खड़ा है ....
कोई समवेत चीखती आवाज़
यक--यक खामोश हो जाती है
सफ़्हों पर .....
अय खुदा ....!
मैं रहूँ रहूँ
मेरे क़दमों के निशां
बचे रहें ......!!

Wednesday, November 3, 2010

कुछ मोहब्बत के दीये ...वक़्त के निशान ...और पैगाम .......

कोई आह सी उठी है लबों से, कोई दर्द ख्यालों में उतर आया है
लिखकर तेरा नाम दीयों से , इन अंधेरों ने आज तुझे बुलाया है ....

आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं .......


()

दिवाली .....

ज़िन्दगी ....
हर रोज़ हादसों से
गुज़रती रही .....
और हर हादसे के बाद
इक चिराग़ बुझता गया ...

आज दिवाली है ......!!


()

वक़्त के निशान .....

आज.....
बरसों बाद जब ...
अपना पुराना संदूक खोला
उसमें तुम्हारा दिया
वो पीतल का दीया भी था .....
जो अब वक़्त के साथ
काला पड़ चूका है ......!!


()

मोहब्बत के दीये ....

मैं तो ...
जन्मों से
तुम्हारी ही थी ....
तो क्या हुआ, जो हम
साथ-साथ जल सके
बस ख्याल रखना ...
हवा बुझा दे कहीं
मोहब्बत के ये जलते दीये
हमारे दिलों से .....!!

()


रौशनी .....

बरसों पहले ...
इसी दिन .....
छोड़ आई थी मैं
अपनी रौशनी तुम्हारे पास
गर तुमने .....
दिल के किसी कोने में उसे ....
संभाले रखा है ....
तो दे जाना इस बार
मेरे चिराग़ अब ...
बुझने लगे हैं .....!!

()

तेल .....

कई बार ...
अंगुलियाँ जलाई हैं
कई बार....
छालों को सुई से कुरेदा है .....
अय मोहब्बत ! सच्च मान ....
तुझसे किये वादे की खातिर ही
मैं ताउम्र ........
अपने दीयों में
तेल डालती रही .....!!

()

पैगाम .....

कभी जो ...
दरिया किनारे बैठो
लहरों को दूर तलक
गौर से देखना ........
कहीं कोई , मझधार में ...
लड़खडाता सा दीया ...
मोहब्बत के ....
जिन्दा होने का
पैगाम .....
दे जायेगा .....!!

()

छाले .....

मेरा दीपक
काँपता है ....
शायद ............
बरसों के छाले हैं .....
इसके दिल पर ....!!

()

फ़रियाद.....

तुम्हें याद होगा ...
कभी हमने लिखे थे
दीयों से इक-दूसरे के नाम ....
आज भी दिवाली है ...
तुम लिखना इस बार फिर
अपने आँगन में मेरा नाम
मैं भी जलाऊंगी......
तुम्हारे नाम की शमा
मोहब्बत अब .......
रौशनी मांगती है ......!!

()

उम्मीदों के दीये ......

रातों की उदासी
और मायूसी के बीच
इस बार फिर जलाये हैं
कुछ उम्मीदों के दीये .......
देखना है चिरागों में रौशनी
लौटती है या नहीं .....!?!

(१०)

खुशबू .....

चारों तरफ
अँधेरा था ....
चाँद की चाँदनी ......
तारों की रौशनी .......
मैंने अपने भीतर झाँका
शायद कोई दीया मिल जाये ..
वहाँ भी अँधेरा था .............
अचानक किवाड़ों पे दस्तक हुई
मैंने हौले से पूछा : कौन है ...?
वह बोली : मैं हूँ ...........
मैंने धीमे से दरवाजा खोला
सबा थी ........
तेरे बदन की खुशबू लिए
और.....
चिराग़ जल उठे ....!!



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Monday, October 18, 2010

तहज़ीब....पुकार....और तबशीर ......

ख्मी जुबाँ बहुत कुछ कहना चाहती थी ...पर कलम ने मुँह फेर लिया ...इस बीच मन में कई चूडियाँ टूटीं ....कई पन्ने लिखे और फाड़े .....मित्रों ने सलाह दी कमजोर बनूँ .....मैंने सारे पत्थर चुन कर रख लिए ....वैसे भी अब इन पत्थरों से इमारत बनने वाली है ....ज़िन्दगी की चादर है ही कितनी ...? रात परिंदे की सी कैद में कट जाएगी और सुब्ह दुआ मांगते ....पर ये लफ्ज़ हमारे पास वैसे ही जिंदा रहेंगे जितने कसैले हम बोयेगें ....
पहली नज़्म उन्हीं लफ़्ज़ों के नाम ...और फिर कुछ उदास आवाजों में मुहब्बत के नाम .....


()

तहज़ीब ....

जी चाहता है
इस मिट्टी की
सारी ख़ामोशी चुरा लूँ
और ओढ़ लूँ
किसी ताबूत में बैठ ...
यहाँ इल्म की आँखें बड़ी हैं
और मेरी तहज़ीब छोटी
तुम्हारे लफ्ज़ अभी भी जिन्दा हैं
मेरे हाथों में .....
और इसलिए भी कि ....
इनके पीछे छिपी हैं
दो गहरी उदास आँखें
जो मेरी सोच को
और पुख्ता करती हैं
मुझ से न्याय मांगती हैं
हो सके तो कभी .....
उन
आँखों से दो बूंद
आँसू
बहने देना .....!!

()

फूल.....

काले लिबास में
कोई फ़कीर इक
गजरे का फूल ...
डाल गया है झोली में
पनीली आँखों में
फिर तेरा ख्याल उतरा है
सोचती हूँ ....
अगले जन्म के लिए ही सही
कुछ रेखाएं खिंचवा लूँ उसी से
हथेली में ......!!

()

इक बार ....

जानती हूँ ....
तुम्हारे मंदिर में
अब जगह नहीं है मेरी
फिर भी जाने क्यों
ये सूरज ज़िस्म की डोर
खींचे लिए जाता है ...
लिखने दे इक बार ख़त मुझे
गुलाब की पत्तियों से
के मौत ने आज जरा सा
घूँघट उतारा है ......!!

()

पुकार .....

हवा....
ढ़ नाची है
पत्तियों पे आज
रंग कोई सुर्ख सा
उसने चुराया है ...
ख्वाहिशें रंगसाज से
रंगवा लाई हैं दुपट्टा मेरा
ख्वाबों ने रातों में
फिर मोहब्बत को
पुकारा है .....!!

()

कोई तो दे तबशीर ....

फिर
गिरी है दुआ ...
आज फिर हाथ उठा है
रात कपड़े उतारे बैठी है
फासले गर्द से भरे हैं
अय खुदा...!
कोई तो तबशीर दे मुझे
के आज मुहब्बत
अपनी हथेली फैला
खूब रोई है .....!!

तबशीर- शुभ सुचना